कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी ‘भित्तिचित्र की मयूरी’ की मुख्य पात्र है फूलपत्ती यानी फूलपत्तिया। उसकी मां पनियां उर्फ पन्ना देवी मिथिला की परंपरागत भित्तिचित्रण में पारंगत है। अपनी मां से यह गुण फूलपत्ती भी सीख चुकी है, और एक दिन शहर से सनातन नाम का एक व्यक्ति आता है जो पेशे से कला अकादमी का सचिव है । वह उनकी कलाकृतियों को पटना दिल्ली तक पहुंचाने का मार्ग प्रशस्त करता है। एक प्रसंग में सनातन को फूलपतिया जवाब देती है-’मयूरी को नाचने-नचानेवाले पंख होते ही कितने हैं, जो वह नाचेगी।’ और कहानी के अंत में पता चलता है कि फूलपतिया महानगर या शहर जाने का प्रस्ताव ठुकराकर गांव में ही रहना पसंद करती है। जहां उसका सपना होता है एक स्कूल खोलने का जहां बच्चों को कला की शिक्षा दे सके। बहरहाल यह तो हुई कथा-कहानी की बात। लेकिन हम आपको आज परिचित करवा रहे हैं दुला यानी दुलारी देवी से जिन्होंने तमाम विपरीत परिस्थितियों में वह कर दिखाया, जिसे हम हौसलों की उड़ान कह सकते हैं। 9 नवंबर को वर्ष 2021 का पद्म पुरस्कार पाने वालों में दुलारी देवी भी थी। करीब दो बरस पहले की बात है कलागुरु जयकृष्ण अग्रवाल, भूतपूर्व प्राचार्य कला महाविद्यालय, लखनऊ के साथ मिथिला के मधुबनी क्षेत्र में था। वहां जानकारी मिलती है कि सुजनी कला की प्रख्यात कलाकार कर्पूरी देवी काफी अस्वस्थ हैं, यहां तक कि डॉक्टरों ने भी उम्मीद छोड़ दी है। साथी स्थानीय कलाकार द्वय राजकुमार लाल और राकेश झा जी का सुझाव था कि अंतिम प्रणाम कर लिया जाए। ऐसे में वहीं अस्पताल में ही मिलती हैं दुलारी, परिचय के क्रम में पता चलता है कि कर्पूरी जी की आजीवन सेविका रहीं हैं। जो लोग ग्रामीण जीवन से परिचित हैं वे भलीभांति जानते हैं कि हमारे ग्रामीण समाज में प्रत्येक व्यक्ति आपस में किसी न किसी रिश्ते से बंधा होता है। तो दुलारी के लिए कर्पूरी जी जहां चाचीदाय थीं तो कर्पूरी जी के लिए दुलारी थीं दुला बेटी। दुलारी की कला यात्रा की बात करें तो इन्हीं चाचीदाय के घर-आंगन से उसकी शुरुआत होती है। वैसे भी हम जानते हैं कि मिथिला की लोक चित्रशैली वास्तव में घर-आंगन की कला ही है। अलबत्ता आज यह कला देश-विदेश में अपनी विशिष्ट पहचान बना चुकी है।
दुलारी देवी का जन्म बिहार के मधुबनी जिले के रांटी गांव के एक मछुआरा (मल्लाह) परिवार में 27 दिसम्बर 1967 को हुआ। घरवाले अपने परंपरागत पेशे यानी मछली पकड़ने या मजदूरी से जुड़े थे। ऐसे में दुलारी भी बचपन से ही माता-पिता के साथ कभी खेतों में मजदूरी तो कभी मछली पकड़ने में लगी रहतीं। बारह वर्ष की छोटी सी उम्र में दुलारी का विवाह या कहें तो बालविवाह भी हो गया। दाम्पत्य जीवन कुछ अच्छा नहीं कहा जा सकता था, ऐसे में दुलारी ने एक बेटी को जन्म दिया। किन्तु दुर्भाग्य से वह बच्ची 6 माह की होकर चल बसी। अब ऐसा कुछ हुआ कि दुलारी वापस अपने मायके रांटी चली आयी और वहीं की होकर रह गयीं। यहां मिथिला पेंटिंग की ख्यात कलाकार पद्मश्री महासुंदरी देवी और कर्पूरी देवी का परिवार था, महासुंदरी और कर्पूरी आपस में देवरानी-जेठानी थीं। दुलारी इन्हीं के घर का काम-काज संभालने लगीं। लेकिन काम से समय निकालकर वह इन दोनों की रचना प्रक्रिया को बड़े हसरत से देखा करती थी। उन दिनों चित्ररचना वगैरह का चलन सवर्ण परिवारों खासकर कायस्थ और ब्राह्मण परिवारों तक ही सीमित था। ऐसे में इच्छा होते हुए भी दुलारी अपने मन की बात किसी से कहने में सकुचाती थीं। साथ ही मसला यह भी था कि अगर सीखना भी चाहे तो सिखायेगा कौन और फिर इसके लिए रंग, ब्राश और कागज कहां से आएंगे। ऊपर से तुर्रा यह भी कि लिखना पढ़ना क्या होता है इसके बारे में तो कभी सोचा ही नहीं था। लेकिन लगन और जिद जैसे दो शब्द उनके हिस्से आ चुका था। तो उन्होंने एक अलग रास्ता निकाला। काम से वापस आकर दुलारी आंगन को पानी से लीपकर उसपर लकड़ी के टुकड़े से रेखाएं उकेरने का अभ्यास करने लगी।
वो कहते हैं न कि जहां चाह वहां राह तो दुलारी के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। उन्हीं दिनों भारत सरकार के वस्त्र मंत्रालय की तरफ से महासुंदरी देवी के आवास पर मिथिला पेंटिंग के प्रशिक्षण कार्यक्रम की शुरुआत होनी थी। प्रशिक्षण छह महीने तक दिया जाना था, महासुंदरी ने दुलारी को भी उस कार्यक्रम से जोड़ लिया। इस तरह मिथिला चित्रकला के सीखने की विधिवत शुरुआत हो गयी। दुलारी ने पूरे लगन से सीखना जारी रखा, महासुंदरी के साथ-साथ कर्पूरी देवी से भी सीखने का यह सिलसिला चलता रहा कोर्स खत्म होने के बाद भी। यहां तक कि दुलारी के मन के किसी कोने में एक अज्ञात भय भी था कि अगर उसके बनाए चित्र अच्छे नहीं हुए तो यह मान लिया जाएगा कि वो इसके काबिल नहीं हैं। तो अब जिद थी अपनी काबिलियत का लोहा मनवाने का। इधर हुआ यह कि कर्पूरी जी के बच्चे दिल्ली में जा बसे। ऐसे में दुलारी ने अपने आपको एक तरह से उनकी सेवा में समर्पित ही कर दिया। अब यह रिश्ता सेविका या परिचारिका का नहीं होकर मां-बेटी के रिश्ते में बदल चुका था। गांव में तब बिजली नहीं हुआ करती थी फिर भी दुलारी ढिबरी की रोशनी में देर रात तक चित्र रचना में जुटी रहती थी। मिथिला के समाज में सामान्य तौर पर सवर्ण जाति की महिलाएं जहां रामायण, महाभारत एवं अन्य पौराणिक आख्यानों को अपने चित्रों में उकेरा करती थी। वहीं दलितों के बीच राजा सलहेस के लोक आख्यान के अंकन की परंपरा विकसित होती चली गयी थी। दुलारी ने इन सबसे थोड़ा अलग हटकर अपने चित्रों के विषय-वस्तु के तौर पर ग्राम्य जीवन या आम जनजीवन को चुना । खासकर मल्लाह जाति के दैनिक क्रियाकलाप यानी मछुआरों के जीवन पर केंद्रित। आमतौर पर मिथिला चित्रकला को कचनी और भरनी जैसी दो शैलियों में बांटा जाता है। कचनी यानी जिसमें रेखाओं की प्रधानता हो वहीं भरनी में रंगों का प्रयोग अपेक्षाकृत ज्यादा होता है। आगे चलकर उन्होंने बाजार के चलन या मांग को ध्यान में रखते हुए रामायण, महाभारत समेत अन्य धार्मिक विषयों के चित्र भी बनाए। लेकिन ग्राम्य जीवन यानी नदी-तालाब, खेत-खलिहान से लेकर हाट-बाजार के बिम्ब भी उनके चित्रों में उभरने लगे।
इतना ही नहीं क्रिकेट से लेकर भ्रष्टाचार और नशा मुक्ति जैसे समसामयिक विषय भी उनक चित्रों में शामिल होते चले गए। वर्ष 1999 में ललित कला अकादमी एवं वर्ष 2012-13 में उद्योग विभाग बिहार द्वारा दिया जानेवाला राज्य पुरस्कार भी उन्हें हासिल हुआ। यहां तक कि जब उनके कला की चर्चा फैली तो देश के सुदूर हिस्सों से भी आमंत्रण आने लगे। इस क्रम में ‘कला माध्यम ‘ नामक संस्था के बुलावे पर बंगलोर जा पहुंची, जहां लगभग पांच वर्षों तक विभिन्न शिक्षण संस्थानो समेत अनेक सरकारी और गैर सरकारी भवनों की दीवारों को अपनी कलाकृतियों के माध्यम से जीवंत करती रहीं। इसके बाद तो मद्रास, केरल, हरियाणा और कोलकाता तक में मिथिला पेंटिंग पर आयोजित कार्यशालाओं में शामिल होने का अवसर मिला। बोधगया के नौलखा मंदिर की दीवारों को भी अपने चिोिं से सजाया। दूसरी तरफ देश-विदेश के विभिन्न प्रकाशनों के लिए भी रेखांकन/ चित्रांकन का अवसर मिला। कला प्रेमी गीता वुल्फ ने इनके ही द्वारा चित्रित इनकी आत्मकथा ‘फॉलोइंग माई पेंट ब्रश’ भी प्रकाशित की। मार्टिन ली कॉज की फ्रेंच भाषा में लिखी ‘मिथिला’, एवं हिन्दी की कला पत्रिका ‘सतरंगी’ एवं ‘मार्ग’ में भी इनकी कला यात्रा से संबंधित विवरण दर्ज हैं। पटना स्थित बिहार संग्रहालय में भी कमला नदी की पूजा पर आधारित इनकी कलाकृति मौजूद है। एक अनुमान के मुताबिक विविध विषयों पर लगभग बारह हजार कलाकृतियां वे बना चुकी हैं।
–सुमन कुमार सिंह