मधुबनी पेंटिंग की धरोहर हैं गोदावरी दत्त

मिथिला कला के महत्वपूर्ण कलाकारों पर आलेख के सिलसिले को जारी रखते हुए अशोक कुमार सिन्हा जी इस कड़ी में बयां कर रहे हैं पद्मश्री गोदावरी दत्त की कला यात्रा। मिथिला कला में उनके योगदान से तो हम सभी परिचित हैं ही, लेकिन गोदावरी जी उन चंद लोक कलाकारों में भी शामिल हैं जिन्होंने कला महाविद्यालय में अध्यापन भी किया है। मेरी राय में उनके जीवन और कलाकर्म की चर्चा के क्रम में इस बात का भी ज़िक्र आना चाहिए, जो किसी कारण से अभीतक कहीं दर्ज़ नहीं है। आगे का विवरण कला लेखक के हवाले से….

Ashok Kumar Sinha

बिहार की विश्व प्रसिद्ध मधुबनी पेंटिंग की सुप्रसिद्ध कलाकार गोदावरी दत्त अपनी उम्र के 91 वर्ष पूरे कर चुकी हैं। भारतीय समाज में यह उम्र वैराग्य का माना जाता है। लेकिन वे इस उम्र में भी अपनी सोच और कार्य में कहीं थकी हुई नहीं लगती। प्रतिकूल स्वास्थ्य के बावजूद उनकी कला-यात्रा अनवरत जारी है। वर्ष 2018 में इन्होंने 18 फीट लम्बा और 12 फीट चैड़ा एक कोहबर बनाया था, जिसे पटना के बिहार म्यूजियम में प्रदर्शित किया गया है। हाल ही में इन्होंने पटना में विद्युत बोर्ड की आर्ट गैलरी के लिए 6’×6’ साइज की एक पेंटिंग बनाई है, जो बहुप्रशंसित हुई है। अपने निजी परिवेश में भी वे बहुत दयालु और ममतामयी हैं। मधुबनी पेंटिंग के क्षेत्र में अपार यश और शोहरत के बाद भी उनमें अहं और घमंड का स्पर्श तक नहीं है। यही कारण है कि उनकी प्रशंसा कलाकार, समीक्षक, कला-प्रेमी और आम लोग समान रूप से करते हैं। सभी आयु-वर्गों के लिए वे ’काकी’ हैं। उनके समकालीन उनसे अगाध स्नेह रखते हैं, युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणा स्त्रोत हैं और मधुबनी पेंटिंग की आदर्श हैं। मधुबनी पेंटिंग में विशिष्ट शैली की जन्मदाता, उसके प्रति समर्पण, व्यक्तित्व की उदारता और संवेदना के पर्याय के रूप में अब गोदावरी दत्त का नाम लिया जाने लगा है।

अपनी कलाकृति के साथ पद्मश्री गोदावरी दत्त, फोटो सौजन्य : अशोक कुमार सिन्हा

विनम्र, स्नेही और मातृसदश श्रीमती गोदावरी दत्त से मेरी पहली मुलाकात वर्ष 2011 में पटना में आयोजित एक कला गोष्ठी में हुई थी। बड़ी आम-सी मुलाकात थी। उसके बाद धीरे-धीरे हमारी मुलाकातें बढ़ती गई और जैसे-जैसे मुलाकातें बढ़ी, हम दोनों के संबंध प्रगाढ़ होते गये। उनके आंडवर रहित व्यक्तित्व और व्यक्तिगत सौजन्यता ने मुझे बहुत प्रभावित किया है। इसलिए तीन-चार माह के अंतराल पर मैं उनसे मिलने राँटी (मधुबनी) पहुँच जाता हूँ। उनके ड्राईंग रूम की दीवार पर मधुबनी शैली में उकेरे गये कोहबर को देखकर एक गजब का सुकून मिलता है। उनमें स्नेह की सुगंधित लहरें भी है- जो हर किसी को स्फूर्ति देती है। यही वजह है कि राँटी स्थित उनके आवास पर देश-विदेश के कलाकारों का जमघट लगा रहता है।

गोदावरी दत्त का जन्म बिहार के दरभंगा जिले के बहादुरपुर गाँव में 7 नवम्बर, 1930 को हुआ था। तब मधुबनी पेंटिंग की कोई खास पहचान नहीं थी और न ही उसके प्रति लोगों में चेतना थी। सिर्फ शादी-ब्याह एवं पर्व-त्योहार के अवसर पर घर की दीवारों पर महिलाओं द्वारा मधुबनी पेंटिंग बनाने का प्रचलन था। पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही इस कला को न कोई सप्रयास सिखाता था और न कोई सीखता था। बच्ची होश संभालते ही माँ-मौसी, चाची या दादी के साथ चित्र बनाने लगती थी। गोदावरी दत्त जब पाँच साल की थी तभी उनके पिता रास बिहारी दास का निधन हो गया। माँ सुभद्रा देवी मधुबनी पेंटिंग की दक्ष कलाकार थी। उन्होंने पूरी लगन से अपनी बेटी को इस कला की बारीकियाँ सिखाई। जल्द ही गोदावरी की उंगलियाँ ब्रश पकड़ने में सिद्धहस्त हो गई और वे दीवारों पर चित्र बनाने लगी। गोदावरी की औपचारिक शिक्षा सिर्फ नवीं कक्षा तक हुई। 18 वर्ष की उम्र में गोदावरी दत्त की शादी मधुबनी जिला के राँटी निवासी उपेन्द्र दत्त से हुई। लेकिन, इनका वैवाहिक जीवन सुखद नहीं रहा। उपेन्द्र दत्त ने दूसरी शादी कर ली। गोदावरी दत्त तब तक एक बेटे की माँ बन चुकी थीं। वे इस संकट से घबराई नहीं और अपनी माँ से बचपन में सिखी कला को ही अपनी जीविका बनाने का फैसला कर लिया। इस विपरीत परिस्थिति में भी मधुबनी पेंटिंग गोदावरी दत्त के जीवन यापन का सहारा बनी।

गोदावरी दत्त के कला प्रेम की जानकारी इनके ससुराल वालों को नहीं थी। लेकिन शादी के कुछ महीनों के बाद ही अकस्मात घटी एक घटना से इनके इस गुण का खुलासा हो गया। उस घटना का वर्णन ये बड़े चाव से करती हैं-

’’12 वर्ष की उम्र में ही मेरी शादी हो गई थी। बचपना अभी भी मुझमें था। एक दिन बाइस्कोप दिखाने वाला आया। घर के सारे बच्चे बाइस्कोप देखने लगे। मैंने भी बाइस्कोप देखने की जिद की। सास ने इसे अन्यथा नहीं लिया और वहाँ से पर-पुरूषो को हटाकर मुझे बाइस्कोप दिखाया गया। बाइस्कोप में मैंने देखा कि माता यशोदा गाय दूह रही हैं और बालक कृष्ण ग्लास लिये हुए वहाँ खड़े हैं। रात भर बाइस्कोप का वह चित्र मेरे मन-मस्तिष्क में घूमता रहा। मुझसे रहा नहीं गया और लकड़ी के संदूक में एक कागज लेकर उसपर उन चित्रों को उकेर दिया। फिर उसे छुपाकर रख दिया। कुछ दिन बाद जेठ जी आए। वे जमीन से जुड़े एक दस्तावेज की तलाश कर रहे थे, जो कहीं मिल नहीं रहा था। सब परेशान थे। मुझसे पूछा गया तो अचानक मुझे स्मरण हो आया। मैंने अपने संदूक से निकालकर उन्हें दिखाया तो वही कागज था। सब लोग उस दस्तावेज के उपरी भाग पर बनाई गई मेरी पेंटिंग देख बहुत खुश हुए और उन्होंने मेरी कला कुशलता की दाद दी। दरअसल, भूलवश मैंने दस्तावेज के उपरी भाग को सादा कागज समझकर उसपर पेंटिंग बना दी थी। आज भी जब उस घटना का स्मरण आता है तो मेरे अंदर प्रसन्नता की लहर दौड़ जाती है।’’

गोदावरी दत्त की एक कलाकृति

’’मैं आज जो कुछ भी हूँ, मधुबनी पेंटिंग की वजह से,’’– कहते हुए गोदावरी दत्त अतीत की ओर लौट जाती है। बचपन में माँ से मधुबनी पेंटिंग सीखी थी। गाँव-घर में जनेऊ, शादी-ब्याह एवं गृह प्रवेश इत्यादि के अवसर पर घर-दरवाजों पर मधुबनी पेंटिंग बनाया करती थी। उन दिनों कायस्थ परिवारों में शादी-ब्याह के अवसर पर दो कोहबर, एक कमलदह, एक दशावतार और बाँस का एक चित्र बनाने की परम्परा थी। मैं भी दीवारों पर भित्ति-चित्रण किया करती थी। लेकिन तब मधुबनी पेंटिंग को अपना पेशा बनाने का कोई सपना मेरी आँखों में नहीं था। यह वह दौर था, तब मिथिलांचल में ग्रामीण परिवेश की महिलाओं को घर की दहलीज लांघने की बात तो दूर, पर-पुरूष से बात करने तक की अनुमति नहीं थी।

पद्मश्री गोदावरी दत्त की एक अन्य कलाकृति

सन् 1962-63 में अकाल के दौरान एक व्यक्ति मुझसे मिलने मेरे घर पर आया। नाम बताया गया भास्कर कुलकर्णी। लेकिन, सामाजिक मर्यादा और लोकलाज के भय से मैं उनसे नहीं मिली। वे दो बार मेरे दरवाजे से लौट गये। फिर जेठ के बहुत समझाने पर मैं उनसे मिली। वे मेरी पेंटिंग देखकर बहुत प्रभावित हुए और उसे खरीदना चाहा। लेकिन, मैंने मना कर दिया। फिर जेठ और परिवार वालों ने बहुत समझाया, तब मैंने उन्हें अपनी पेंटिंग बेची। उसी दौरान पुपुल जयकर की पहल पर मधुबनी में वस्त्र-मंत्रालय का कार्यालय खुला। तब ’ए’ ग्रेड की पेंटिंग के 10 रुपये, ’बी’ ग्रेड की पेंटिंग के 7 रुपये और ’सी’ ग्रेड की पेंटिंग के 5 रुपये मिलते थे। मैं पेंटिंग बनाने में जुट गई, मेरे चित्र बिकने लगे। एक अमेरिकन ने मेरी एक पेंटिंग को 25 रुपये में खरीदा। इस तरह पैसा आने लगा और उससे मेरी घर-गृहस्थी की गाड़ी खिसकने लगी। जगह-जगह मेरे चित्रों की प्रदर्शनी लगने लगी। पटना, मुंबई, कोलकाता, लखनऊ, चितौड़गढ़, राँची, त्रिवेंद्रम, सूरजकुंड, दिल्ली हाट आदि में आयोजित प्रदर्शनियों में मेरे चित्रों को भरपूर सराहना मिली और उनकी खूब बिक्री हुई।

गोदावरी दत्त को पारम्परिक एवं मिथकीय विषयों के साथ-साथ प्रकृति को सहजता से मधुबनी पेंटिंग में उकेरने में दक्षता हासिल है। वे शुद्ध रूप से भारतीय लोकाचार, संस्कृृति तथा रीति-रिवाजों की कलाकार हैं और अपने विषय पौराणिक आख्यानों एवं प्रकृति से प्राप्त करती है। मधुबनी पेंटिंग की कचनी शैली के अनुरूप उनमें धैर्य भी है, जिससे वे अपने चित्रों में उत्कृृष्ट पूर्णता और इच्छित प्रभाव उत्पन्न करती हैं। गोदावरी दत्त की कला की विशेषता रेखाओं की स्पष्टता में है। रेखाएँ एकदम से सही और एक दूसरे से आबद्ध होकर चित्रों में एक तिलस्म-सा पैदा करती है। इनके किसी भी चित्र में तूलिका की रती भर भी चूक देखने को नहीं मिलती। देखने वाले को सहसा विश्वास नहीं होता कि बिना यांत्रिक सहायता लिये कोई कलाकार रेखाओं का इतना अदभुत संयोजन कर सकता है। अपने पारंपरिक चित्रों में ये गूढ़ प्रकृति तत्वों का आधार लेकर अभिनव प्रयोग करती दिखती हैं, पर विषयगत मौलिकता से भटकती नहीं। सुस्पष्ट सोच और तल्लीनता से रेखाओं में मानों प्राण फूंक देती हैं। इनकी एक और विशेषता है कि अपने चित्रों में ब्रीदिंग स्पेस देकर प्रत्येक आकृति को उभरने का मौका देती हैं। ये रंगों का प्रयोग कम से कम करती हैं लेकिन जरूरत पड़ने पर कागज या कपड़े पर खाका बनाकर उसके मध्य में बाँस की सींक में बँधे कपड़े/धागे से अपेक्षित रंगों को भरने में भी इन्हें महारथ हासिल है।

देश-विदेश में गोदावरी दत्त के चित्रों की अब तक अनगिनत प्रदर्शनियाँ लग चुकी है। विदेश में इनके चित्रों की सबसे पहली प्रदर्शनी 1985 में जर्मनी में लगी थी। यह अवधि 17 दिन की थी। उसके बाद पेरिस के डेकोरेटिव आर्ट म्यूजियम में भी इनकी पेंटिंग्स की प्रदर्शनी लगी। सन् 1989 से 1995 के बीच गोदावरी दत्त ने 7 बार जापान की यात्रा की। प्रत्येक यात्रा की अवधि होती थी दो माह। एक बार वहाँ 7 माह तक रही। जापान में प्रवास के दौरान इन्होंने वहाँ के गाँवों की यात्रा की, कलाकारों से मिली और संग्रहालयों में भी गयीं। गोदावरी दत्त कहती है कि जापान में जब उन्होंने पहली बार मधुबनी पेंटिंग की प्रदर्शनी लगायी थी, तब वहाँ के लोगों ने इसे छापा कला कहा था। उन्हें यह विश्वास नहीं हो रहा था कि यह हाथ से बनाई हुई पेंटिंग है। तब मैंने जापान के विभिन्न शहरों में घूम-घूम कर मधुबनी पेंटिंग बनाने की कला का जीवंत प्रदर्शन किया। वहाँ मिलने वाले फल-फूल, सब्जी और पतियों से प्राकृतिक रंग तैयार किया। फिर बांस की तिल्ली और सींक में बंधे कपड़े के फाहे से चित्रों को बनाकर दिखाया, तब जाकर उन्हें भरोसा हुआ। फिर तो जापान में मधुबनी पेंटिंग की धूम मच गयी।

श्रीमती दत्त अब तक हजारों चित्रों की रचना कर चुकी हैं। लेकिन उन्हें सबसे अधिक प्रसिद्धि समुद्र मंथन, त्रिशूल, कोहबर, कृृष्ण, डमरू, चक्र, बासुकीनाग, अर्द्धनारीश्वर और बोधिवृक्ष ने दिलायी है। श्रीमती दत्त को शिव का त्रिशूल बेहद पसंद है, जो समूचे विश्व को सुरक्षित रखने या उसे नष्ट करने की अपरिमित क्षमता रखता है। इनके द्वारा बनाया गया 18 फीट लम्बा और 5 फीट चैड़ा त्रिशूल जापान के मिथिला म्यूजियम में प्रदर्शित है। श्रीमती दत्त के शब्दों में,

‘‘जापान में जब मुझे शिव जी का 18 फीट लम्बा और 5 फीट चैड़ा त्रिशूल बनाने को कहा गया, तो पहले-पहल मैं घबड़ा गई। फिर महसूस हुआ कि कोई अद्रश्य शक्ति मुझे प्रेरित कर रही है। मैं त्रिशूल बनाने में जुट गयी। त्रिशूल पर सूर्य, चन्द्रमा, नाग, ऊँ, धरती, आकाश और पाताल को बनाया । करीब 6 माह तक लगातार काम करने के बावजूद वह आधा ही बन पाया। फिर भारत लौट गयी। उसके कुछ महीने बाद जब दुबारा जापान गयी, तब त्रिशूल पूरी तरह बन पाया।’’

श्रीमती दत्त द्वारा बनायी गयी अर्द्धनारीश्वर की पेंटिंग भी बहुत लोकप्रिय है। श्रीमती दत्त कहती है,

’’कला पहले व्यक्ति को व्यक्ति से जोड़ती है, फिर व्यक्ति से समाज को। व्यक्ति और समाज मेरी द्रिष्टि में अर्द्धनारीश्वर की तरह अन्योन्याश्रित है।’’

श्रीमती गोदावरी दत्त ने मधुबनी पेंटिंग से केवल आजीविका ही नहीं कमाई वरन् वे उसकी पथ-प्रदर्शक भी बनीं। ये रांटी और आसपास के गाँवों की घरों में रहने वाली बच्चियों और महिलाओं को इस कला में प्रशिक्षण दिया ताकि वे इसके जरिये धनोपार्जन कर सकें और स्वावलंबी बन सकें। इन्होंने अब तक हजारों महिलाओं को प्रशिक्षित किया है तथा उनकी सहायता भी की है। वे उन सभी लोगों को मार्ग दर्शन और मदद देने में तत्परता दिखाती है, जिनकी मधुबनी पेंटिंग में मौलिक रूचि होती है। उनके कई शिष्यों को राष्ट्रीय सम्मान और पहचान मिल चुका है। उन्होंने इस कला को महज एक सजावटी वस्तु तक ही सीमित नहीं रखा, वरन् उपयोगितावाद से उसे जोड़कर एक नया आयाम दिया। उन्होंने कागज के अलावा रेडिमेड वस्त्र, शाल, कुशन, कवर, साड़ी और जैकेट इत्यादि पर मधुबनी पेंटिंग के चित्रण को बढ़ावा दिया। फलस्वरूप्, मधुबनी पेंटिंग को विश्वव्यापी बाजार मिला है।

भूमंडलीकरण और बाजारवाद के वर्तमान दौर में जब मधुबनी पेंटिंग के कलाकारों में कुछ अजूबा करके पैसा कमाने और चर्चित होने की प्रवृत्ति ज्यादा पनप रही है, वैसे समय में भी गोदावरी दत्त मिथकीय, पौराणिक और विषय प्रधान चित्रों को ही जीवंतता प्रदान कर रही है। श्रीमती दत्त व्यवसायिकता की लहर से नितांत अप्रभावित हैं। वह दढ़ किन्तु सहज, समर्पित कलाकार हैं, जिन्हें उनकी इच्छा के विपरीत कार्य करने के लिए न तो लुभाया जा सकता है और न ही विवश। इस कारण इन्हें काफी संघर्ष करना पड़ा। उन्होंने जीवन में कई उतार- चढ़ाव देखे, मगर कला के मामले में कभी समझौता नहीं किया।

श्रीमती दत्त अब तक देश-विदेश के अनगिनत कला-सस्थानों द्वारा सम्मानित हो चुकी है। उन्हें बिहार सरकार का लाईफ टाईम एचीवमेंट पुरस्कार (2014), शिल्प गुरु (2006), राष्ट्रीय पुरस्कार (1980), राज्य पुरस्कार (1973) सहित लगभग चार दर्जन पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं। 16 मार्च, 2019 को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने इन्हें पदमश्री सम्मान से सम्मानित किया। गोदावरी दत्त को पदमश्री सम्मान दिया जाना उस कलाकार का सम्मान है, जिसने पारंपरिक मधुबनी पेंटिंग को बढ़ावा देने, उभरते कलाकारों को प्रशिक्षित करने और मार्गदर्शन देने में अपने सात रचनात्मक दशक लगा दिए। गोदावरी दत्त को देख ऐसा महसूस होता है कि वे जगदम्बा देवी एवं सीता देवी के युग की आखिरी कड़ी है, जिसनें इक्कीसवीं सदी की दुनिया को मधुबनी पेंटिंग से परिचित कराया था।

श्रीमती गोदावरी दत्त मधुबनी पेंटिंग की उन शीर्ष पारंपरिक कलाकारों में से एक हैं, जिन्होंने इस कला को फर्श और दीवार से उठाकर विश्व के मानचित्र पर प्रतिष्ठापित किया है। 91 वर्ष की उम्र में भी उनमें एक अंतर्निहित शक्ति और सामर्थ्य है, जिसने इस कलाकार में कभी शिथिलता नहीं आने दी। आज की तिथि में अगर कोई आपसे पूछे कि मधुबनी पेंटिंग के वैसे किसी कलाकार का नाम लिजिए, जो जीवित है, स्थापित है और जिसके पास साठ वर्षों के रचना-संसार का इतिहास हो, तो गोदावरी दत के अलावा दूसरा कोई नाम नहीं सूझेगा। सचमुच गोदावरी दत्त मधुबनी पेंटिंग की धरोहर हैं।

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