मिथिला चित्रकला आज दुनिया भर में अपनी विशिष्ट पहचान बना चुकी है। लेकिन इन सबके बावजूद एक तथ्य यह भी है कि इसे इस ऊंचाई तक पहुँचाने वाली कला मनीषियों की जीवनी से हम लगभग अनजान ही हैं । बहरहाल कला लेखक अशोक कुमार सिन्हा की सार्थक पहल अब हमारे सामने है । जिसके तहत इस चित्रकला के लिए पद्मश्री से सम्मानित होने वाली कला मनीषियों की जीवन गाथा एक-एक कर हमारे सामने आ रही है। आज की इस कड़ी में अशोक जी चर्चा कर रहे हैं पद्मश्री महासुन्दरी देवी जी की कला यात्रा एवं उनके जीवन से जुड़े उल्लेखनीय पक्षों की।
Ashok Kumar Sinha
बीसवीं सदी के महान कलाकार पाब्लो पिकासो ने महासुन्दरी देवी की कला की अभ्यर्थना में कहा था-“लोग मुझे बड़ा कलाकार बताते हैं। लेकिन जब मैं आपकी कला को देखता हूँ तो पाता हूँ कि आप मुझसे भी बड़ी कलाकार हैं।”
पद्मश्री महासुन्दरी देवी
मिथिलांचल की महिलाएँ सदियों से पर्व-त्योहारों तथा सामाजिक उत्सवों के अवसर पर मिट्टी तथा प्रकृति प्रदत्त रंगों के माध्यम से घर-आंगन और दरवाजे पर चित्रांकन करती आ रही हैं। इन चित्रों के मुख्य विषय देवी-देवता, ग्रह-नक्षत्र, सूर्य-चन्द्रमा और नाग-नागिन इत्यादि होते थे। अष्टदल, स्वास्तिक, तुसारी, त्रिशुल, कोजागरा, पृथ्वी, शंख इसके बिम्ब थे। ये विम्ब या आकृतियाँ प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कोहबर तथा अरिपन में भी रहती थी । देखा जाये तो इन सभी चित्रों की पृष्टभूमि में कुछ न कुछ धार्मिक भावना अन्तर्निहित रहती थी। लेकिन तब उन महिला कलाकारों में वैज्ञानिक एवं क्रमबद्ध रूप से चित्रांकन को मर्यादित करने का कौशल नहीं था। डिजाइनर भास्कर कुलकर्णी की पहल पर वर्ष 1964-65 में हैण्डमेड कागज पर चित्रांकन प्रारम्भ हुआ। इसका पहला उद्रेक रेखा-चित्रों के रूप में हुआ। फिर उसमें पारम्परिक रंग भरे गये। लेकिन चित्राकन में धार्मिक विषयों की ही प्रधानता थी। परिणाम स्वरूप इस कला में ठहराव की स्थिति उत्पन्न हो रही थी। उसकी निरन्तरता हेतु उसमें नये विषयों का समावेश आवश्यक था। उस दौरान जिन महिलाओं ने परम्परा और मौलिकता को अक्षुण्ण रखते हुए उसमें नवीनता का समन्वय कर मधुबनी पेंटिंग को नयी ऊँचाई दी- उसमें महासुन्दरी देवी प्रमुख हैं। महासुन्दरी देवी ने कागज के साथ-साथ बोर्ड, कपड़ा, प्लाइबोर्ड आदि पर भी मधुबनी पेंटिंग की शुरूआत की, जिसे बाजार ने हाथों हाथ लिया।
इसलिए आज अगर मधुबनी पेंटिंग विश्व बाजार में रोजगार का सबसे बड़ा कला-माध्यम है तो उसका श्रेय महासुन्दरी देवी को भी है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि मिथिला चित्रकला की अधिष्ठात्री देवियों में एक हैं- महासुन्दरी देवी। इसी भूमिका में इनकी गौरव-गाथा यहाँ अर्पित और निहित है। एक निधि के रूप में इन्होंने अपनी कृति-रचनाओं (चित्रों) के माध्यम से मधुबनी पेंटिंग को दुनिया से अवगत कराया। ये कभी स्वयं से अस्वयं नहीं हुई। महासुन्दरी जी का जन्म मधुबनी जिले के बेनीपट्टी प्रखंड के चतरा गाँव में 16 अप्रैल, 1922 को हुआ था। जब ये 5 वर्ष की थी, तभी इनके माता-पिता चल बसे। चाचा-चाची की देख-रेख में ही इनकी औपचारिक प्राथमिक शिक्षा के साथ-साथ सामाजिक, सांस्कृतिक तथा पारम्परिक कला की व्यावहारिक शिक्षा पूरी हुई। तब मिथिलाचंल की शिल्प संस्कृति और लोकचित्र परम्परा कुछ ज्यादा ही समृद्ध थी। लड़कियों के बीच पढाई-लिखाई से ज्यादा शिल्प शिक्षा का प्रचलन था। मिथिलांचल के प्रत्येक घर में मिट्टी, पेपरमेशी, कपड़ा और सिक्की से गुड़िया एवं खिलौने तथा दैनिक उपयोग की चीजें तैयार होती थी। शादी-व्याह, पर्व-त्योहारों के अवसर पर जमीन एवं दीवारों पर पेंटिंग होती थी। लड़कियों के लिए इन चीजों को सीखना लगभग अनिवार्य होता था। वह लड़की ज्यादा सुसंस्कृत एवं सम्पन्न समझी जाती थी, जो इन चीजों के निर्माण में निपुण होती थी। माँ इसे अपनी बेटी को सिखाती थी और वह बेटी अपनी बेटी को। इस तरह मिथिलांचल की प्रत्येक लड़की पारम्परिक रूप से इन कलाओं में निपुण हो जाती थी। महासुन्दरी के परिवार में भी शिल्प की यही समृद्ध परम्परा थी। उनकी चाची देवसुन्दरी देवी परम्परागत कलाओं में माहिर थी। उन्होंने महासुन्दरी को इन कलाओं की शिक्षा दी। 15 वर्ष की उम्र में ही महासुन्दरी देवी मधुबनी पेंटिंग के साथ-साथ सिक्की, सुजनी, गुड़िया तथा पेपरमेशी शिल्प में माहिर हो गयी थीं। पेपरमेसी इनका पसंदीदा शिल्प था। मुलतानी मिट्टी, तिसी तथा मोटा कागज का डस्ट बनाती थीं और फिर उसमें प्राकृतिक रंग मिलाकर मूर्तियाँ एवं खिलौने तैयार करती थीं।
महासुन्दरी जब 17 वर्ष की थी, तभी इनकी शादी राँटी (मधुबनी) के कृष्ण कुमार दास के साथ हो गई। महासुन्दरी अपने गाँव चतरा से अपनी परम्परा तथा संस्कृति को सहेजकर राँटी चली आयी। पति कृष्ण कुमार दास स्नातक की पढ़ाई पूरी कर चुके थे। वे चाहते तो उस समय आसानी से सरकारी नौकरी मिल सकती थी। लेकिन तब देश गुलाम था और कृष्ण कुमार दास को अंग्रेजों की गुलामी पसंद नहीं थी। इसलिए वे सरकारी नौकरी का विचार त्याग कर नेपाल में शिक्षक की नौकरी करने लगे। वेतन कम था। इसलिए संयुक्त परिवार के पालन-पोषण में आर्थिक कठिनाई आ रही थी। वह आजादी के आन्दोलन का दौर था। राष्ट्रपिता गाँधी के आह्वान पर चरखा ने आजादी के प्रतीक के रूप में देश के करोड़ों लोगों को प्रेरित किया था। महासुन्दरी के मन में भी विचार आया कि क्यों न चरखा पर सूत काटकर घर की आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ किया जाए ? घर में सबों को यह प्रस्ताव पसन्द आया। अम्बर चरखा की खरीद की गई और महासुन्दरी उस पर सूत काटने लगी। साथ ही साथ पर्व-त्योहार तथा शादी-ब्याह के असवर पर आस-पड़ोस के घरों में चित्रकारी भी करती थी, जिनका सिर्फ लौकिक महत्व था। क्योंकि चित्रांकन से अर्थोपार्जन की बात तो उस समय तक किसी के कल्पना में भी नहीं थी।
जब मैंने उनकी कला रचना के विषय में प्रश्न किया, तब उन्होंने कहा था, ’’आप मिथिला में हैं। यहाँ का संस्कार पहले स्वागत-सत्कार का है। पहले चाय नाश्ता कीजिए, तब काम-धाम की बातें होंगी।’’
इस बीच 1964-65 में मिथिलांचल में भीषण अकाल पड़ा था। चारो ओर भुखमरी की स्थिति थी, तब तक यह चित्रकला मिथिलांचल तक ही सीमित थी। लेकिन उस अकाल की वजह से यह एकबारगी दुनिया की नजरों में आ गई। स्थानीय होने के कारण तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री ललित नारायण मिश्र को इस कला की जानकारी थी। उनकी पहल पर डिजाइनर भास्कर कुलकर्णी ने स्थानीय महिलाओं को इस चित्रकला के व्यावसायिक उपयोग के लिए प्रेरित किया। चित्रकला को व्यवसायिक रूप देने के लिए यह आवश्यक था कि उसे मिट्टी की दीवारों से कागज पर उतारा जाए ताकि राष्ट्रीय-अन्तराष्ट्रीय स्तर पर होने वाली प्रदर्शनियों में उसे प्रदर्शित किया जा सके। हालांकि यह काफी कठिन कार्य था। क्योंकि दीवार पर रेखाएँ उपर से नीचे की ओर आती है, इसलिए उनमें एकात्मकता व कलात्मकता बनी रहती है। यह गति कागज पर आकृति बनाते समय नहीं रह पाती। लेकिन महासुन्दरी देवी समेत पाँच अन्य महिला कलाकारों ने धैर्य और परिश्रम से इस कठिन कार्य में भी निपुणता हासिल कर ली। तत्पश्चात महासुन्दरी सतत साधना के मंत्र के साथ चित्र रचना में लीन हो गयी। भास्कर कुलकर्णी ने हैण्डमेड पेपर पर महासुन्दरी देवी द्वारा चित्रित चार विलक्षण कृतियों को दिल्ली में प्रदर्शित किया, जो बहुप्रशंसित हुई। यहीं से महासुन्दरी देवी की कला-क्षमता का प्रवेश और उन्मेष सार्वजनिक रूप से हुआ। कमला चट्टोपाध्याय और पद्मश्री उपेन्द्र महारथी ने भी महासुन्दरी देवी को प्रोत्साहित किया। इसके बाद जो सिलसिला कायम हुआ, वह मधुबनी पेंटिंग के इतिहास का अध्याय बनता चला गया।
महासुन्दरी देवी से मेरी पहली और आखिरी मुलाकात वर्ष 2011 के दिसम्बर माह में हुई थी। वे 91 वर्ष की हो चुकी थीं और उनमें वृद्धावस्था की कई बीमारियाँ घर कर गई थी। फिर भी उनकी आँखों से स्नेह बरस रहा था। भीतर की स्वच्छता और सदाशयता मुस्कुराहट के रूप में चेहरे पर झलक रही थी। जब मैंने उनकी कला रचना के विषय में प्रश्न किया, तब उन्होंने कहा था, ’’आप मिथिला में हैं। यहाँ का संस्कार पहले स्वागत-सत्कार का है। पहले चाय नाश्ता कीजिए, तब काम-धाम की बातें होंगी।’’ चाय-नाश्ते के क्रम में उन्होंने बताया था कि सन 1965-66 में डिजाइनर भास्कर कुलकर्णी ने मुझसे पहली बार हैण्डमेड पेपर पर कोहबर, दशावतार एवं अरिपन के चार चित्र बनवाया था। कई महीनों के बाद वे उसे ले गये थे और प्रोत्साहन स्वरूप मुझे 40 रूपया दिया था। बाद में उनके अनुरोध पर मैंने आठ चित्र और बनाये थे।
वर्ष 1966 की बात है। मधुबनी पेंटिंग की मौलिकता और अनोखेपन की चर्चा सुनकर अखिल भारतीय हस्तकला बोर्ड की अध्यक्ष श्रीमती कमला देवी चट्टोपाध्याय मधुबनी आयीं। उसी क्रम में चट्टोपाध्याय की मुलाकात महासुन्दरी देवी से हुई। महासुन्दरी देवी द्वारा बनाई गई पेंटिंग को देखकर वह बहुत प्रभावित हुई। चट्टोपाध्याय ने महासुन्दरी देवी का इस कला से आसपास की महिलाओं को भी प्रशिक्षित करने की सलाह दी। महासुन्दरी को उनकी सलाह जँच गयी और वे आस-पास की महिलाओं को मधुबनी पेंटिंग सिखाने के लिए प्रेरित करने लगी। लेकिन यह बड़ा ही कठिन कार्य था। उन दिनों पर्दा प्रथा का प्रचलन था। महिलाएँ संरक्षक के बिना घर से बाहर अकेले नहीं निकलती थी। महासुन्दरी घर-घर भटकती रही। महिलाओं को समझाती रही। इस क्रम में उन्हें आलोचनाओं का भी सामना करना पड़ा। लेकिन वह हिम्मत नहीं हारी। अन्ततः उनका प्रयास रंग लाया और आसपास की महिलाएँ इनकी संस्था ’’मिथिला हस्तशिल्प कलाकार औद्योगिक सहयोग समिति लिमिटेड’’ से जुड़ने लगीं। उनके बाहर नहीं निकलने, मिलने की जड़ता खत्म हुई।
यह काल-खंड मधुबनी लोकचित्र के डिजाइन के क्षेत्र में एक नया मोड़ साबित हुआ। महासुन्दरी देवी का कहना था कि मधुबनी पेंटिंग का अतीत निःसंदेह गौरवशाली है। लेकिन अतीत को देखते रहना व्यर्थ है, जब तक उस अतीत पर गर्व करने योग्य भविष्य के निर्माण के लिए कार्य न किया जाए। वे भविष्य के निर्माण में जुट गईं। उन्होंने हैण्डमेड कागज से आगे बढ़कर 1970 में साड़ी पर, 1973 में लकड़ी पर और 1980 में सनमाइका और प्लाइबोर्ड पर चित्रकारी शुरू कर दी। उन्होंने समकालीन चित्रकला की तरह प्लाइबोर्ड एवं लकड़ी पर लम्बे-लम्बे पैनल बनाये, जिनमें दशावतार, सीता जन्म कथा, राम-सीता विवाह, कृष्ण जन्मकथा, रासलीला और शिव-पार्वती जैसे धार्मिक विषयों को शामिल किया। सिल्क व सूती कपड़े और सनमाइका एवं प्लाइबोर्ड पर मधुबनी पेंटिंग की शुरूआत करने वाली वह पहली कलाकार थीं। मधुबनी चित्र परम्परा में यह बिल्कुल ही नई चीज थी। उन्होंने समय के प्रवाह को पहचान कर इस तरह के और भी कई नये एवं मौलिक प्रयोग किए, जिससे मधुबनी पेंटिंग का दायरा बढ़ा। महासुन्दरी देवी ज्यादातर कचनी शैली (रेखा प्रधान) में चित्रण करती थी। यह शैली उन्हें विरासत में मिली थी। कचनी शैली की पेंटिंग में वे ज्यादातर काले एवं लाल रंग का प्रयोग करती थीं। लेकिन बाजार एवं समय की मांग पर उन्होंने भरनी शैली (रंग प्रधान चित्र) में भी चित्र बनाये। जब उन्हें रेखा-रंगीन पेंटिंग बनानी होती तो प्रकृति-प्रदत्त वस्तुएँ यथा फूल-पतियाँ, गेरू, मिट्टी, हल्दी, नींबू, वृक्ष के छाल और गाय के गोबर इत्यादि की सहायता से तरह-तरह के रंग तैयार करती थीं।
जब प्राकृतिक रंगों के शीघ्र उड़ने की शिकायत मिलने लगी तो उन्होंने बाजार में उपलब्ध रसायनिक रंगों का इस्तेमाल शुरू किया। कपड़े पर फेवरिक रंग और लकड़ी पर जरूरत के हिसाब से एनामेल रंग का प्रयोग करती थीं। इनके चित्रों में रेखा और रंगों का अद्भुत समन्वय दिखता था। फिर क्या था, मधुबनी पेंटिंग की ख्याति देश-दुनिया में फैलने लगी। महासुन्दरी देवी पूरे लगन और मनोयोग से चित्रों का निर्माण करने लगी और प्रसिद्धि के नित्य नये आयाम रचती गयी। ये देश के विभिन्न शहरों में आयोजित कला प्रदर्शनियों में शामिल हुई, जिनमें पटना का हिन्दी साहित्य सम्मेलन भवन और नई दिल्ली का प्रगति मैदान प्रमुख हैं। इस क्रम में इनकी मुलाकात अनेक दिग्गज कलाकारों, कला समीक्षकों और कला के कद्रदानों से होने लगी। महासुन्दरी देवी का कारोबार चल निकला और देखते ही देखते इनकी माली हालत सुधर गई। जो पुरूष वर्ग पहले इन पर कटाक्ष करता था, इनकी प्रगति और खुशहाली देखकर अपने घर की महिलाओं को इनके यहाँ मधुबनी पेंटिंग सीखने के लिए भेजना शुरू कर दिया।
महासुन्दरी जी ने अपने जीवन-काल में हजारों चित्रों का निर्माण किया। लेकिन रामायण-प्रसंग, जयमाल, राधा-कृष्ण की लीला, अरिपन और डोली की उनकी चित्रकारी ने ज्यादा सुर्खियाँ बटोरी। राधा-कृष्ण की लीलाएँ में उन्होंने कदम्ब के पेड़ के नीचे कृष्ण की बाँसुरी की धुन पर मुग्ध राधा की मनमोहिनी छवि की रचना की थी। यह चित्र मधुबनी पेंटिंग के उत्कृष्ट चित्रों में गिना जाता है। इस चित्र में उन्होंने दर्शाया था कि राधा-कृष्ण की लीला काम-क्रीड़ा नहीं था अपितु काम विजय लीला थी। इस प्रेम मिलन में कहीं भी पाप निहित नहीं था। सन् 1976 में उन्होंने 66 फीट लम्बा एवं 8.1/2 फीट चौड़ा चित्र बनाया था, जिसमें मिथिला में जन्म लेने वाली लड़की के जन्म से लेकर द्विरागमन (गौना) तक के पारम्परिक जीवन का श्रृंखलाबद्ध चित्रण था। यह चित्र बिहार सरकार द्वारा उपहार स्वरूप राज्यसभा भवन, नई दिल्ली में लगा दिया गया। कहते हैं कि इस पेंटिंग को देखकर श्रीमती इंदिरा गाँधी बहुत प्रभावित हुई थीं और इन्हें दिल्ली बुलाकर सम्मानित भी किया था।
मिथिलांचल में शादी-व्याह तथा पर्व-त्योहार के समय घर-आंगन और दरवाजे पर अरिपन बनाने का रिवाज भी बहुत पुराना है। वर्ष के प्रत्येक माह और हर पर्व-त्योहार के लिए अलग-अलग अरिपन बनाया जाता है। यह भींगे चावल के चूर्ण से तैयार पिठार और सिन्दुर से चित्रित किया जाता है। हर अरिपन की पृष्टभूमि में कुछ न कुछ धार्मिक भावना अन्तनिर्हित होती है। हिन्दू कर्मकाण्डों में प्रयुक्त होने वाले स्वास्तिक, अष्टदल आदि आकृतियाँ प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अरिपन में रहती है। लेकिन फिर भी अरिपन का कोई माॅडल या प्रकार नहीं होता। कलाकार की जैसी सोच होती है, उनके द्वारा वैसा ही अरिपन का निर्माण किया जाता है। सामान्य तौर पर एक कलाकार 18-20 तरीकों से अरिपन का निर्माण करता है। लेकिन पश्चिमी जर्मनी की एरिका मोआइजर के अनुरोध पर महासुन्दरी देवी ने एक बार 85 तरह के अरिपन का निर्माण किया था, जो बहुप्रशंसित हुआ था। वे सभी अरिपन एक से बढ़कर एक थे और आज जर्मनी के राष्ट्रीय संग्रहालय में सुशोभित हैं।
1970-80 के दशक में तत्कालीन रेलमंत्री ललित नारायण मिश्र के पहल पर हावड़ा से नई दिल्ली जाने वाली ट्रेन ’जयंती जनता एक्सप्रेस’ के बाहरी भाग को मधुबनी पेंटिंग से सजाया गया था। यह एक नूतन प्रयोग था और पूरी दुनिया में इसकी चर्चा हुई थी। विशेष रूप से ट्रेन पर उत्कीर्ण ’’राम-जानकी विवाह’’के मोहक दृश्य ने कला प्रेमियों को अभिभूत कर दिया था। उस ट्रेन को संवारने में मधुबनी पेंटिंग के दर्जनों कलाकारों ने काम किया था। लेकिन जो चित्र बनाये गये थे, वे मूल रूप से महासुन्दरी देवी द्वारा हैण्डमेड पेपर पर पहले बनाये गये थे। उन चित्रों की अनुकृति को ही ट्रेन पर उतारा गया था। उन्हीं दिनों फ्रांस के लेखक-प्रोफेसर इब्स मिको के अनुरोध पर महासुन्दरी देवी ने मिथिलांचल के जीवन पर आधारित 50 सुन्दर चित्रावलियों का सृजन किया था, जो यूरोप के कई देशों में प्रदर्शित हुईं । इब्स मिको ने इन चित्रों को ’’दी आर्ट आफ मिथिला’’ नामक पुस्तक में स्थान दिया और साथ ही ’’दी मिथिला’’ नामक डाक्यूमेन्ट्री फिल्म भी बनायी। कनाडा के फिल्म प्रोडयूसर एलान वैस ने भी इनके चित्रों को अपने वृतचित्र में शामिल किया, जिसे ’एन औसपिसीयस डायग्राम’ का नाम दिया गया। इन चित्रों की विशेषता यह थी कि करची की कलम, फुस की काठी, धागों और प्राकृतिक रंगों की सहायता से सीधी रेखा, वृत्त, चौकोर और त्रिकोण में वे चित्र बने थे, जो किसी को भी हतप्रभ करने के लिए पर्याप्त थे। इब्स मिको ने इन चित्रों को फ्रांस के पेरिस शहर के पास अपने देश स्पेन से निर्वासित जीवन व्यतीत कर रहे पाब्लो पिकासो को भी दिखाया था। पिकासो उन चित्रों को देखकर इतना मुग्ध हो गये कि महासुन्दरी देवी से मिलकर उन्हें दाद देने को आतुर हो उठे। हालांकि परिस्थितिजन्य कारणों से दोनों की यह मुलाकात संभव न हो सकी। लेकिन पिकासो ने उस दौरान जो कहा था, वह ज्यादा महत्वपूर्ण है। पिकासो ने महासुन्दरी देवी की कला की अभ्यर्थना में कहा था-’’लोग मुझे बड़ा कलाकार बताते हैं। लेकिन जब मैं आपकी कला को देखता हूँ तो पाता हूँ कि आप मुझसे भी बड़ी कलाकार हैं।’’
मधुबनी पेंटिंग के कलाकार आम तौर पर लाइन खींचने के लिए नीब/होल्डर का इस्तेमाल करते है। लेकिन महासुन्दरी देवी नीब की जगह धागे का ही प्रयोग करती थी। वे धागे को रंग में डूबोकर पलक झपकते ही त्रिभुजाकार, षटकोण, चतुर्भुजाकार, वर्गाकार में तरह-तरह के चित्र का खाका तैयार कर लेती थीं। फिर करची के कलम एवं पिहुआ (झाड़ू की काठी अथवा फुस काठी पर रूई लपेटकर) से कचनी-भरनी करती थीं। किसी को सहसा विश्वास नहीं होता था कि बिना पटरी(स्केल) , प्रकाल या अन्य औजारों की सहायता से इस तरह की रेखायें खींची जा सकती है। लेकिन धागे को रंग में डूबोकर चित्र का खाका तैयार करना उनके बाएँ हाथ का काम था। मापी के लिए वे अपनी अंगुली का इस्तेमाल करती थीं। महासुन्दरी देवी के जयेष्ठ पुत्र विपिन कुमार दास ने उनके इस गुण से जुड़े एक घटना का ब्यौरा देते हुए मुझे बताया था कि वर्ष 2012 में बिहार के महामहिम राज्यपाल श्री देवानन्द कुँवर की पत्नी श्रीमती निभा कुँवर मेरे घर आयी थीं। उन्हें धागे से चित्र बनाने की माताजी के हुनर की जानकारी थी। उस समय माँ 91 वर्ष की हो चुकी थी और उनमें वृद्धावस्था की बीमारी स्मृति का लोप प्रारम्भ हो गया था। उन्होंने माँ से धागे से चित्र का खाका तैयार करने का अनुरोध किया। माँ का जवाब था- ’’आप लोग क्यों मजाक कर रहे हैं ? मैंने धागे से कभी पेंटिंग नहीं बनायी है।”फिर मैं और मेरी पत्नी विभा दास ने बहुत अनुनय-विनय किया, तब जाकर वे राजी हुई। उन्होंने अपनी साड़ी से एक छोटा-सा धागा तोड़कर उसे रंग में डूबोया और पलक झपकते ही कागज के चारो तरफ दो लाइन खीचकर, फिर बीच में ऊँगली से मापी कर धागे को धुमाकर वृताकार एवं उसमें त्रिभुजाकार षटकोण वृत्त खींच दिया। उसे देखकर श्रीमती निभा कुँवर समेत वहाँ उपस्थित तमाम लोग विस्मित एवं हतप्रभ रह गये।
उसके बाद तो महासुन्दरी के लिए सम्मानों की झड़ी लग गई। वर्ष 1978 में बिहार सरकार ने इन्हें राज्य पुरस्कार से सम्मानित किया। 1982 में भारत सरकार से राष्ट्रीय पुरस्कार और 1996-97 में मध्य प्रदेश का सर्वश्रेष्ठ सम्मान ’’राष्ट्रीय तुलसी सम्मान’’प्राप्त हुआ। वर्ष 2008 में ये शिल्पगुरू सम्मान से सम्मानित हुई। वर्ष 2010 में इन्हें भारत में कला के क्षेत्र का सबसे बड़ा सम्मान ’’पद्मश्री’’मिला। विदित हो कि मधुबनी पेंटिंग में पद्मश्री पाने वाली ये चौथी कलाकार थीं। इनसे पहले श्रीमती जगदम्बा देवी, श्रीमती गंगा देवी और सीता देवी को यह सम्मान मिल चुका था। जापान में अवस्थित ’’मिथिला म्यूजियम’’के उदघाटन समारोह में भी इन्हें मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया। फ्रांस एवं माॅरीशस में भी इनके चित्रों की प्रदर्शनी हुई। लेखक-पत्रकार दीपक कुमार सिन्हा से इंटरव्यू के दौरान एक प्रश्न के जवाब में महासुन्दरी देवी ने कहा था कि विदेशों में अक्सर मुझसे यह प्रश्न पूछा जाता है कि इंडिया के किस आर्ट कॉलेज से आपने पढ़ाई की है, मैं जब उन्हें बताती हूँ कि अपने घर की माँ, चाची और दादी से। तो वहाँ के लोग हैरान रह जाते हैं।
पद्मश्री गंगा देवी के सदगुणों से संसार को परिचित कराने का श्रेय भी महासुन्दरी देवी को है। महासुन्दरी देवी और गंगा देवी दोनों एक ही गाँव की थी और एक-दूसरे की ’प्रीतम’ यानी सहेली भी थीं । सरलता और विनय की प्रतिमा गंगा देवी निःसंदेह मधुबनी पेंटिंग की बहुत बड़ी कलाकार थीं। लेकिन उन्हें दुनियादारी का ज्ञान नहीं था। प्रतिकूल परिस्थिति में उन्हें जीवन बिताना पड़ रहा था। महासुन्दरी देवी ने ही गंगा देवी को सर्वप्रथम यह समझ दी थी कि मधुबनी पेंटिंग को जीवन जीने का साधन बनाया जा सकता है। इस प्रकार गहन अन्धकार में भटकती गंगा देवी को दीपक दिख गया और वे चित्र रचना में लीन हो गई। गंगा देवी पेंटिंग बनाती और महासुन्दरी देवी उसे बाजार देती। इस प्रकार महासुन्दरी देवी का सहारा पाकर गंगा देवी गुब्बारा बनकर ख्याति के आकाश में चमक गई और उन्हें पद्मश्री सहित कई राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय सम्मान प्राप्त हुए।
4 जुलाई, 2013 को 91 वर्ष की उम्र में महासुन्दरी देवी का पार्थिव शरीर इस संसार से सदा के लिए चला गया। किन्तु युग की वाणी को शाश्वत मुखरता प्रदान करता हुआ उनकी गरिमामय कला साधना का पथ आज भी प्रशस्त है। ऐसे कलाकारों के यशः शरीर का कभी अन्त नहीं होता। देश-विदेश की प्रसिद्ध आर्ट गैलरियों में उनके कितने ही चित्र सुशोभित हैं। आज भी जब मिथिला कलाकारों का मूल्यांकन होता है तो महासुन्दरी की कलाकृतियाँ एकमत से स्वीकार की जाती हैं। उन्होंने कितने ही ख्याति प्राप्त कलाकारों को जन्म दिया जो उनके बताये रास्ते पर चलकर मिथिला पेंटिंग को नई ऊँचाई दे रहे हैं। महासुन्दरी देवी आज भी मिथिलांचल के लोक मानस में जीवित हैं और उनकी स्मृति मधुबनी पेंटिंग के कलाकारों को आगे बढ़ने की प्रेरणा देती रहती है। इसलिए जब तक मधुबनी पेंटिंग है, तब तक महासुन्दरी देवी की अमल-धवल कीर्ति संसार में अमर है।