वरिष्ठ कलाकार शैलेन्द्र कुमार अपने कलात्मक छायाचित्रों के लिए जाने जाते हैं। फोटोग्राफी, खासकर सुदूर अंचलों के नयनाभिराम दृश्यों से लेकर ऐतिहासिक धरोहरों को अपने कैमरे में कैद करना उनका खास शगल है। लगभग चालीस से अधिक वर्षों की उनकी इस साधना का प्रत्यक्षदर्शी होने का सौभाग्य अपने हिस्से है, यानी तब के दिनों से जब हम कला महाविद्यालय, पटना के छात्र हुआ करते थे। शैलेन्द्र जी हमारे सीनियर थे, इस नाते एक आत्मीय लगाव का सिलसिला आज तक जारी है। पिछले दिनों हज़ारीबाग, झारखण्ड के अपने दौरे में जो कुछ उन्होंने देखा-सुना आपके सामने है; उन्हीं के शब्दों में। साथ ही उनके ही कैमरे की निगाह से: सुमन कुमार सिंह (मॉडरेटर)
Shailendra Kumar
अक्सर बातचीत में हम बड़ी असानी से कह देते हैं कि- यह तो मेरे बायें हाथ का खेल है। या कई बार जब किसी काम की कठिनाईयों की तरफ ध्यान दिलाना होता है तो बरबस हमारे मुंह से निकलता है- क्या तुमने इसे बायें हाथ का खेल समझ रखा है। बहरहाल ऐसे में कहीं ऐसा हो कि किसी कलाकार द्वारा सिर्फ बायें हाथ के इस्तेमाल से बनाए गए चित्रों को देखकर आपके मुंह से निकल जाए वाकई कमाल तो? पिछले दिनों झारखंड के जंगलों में भटकते हुए हमें कुछ ऐसे ही अनुभव से गुजरना पड़ा। 29 जनवरी के शाम के करीब छह बजे छायाकार मित्र सौरभ राज का प्रस्ताव आया, हजारीबाग जाने का। आनन-फानन में तैयारी हुई, और मध्य रात्रि तक हम थे हजारीबाग के होटल मयूरी रेजिडेन्सी में। अगले दो दिन तक कनेरी हिल और आसपास के स्मारकों तथा दृश्यावलियों को अपने कैमरे में कैद करने का सिलसिला चलता रहा। पहली फरवरी की सुबह हम निकल पड़े पास के इलाके में झारखंड के सोहराय कलाकारों से मिलने । विदित हो कि विगत वर्षों में कुछ कलाप्रेमियों के लगातार प्रयासों ने आज इस लोक-कला को देश- विदेश में चर्चित बनाया है। बहरहाल इसपर विस्तार से फिर कभी। तो रांची हाईवे पर चरही मोड़ से दाहिनी तरफ के जंगलों में हमारी गाड़ी मुड़ चली। लगभग बीस किलोमीटर पर एक गांव मिला जोराकाठ। यहां रहते हैं सजवा देवी और उनके पुत्र माणिकचंद महतो। माणिक ने बड़ी आत्मीयता से अपने और माताजी की कलाकृतियां दिखाई, जो तत्काल हमारे कैमरे में संग्रहित होते चली गईं।
अब हमारा इरादा झारखंड के उन गुफा चित्रों तक पहुंचना भी था जो पद्मश्री बुलु इमाम जैसे पुराविदों की खोज मानी जाती है। हालांकि बुलु इमाम से मिलना तो नहीं हो पाया लेकिन माणिक के सहयोग से हम उन गुफा-चित्रों तक पहुंच ही गए। कुछ घंटे तक वहां की फोटोग्राफी के बाद अब हम थकान से लगभग निढाल हो चले थे। तो ऐसे में वापसी ही उचित लगा और हम लौट चले अपने होटल की ओर। तबतक इरादा तो था कि बस होटल पहुंचकर थकान मिटाई जाए। किन्तु तभी माणिक का अनुरोध सामने आया कि पास में ही एक अन्य कलाकार का घर है, उनसे भी मिल ही लिया जाए। तो इस तरह हम रूदन देवी के दरवाजे तक जा पहुंचे । बड़ी ही आत्मीयता व तन्मयता से रूदन एक-एक कर अपनी कलाकृतियां दिखाने लगीं । तब तक सबकुछ सामान्य सा ही लगता रहा, क्योंकि हम पूरी तरह उनकी कलाकृतियों के सम्मोहन से बंधे थे।
Rudan Devi
किन्तु जब बारी आई फोटोग्राफी की तो उनके दाहिनी कंधे पर नजर पड़ते ही मैं चौंक पड़ा। हालांकि कंधा पूरी तरह साड़ी से ढंका हुआ था किन्तु इसके बावजूद पहली ही नजर में वहां हाथ के नहीं होने का अहसास हो चला था। जिज्ञासावश पूछने से अपने को रोक नहीं पाया। तो हुआ यह था कि उनका यह हाथ किसी लकड़ी से बुरी तरह चोटिल हो गया था। ईलाज के अभाव में नौबत हाथ काटने की आ गई। किन्तु अपनी दाहिनी हाथ गंवाने के बावजूद रूदन की जिजिवषा यथावत रही। कुछ इसी का परिणाम है कि रूदन अपने रोजमर्रा के कामकाज के साथ- साथ अपनी सृजन यात्रा को भी बदस्तूर जारी रखे हुए है। लेकिन ऐसे में भी एक सवाल उस व्यवस्था से तो बनता ही है कि आखिर रुदन जैसी प्रतिभाएं कब तक उपेक्षित रखी जाती रहेंगी। जिस व्यवस्था की जिम्मेदारी झारखण्ड की कला-संस्कृति और कलाकारों के उत्थान की बनती है, यानी कला-संस्कृति मंत्रालय।
वैसे तो रूदन का आमंत्रण है कि अगली बार जब भी हजारीबाग आना हो ता किसी होटल के बजाए, उनके घर पर ही रूका जाए। खैर यह तो जब होगा तब होगा। किन्तु अपनी लगभग चालीस से अधिक वर्षों की कला यात्रा में पहली बार जिस जीवटता से मेरा सामना हुआ, वह अविस्मरणीय बन गया। तो कला के प्रति रूदन के लगाव और समर्पण को सलाम करते हुए, प्रस्तुत हैं आप कलाप्रेमियों के लिए रूदन के चित्र के साथ-साथ उनकी कलाकृतियों के कुछ छायाचित्र।