मिथिला चित्रकला की बात करें तो देश-विदेश के कला प्रेमियों तक इसकी पहुँच से हम सभी भली भांति अवगत हैं। लेकिन एक दौर ऐसा भी था जब इसका दायरा क्षेत्र विशेष के घर आँगन तक सिमटा हुआ था। लेकिन भाष्कर कुलकर्णी के अथक प्रयासों ने इसे इस दायरे से बाहर निकाल देश-विदेश तक पहुँचाया । इस लोक कला में अग्रणी रहीं पद्मश्री सीता देवी से परिचित करा रहे हैं कला लेखक अशोक कुमार सिन्हा। बताते चलें कि भले ही मिथिला चित्रकला की चर्चा आज पूरी दुनिया में हो रही हो, किन्तु इससे जुड़ा एक विरोधाभास यह भी है कि इसके प्रमुख कलाकारों की भी वैसी पहचान नहीं बन पाती है जैसा आधुनिक या समकालीन कलाकारों को सुलभ है। बहरहाल प्रस्तुत है मिथिला चित्रकला को पद्मश्री समेत अन्य पुरस्कारों से गौरवान्वित होने का अवसर प्रदान कराने वाली सीता देवी पर यह विस्तृत आलेख।
बिहार के मिथिलांचल के जनमानस में दो-दो ‘सीता’ हैं। एक हैं जगत-जननी सीता, जिनका उद्भव हजारों साल पहलेे हुआ था और दूसरी हैं बीसवीं शताब्दी की सीता, जिन्हे ‘मधुबनी पेंटिंग’ को पुनः प्रकाश में लाने का श्रेय है। दोनों के व्यक्तित्व में अद्भुत समानताएँ भी हैं। दोनों मिथिला की हैं, दोनों का संबंध मधुबनी पेंटिंग से है। दोनों जीवन भर दुख झेलती रही, लेकिन अपने त्याग, तपस्या और समर्पण के कारण आज भी लोगों के कंठ-कंठ में हैं। मधुबनी पेंटिंग की उत्पति और प्राचीनता रामायण काल की मानी जाती है। मान्यता है कि सीता स्वयं कुशल चित्रकार थीं और अपने महल की दीवारों पर मिथिला के पौराणिक विम्बों को उकेरती थीं। इसलिए जगत-जननी सीता को मधुबनी चित्रों की जननी भी कहा जाता है। वर्तमान समय की सीता भी तमाम विषम परिस्थितियों के बीच पूरी तन्मयता से सीता-जन्म, राम-सीता मिलन, सीता-स्वयंवर और सीता की अग्निपरीक्षा जैसे विषयों का चित्रण करती रही। साथ ही जानकी (सीता) से संबंधित ‘समदाउन’ गीतों का गायन भी करती रहीं। उन गीतों के गायन के दौरान कहा भी करती थीं कि जब राजा जनक की बेटी होकर भी सीता ने इतने दुख सहे तो मैं तो एक साधारण इंसान हूँ। पौराणिक कथाओं तथा धार्मिक मान्यताओं पर आधारित अपने चित्रों की विषय-वस्तु, प्रभावशाली एवं ओजस्वी रंग और समर्थ रेखाओं के चलते वे अपने जीवन-काल में ही ‘‘लीजेन्ड’’ बन चुकी थीं।
सीता देवी का जन्म बिहार के सुपौल जिले के वसहा गाँव के एक सभ्रान्त गृहस्थ परिवार में मई, 1914 में हुआ था। इनके पिता का नाम चुमन झा एवं माता का सोन देवी था। गाँव में ही इन्होंने प्राईमरी स्कूल की शिक्षा प्राप्त की और अपनी माँ तथा नानी से भित्ति चित्र बनाना सीखा। तत्कालीन समाज में व्यापत प्रथा के मुताबिक 12 वर्ष की उम्र में ही इनका विवाह मधुबनी जिला के जितवारपुर गाँव के शोभाकान्त झा के साथ हो गया। उनका ससुराली परिवार बुरी तरह विपन्न था। जबकि इनके पिता ने इस परिवार को सम्पन्न समझकर इनकी शादी की थी। भोजन तक का संकट था। पिता और बाद में इनके बड़े भाई चावल की कुछ बोरियाँ भेज देते। फिर भी खाने-पीने का संकट बना रहा। अन्ततः सीता देवी ने अपने गहने भी बेच दिए। परिवार ऋण से घिर गया। कुपोषण और कमजोर स्वास्थ्य के चलते सीता देवी की दो बेटियाँ और बड़ा बेटा गुजर गए। बीच का रामदेव बच गया। फिर तीसरी बेटी भी बचपन की देहरी पर ही गुजर गई। पारिवारिक आपदाओं से घबड़ाकर सीता देवी ने अपने को दुर्गा की शरण में डाल दिया। दुर्गा-भजन का निरंतर पाठ और सीता से संबंधित ‘समदाउन’ गीत हमेशा गाती रहीं- जिनका संबल मिला। बाद के दो पुत्र बच गए। फिर भी आर्थिक विपन्नता ऐसी रही कि अंत में जितवारपुर छोड़कर सहरसा स्थित बड़े भाई के यहाँ अपनी संतानों को लेकर चली गईं। भाई सम्पन्न थे। वहीं बड़े बेटे रामदेव ने स्कूली शिक्षा पूरी की। दूसरे पुत्र सूर्यदेव की आठवीं तक वहीं पढ़ाई हुई। तीसरे पुत्र महादेव का जन्म यहीं पर हुआ। फिर अपने तीनों बेटों के साथ जितवारपुर लौट गईं।
सन् 1962 में मिथिलांचल में भीषण अकाल पड़ा थ। फसलें झुलस गईं थीं और लोग दाने-दाने को मुहताज हो गये थे। उस अकाल से निपटने के लिए भारत सरकार के हैण्डीक्राफ्ट बोर्ड ने डिजाइनर भास्कर कुलकर्णी को इस क्षेत्र के ग्राम्य जीवन में विद्यमान भित्ति-चित्र को व्यवसायिक आयाम देने के लिए मधुबनी भेजा था। उस समय तक ब्राह्मण एवं कायस्थ जाति की महिलाओं में ही भित्ति-चित्रों को बनाने का प्रचलन था।
उनके चित्रांकन मुख्यतः पौराणिक आख्यानों से जुड़े होते थे। कुलकर्णी जमीन एवं दीवारों पर कोहबर या अरिपन के रूप में प्राचीन काल से चली आ रही भित्ति-चित्र की परम्परा को कागज पर उकेरने के लिए स्थानीय महिलाओं को प्रेरित करने लगे। लेकिन यह बड़ा ही कठिन एवं चुनौतीपूर्ण कार्य था। तत्कालीन समाज में पर्दा-प्रथा थी। ब्राह्मण एवं कायस्थ जाति की महिलाएं पराये पुरूषों के सामने आने में झिझकती थीं। जमीन एवं दीवारों पर चित्रण उनके लिए धार्मिक कार्य था और उसके लिए धन अर्जन उनकी नजर में ‘पाप’ था। कुलकर्णी बहुत परेशान थे। किसी से उन्हें जानकारी मिली कि जितवारपुर की महापात्र परिवार की सीता देवी भित्ति-चित्रण में दक्ष हैं और गरीबी में अपना जीवन-यापन कर रही हैं। कुलकर्णी ने इनसे सम्पर्क साधा। शुरूआत में सीता देवी भी झिझकीं। लेकिन कुलकर्णी के बहुत समझाने पर तैयार हो गईं। माँ-नानी से मधुबनी चित्रकला का दान मिला था। सीता देवी के साथ-साथ जितवारपुर की जगदम्बा देवी एवं कुछ अन्य महिलाएं भी इस कार्य में आगे आयीं। इस तरह मधुबनी पेंटिंग, जो पूर्व में भित्ति-चित्र था, उसका व्यवसायिक रूपांतरण कागज पर प्रारम्भ हुआ। कुलकर्णी के अनुरोध पर सीता देवी ने 30’’X22’’ के कागज पर कुछ चित्र बनायें। सीता देवी समेत अन्य कलाकारों द्वारा बनाये गये चित्रों को नई दिल्ली के 10 जनपथ पर प्रदर्शित किया गया। विशेषज्ञों समेत आम लोगों ने उन्हें देखा और खूब पसंद किया।
मधुबनी पेंटिंग में सीता देवी ने अपनी एक विशिष्ट शैली विकसित की थी। पहले वे कूंची से चित्रों का खाका बनाती थीं। इसके बाद खाके के बीच में बांस की सींक में बंधे कपड़े के फाटे से अपेक्षित रंगों को यथास्थान भरती थीं। यहीं इनकी सृजन-प्रक्रिया थी। इनके चित्रों के बाॅर्डर में कोई डिजाइन नहीं होता था, बल्कि उसे एक खास रंग से भरती थीं।
दिल्ली स्थित चाणक्य आर्ट गैलरी के संस्थापक शामी मेंदीरत्ता उन चित्रों, विशेषकर सीता देवी के चित्रों से प्रभावित होकर कुलकर्णी के साथ जितवारपुर आए। उन्होंने 5’X5, 5’X10 के कैनवास पेपर सीता देवी को दिया। उनका लक्ष्य था सीता देवी के चित्रों की एकल प्रदर्शनी आयोजित करना। सीता देवी को कहा- कोई भी फीगर और डिजाइन जो चाहे – चित्रित कर दें। सीता देवी ने अपने दो पुत्रों, बड़े रामदेव और दूसरे सूर्यदेव का भी इसमें सहयोग लिया और सूक्ष्म रेखाओं की सहायता से चित्रों को लाल, बैंगनी, काले, पीले, नीले और नारंगी रंगों से भर दिया। यहीं से सीता देवी के उत्थान और कीर्ति का दरवाजा खुल गया। इनके द्वारा बनाये गए चित्रों की माँग दिनों-दिन बढ़ती गई। दिल्ली से आमंत्रण आया। सूर्यदेव की प्रतिभा भी निखर चुकी थी- माँ अनुशासित रूप से पारंगत थीं ही। वे इन दोनों चित्रों को लेकर दिल्ली गए। चाणक्य आर्ट गैलरी में सीता देवी ने अपनी चित्रावलियाँ प्रदर्शित कीं। मीडिया को बुलाया गया। फोटो के साथ सीता देवी अखबारों में छा गयीं। इनके बनाये सभी चित्र बिक गए।
प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी को भी इसकी सूचना मिली। उन्होंने इन्हें चाय-नाश्ते पर बुलाया। सीता देवी पहली बार कार में बैठी थीं। इंदिरा गांधी ने अनुरोध किया – मेरे सामने चित्र बनावें। उनका परिवार भी था। सीता जमीन पर बैंठ गईं। एक दियासलाई की काठी के ब्रश से इन्होंने दुर्गा का भव्य चित्र उकेर दिया। सीता देवी ने कहा- ‘‘मैं शक्तिशाली दुर्गा को महाशक्तिशाली दुर्गा का चित्र अर्पित कर रही हूँ।’’ यहीं से इनकी ख्याति और अवदान का चमत्कार रंग भरने लगा। भारत की सर्वोपरि धनी महिला गिरा साराभाई ने अपने नये मकान की दीवारों पर माटी रंगों से चित्र उकेरने के लिए इन्हें अहमदाबाद बुलाया। फिर दिल्ली के चाणक्यपुरी स्थित अकबर होटल के मधुबन काफी शाॅप की दीवारों पर चित्र बनाये, जो काफी लोकप्रिय हुए। 1972 में दिल्ली के प्रगति मैदान में आयोजित ग्राम झांकी में उनके द्वारा बनाये गए भित्ति-चित्र को काफी सराहना मिली। नई दिल्ली स्थित इंदिरा गाँधी अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा के मुख्य द्वार के अंदर की दीवारों पर उनके द्वारा बनाई पेंटिंग भी सुर्खियों में रही। इस दौरान इन्होंने देश के प्रमुख शहरों यथा अहमदाबाद, मुम्बई, कलकता और दिल्ली सहित विभिन्न शहरों में आयोजित प्रदर्शनियों में भाग लिया और अपनी कला का प्रदर्शन किया। उनके चित्रों की ख्याति देश से लेकर विदेश तक फैलने लगी। मधुबनी पेंटिंग में उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए बिहार सरकार ने 1969, 1971 और 1974 में उन्हें श्रेष्ठ शिल्पी, दक्ष शिल्पी और राज्य पुरस्कार से सम्मानित किया। 1975 में भारत सरकार की तरफ से राष्ट्रीय पुरस्कार मिला।
अर्द्ध-नारीश्वर, सीता-हरण, सीता-स्वयंवर, महाकाली, तथा कृष्ण-कथा जैसे इनके चित्र उस समय इतने लोकप्रिय हुए कि इन्हें सन् 1976 में अमेरिका, जर्मनी और जापान से आमंत्रण मिला। वाशिंगटन, न्यूयाॅर्क और जापान सहित विश्व के 10 देशों में इनके चित्रों की प्रदर्शनी हुई और वहाँ इनकी कला कुशलता की दाद दी गई। उसी वर्ष जर्मनी के वर्लिन शहर में भी इनके चित्रों को बहुत अधिक पसंद किया गया। वाराणसी में प्रथम श्रेणी के रेल डब्बे में लकड़ी के खाली पैनल पर चित्रण के लिए कहा गया। इस कार्य में इन्होंने पहली बार ब्रश और तैल रंग आधारित चित्रों का प्रयोग किया। इनके चित्रों के मुँहमांगा दाम मिलने लगे।
वर्ष 1981 में भारत सरकार ने इन्हें ‘‘पद्मश्री’’ सम्मान से सम्मानित किया। जर्मनी की एरिका स्मिथ, फ्रांस के इव्स विको, अमेरिका के रेमण्ड ओएन्स एवं डेविड फेमस और जापान के टोकियो हासेगावा समेत कई ख्याति प्राप्त कला समीक्षकों ने इनके चित्रों पर शोध किया और वृत चित्र भी बनाये। इनकी प्रसिद्धि की गूँज देश-विदेश में फैल गई। आमदनी बढ़ी। आर्थिक सहायता मिलते ही इन्होंने गाँव में जमीन खरीदी, पक्का मकान बनाया। यह इनके अनुसार सब दुर्गा माँ का प्रताप था। ये पुनः अमेरिका गईं। ‘भरनी शैली’ की इस कलानेत्री ने अपना आधार सूक्ष्म, ललित रेखाओं के सीमांकन में चटख रंगों को रखा। कृष्ण, राधा, दूसरे देव-देवियों के इनके चित्र शिखर पर पहुँच गए। इन्हें राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति मिली। अपने उत्थान के साथ इन्होंने गाँव और समाज का भी ख्याल रखा। उसका आर्थिक सशक्तीकरण किया। अपने अविकसित गाँव को आत्मनिर्भर बनाया। गाँव के सम्पर्क- सड़कों को एवं गलियों को पक्का कराया। गाँव में हाई स्कूल बनवाया- प्राईमरी की जगह। 1971 से ज्यादातर दिल्ली में ही रहने लगी थीं। जब बड़े राजनीतिज्ञों से मिलती, अपने गाँव को नहीं भूलती। कुछ न कुछ गाँव के लिए मांग लेतीं। सीता देवी के चलते ही जितवारपुर आज अतुलनीय गाँव है।
मधुबनी पेंटिंग में सीता देवी ने अपनी एक विशिष्ट शैली विकसित की थी। पहले वे कूंची से चित्रों का खाका बनाती थीं। इसके बाद खाके के बीच में बांस की सींक में बंधे कपड़े के फाटे से अपेक्षित रंगों को यथास्थान भरती थीं। यहीं इनकी सृजन-प्रक्रिया थी। इनके चित्रों के बाॅर्डर में कोई डिजाइन नहीं होता था, बल्कि उसे एक खास रंग से भरती थीं। इससे उनके चित्रों में एक उभार पैदा होता था और उसकी स्पष्टता निखरकर सामने आ जाती थी। इनके चित्रों में रंगों का संयोजन अद्भुत होता था। उन चित्रों में नारंगी एवं पीले रंग की बहुलता के बीच में बैंगनी रंग का प्रयोग एक करिश्माई प्रभाव उत्पन्न करता था। ये लाल, गुलाबी और नीले रंग का प्रयोग बहुत कम करती थीं। लेकिन इन दोनों रंगों की न्यूनता इनके चित्रों के सौन्दर्य में एक विशालता और व्यापकता प्रदान करती थी। मधुबनी पेंटिंग में कुछ प्राकृतिक रंगों को मिलाकर कुछ रंगतों को मिलाने का प्रयोग- उन्होंने पहली बार किया। ये प्रयोग अपनी सघनता में स्वच्छ और मूल रंगों से अधिक प्रभावशाली होते थे। मधुबनी पेंटिंग में रंगों का इतना सुन्दर और करिश्माई उपस्थापन शायद ही कहीं अन्यत्र देखने को मिलता है। यह सीता देवी की अनोखी शैली थी, जिसके कारण मधुबनी पेंटिंग के अन्य समकालीन कलाकारों की तुलना में इनकी एक अलग पहचान बन गई थी।
कहते हैं कि कलाकार के व्यक्तित्व का प्रतिविंब कहीं न कहीं उसके चित्रों में दिख ही जाता है। सीता देवी स्वयं काफी लंबी थीं और उनके चित्रों की मानवीय आकृतियों भी लंबी होती थी। उनके लम्बे-लम्बे हाथ और पैर होते थे। बड़ी-बड़ी आँखें, नुकीली नाक, पतली कमर सर्वत्र एक-सी दृष्टिगत होती थी। सीता देवी के स्त्री पात्रों के चित्रों के केश विन्यास और वस्त्राभूषण के अलंकरण में भी एक विशेष प्रकार का सम्मोहन होता था। रूपांकन और अलंकरण ऐसा कि देखने वाले, अनुभव करने वाले का उनसे सहज तादातम्य हो जाए। उसका अनुकरण मधुबनी पेंटिंग के कलाकार आज भी करते हैं। फलस्वरूप उनके केश विन्यास की शैली आज एक स्थापित शैली बन गई है।
सीता देवी के समय में धार्मिक कट्टरता चरम पर थी। समाज में ऊँच-नीच और छुआ-छूत का बोलबाला था। छोटी जाति के लोगों को हेय दृष्टि से देखा जाता था। सीता देवी स्वयं माँ जानकी और दुर्गा का अनन्य भक्त थीं। ज्यादा पढ़ी-लिखी भी नहीं थीं। लेकिन फिर भी मानवतावादी गुणों से भरपुर थीं। उनके इन गुणों की झलक मधुबनी पेंटिंग के नामचीन कलाकार शिवन पासवान के एक संस्मरण से मिलती है। घटना 1980 के दशक की है। शिवन पासवान सुबह-सुबह सीता देवी से मिलने उनके आवास पर पहुँचे थे। उसी समय सीता देवी की बहू चाय लेकर आयीं और शिवन पासवान को देखकर बोली- ‘‘आप थोड़ी दूर खिसक जाइए, माँ जी को चाय लेनी है।’’ सीता देवी को यह अच्छा नहीं लगा और उन्होंने अपनी बहू को फटकार लगाते हुए कहा- ‘‘तुम्हारे मुख से ऐसी बातें शोभा नहीं देती। शिवन पासवान भी एक कलाकार हैं और कलाकारों की एक ही जाति होती है। जाओ और इनके लिए भी चाय बनाकर लाओ।’’ ऐसी उदारमना स्वभाव की थीं सीता देवी।
सीता देवी ने अपने जीवनकाल में जितवारपुर एवं आसपास के गाँवों के सैकड़ों लोगों को मधुबनी पेंटिंग में दक्ष कर उन्हें आत्मनिर्भर बनाया। जो कोई भी उनके पास प्रशिक्षण के लिए पहुँचा- खाली हाथ नहीं लौटा- पूर्णता पाई। कोई शुल्क नहीं- सब मुफ्त। सीता देवी के गढ़े और तराशे हुए ढे़र सारे कलाकार आज भी हमारे बीच हैं। उनका कहना है कि उँगलियों से कूंची को पकड़ने की सीता देवी की एक खास मुद्रा थी। वे अँगुठा और तर्जनी से कूँची को पकड़ती थी और मध्यमा को कागज या कैनवास पर टिकाए रहती थीं। शेष दो अनामिका और कनिष्ठा को वह कागज की सतह से ऊपर रखती थीं। यह उनकी कला का अविष्कृत अनुशासन था। वे अपने छात्रों को भी उसी ढ़ंग से कूँची पकड़ना सिखाती थीं। गलती करने वालों को झिड़की देते हुए कहती थीं- ‘‘ऐसे नहीं – ऐसे पकड़ो।’’
सीता देवी का समय वह समय था, जिसमें महिलाओं की अपनी कोई स्वतंत्र पहचान नहीं होती थी। उन्हें घर से निकलने पर पाबंदी थी। यहाँ तक कि अपने माता-पिता द्वारा दिए गए मूल नाम को वे मायके में ही छोड़ आती थीं। ससुराल में उनका संबोधन फलाने की बहू, पत्नी या माँ के रूप में होता था। लेकिन सीता देवी ने अपने कला-कर्म से सदियों से चली आ रही उस परम्परा को बदल दिया। वे क्षेत्र से लेकर देश-विदेश से अपने मूल नाम से जानी जाने लगी जो तत्कालीन समाज की बहुत बड़ी घटना थी। आज की तिथि में जितवारपुर के घर-घर में मधुबनी पेंटिंग के कलाकार हैं, जिनमें महिलाओं की प्रमुखता है। इसी रूप में यह गाँव सौन्दर्य और रोजगार दोनों को धरती पर उतारने वाला काम कर रहा है। इस महिला सशक्तिकरण का श्रेय सीता देवी को है।
लगभग पाँच दशकों तक मधुबनी पेंटिंग में सक्रिय रहने के बाद सीता देवी का 12 दिसम्बर, 2005 को 91 वर्ष की उम्र में निधन हो गया। मधुबनी पेंटिंग का वह रौशन सितारा सदा के लिए डूब गया, लेकिन उनके नाम का सितारा आज भी चमक रहा है, भविष्य में भी निरन्तर चमकता रहेगा। उनके बनाये हुए चित्र लंदन के विक्टोरिया और अलबर्ट म्यूजियम, लाॅस एंजिल्स का काउन्टी म्यूजियम ऑफ़ आर्ट, द फिलाडेल्फिया म्यूजियम ऑफ़ आर्ट, पेरिस का मसी द क्यू ब्रान्ली और जापान के मिथिला म्यूजियम सहित भारत के कई संग्रहालयों में सुशोभित हैं। वे अपने इन चित्रों में सदैव रंग-रूप में प्रतिष्ठित रहेंगी और उनके प्रभावक चित्र-रश्मि से कलाकारों की समसामयिक एवं परवर्ती पीढ़ियाँ अनुप्रेरित होती रहेंगी। इसी अमरता का नाम ‘सीता देवी’ है।
(अशोक कुमार सिन्हा)
बी-20, इन्दिरापुरी काॅलोनी,
पोस्ट-बी0 भी0 काॅलेज,
पटना-800014 (बिहार)
मोबाईल नं0-09431049498
आवरण चित्र के छायाकार हैं रविंद्र दास, संभवतः यह सीता देवी जी की एकलौती उपलब्ध रंगीन चित्र है.