मेरी व्यक्तिगत राय में जोनी एमएल एक ऐसे कला समीक्षक,आर्ट क्यूरेटर और कला इतिहासकार हैं, जो आसपास की घटनाओं -परिघटनाओं में समाहित मर्म की न केवल गहरी पकड़ रखते हैं I बल्कि बेबाकी से अपने फेसबुक पोस्ट में बयां भी करते हैं, ऐसी ही एक पोस्ट का हिंदी अनुवाद यहाँ प्रस्तुत है …- संपादक
अनुभवी कलाकारों और कला लेखक मित्रों के एक समूह के साथ अनौपचारिक बातचीत के दौरान, सम्मान और पुरस्कार पर चर्चा होने लगी । इन वरिष्ठ सदस्यों में से एक ने कहा कि आजकल पुरस्कार या तो बहुत जल्दी दिए जाते हैं या बहुत देर से। ‘ऐसे में जब बहुत देर हो जाती है, तो यह किसी ऐसे व्यक्ति को देशी घी पिलाने जैसा है जो इसे पचा नहीं सकता।’
हम जानते हैं कि देशी घी सामान्य जनों के लिए एक विशेष उपहार है क्योंकि भारत के पारंपरिक समाजों में या तो घी देवताओं पर बरबाद किया जाता था या केवल वे लोग इसका सेवन करते थे जो इन देवताओं तक सीधी पहुंच का दावा करते थे, यानी सवर्ण/उच्च जातियां।
इसके ऐतिहासिक संदर्भ में देखा जाए, तो यहाँ देशी घी का सरल संदर्भ पुरस्कार देने वाली एजेंसियों के भीतर मौजूद निहित वर्ण व्यवस्था पर उंगली उठाने जैसा है। इसका आशय यह नहीं है कि पुरस्कार केवल उच्च जातियों को ही मिलता है, बल्कि पुरस्कृत होने वाले अधिकांश वे लोग होते हैं जो पहले से ही वर्ण और समाज व्यवस्था में खुद को ऊपर उठा चुके होते हैं। वे उन्हीं की भाषा बोलते हैं, उन्हीं की संस्कृति का अनुकरण करते हैं और रूपक के साथ-साथ शाब्दिक रूप से भी उनके जैसा व्यवहार करते हैं।
तभी मुझे एक ऐसी घटना याद आई, जिसका मैं प्रत्यक्षदर्शी था। 91 वर्षीय एक कलाकार, जिन्होंने अपने शुरुआती अधिकांश दिन घोर गरीबी और अभावों में बिताए, लेकिन अपनी रचनात्मकता से कभी समझौता नहीं किया । इस तरह से उन्होंने इस क्षेत्र को संभालने वाले तथाकथित संभ्रांतों में से एक बनना स्वीकार नहीं किया। साल दर साल बीतते गए। अब वे एक बुजुर्ग व्यक्ति बन गए, यानी इस धरती पर कुल मिलाकर लगभग सत्तर साल बिता चुके थे तब अचानक एक दिन उन्हें विशेष पहचान मिलने की शुरुआत हो गयी । पैसा और पैसे वाले उनके पीछे भागने लगे । तब कला जगत में हर किसी ने सोचा, चलो, आखिरकार हमारे सम्मानित बुजुर्ग को वह मिल गया जिसके वे वास्तविक हकदार थे।
लेकिन यह इस कहानी का आंशिक सच था । दरअसल उस दौर में कला बाजार में तेजी थी और वहां के खिलाड़ी एक ऐसे बुजुर्ग व्यक्ति को चाहते थे, जिसके पास कलात्मक सृजन का लंबा इतिहास हो और हां, उसके पास ओरिजिनल कलाकृतियाँ भी हों। हमारे बुजुर्ग इन सभी कसौटियों पर खरा उतर रहे थे । उनके पास इतिहास, ढेर सारी कलाकृतियां और कहानियों का एक समृद्ध भंडार था।
उस दिन जब मैं देश की राजधानी से दूर दूसरे शहर में उनके नए बने घर में उनसे मिला, तो उन्होंने कहा, “तुम्हें पता है कि जब मुझे पहली बार बड़ी रकम मिली थी, तो मैंने उसका क्या किया? मैंने दोनों घुटने बदलवा लिए। लेकिन मैं अभी तक अपने घर की पहली मंजिल पर नहीं जा पाया हूं।” उनके इस कथन के बाद हम दोनों ने जबरदस्त ठहाके लगाये ।
तो देखा जाए तो हमारे टिप्पणीकार ने सही कहा था। देशी घी किसी को भी तभी दिया जाना चाहिए जब वह उसे पचा सके।
इसी बीच एक और कलाकार मित्र ने कहा, “मेरे पास उपहार में दिए गए शॉलों (चादरों) और स्मृति चिन्हों से भरा एक कमरा है क्योंकि वे बहुत सस्ते आते हैं। यहां तक कि कबाड़ी भी इसे लेने से मना कर देते हैं।” ऐसे में चुप्पी ओढ़े मैं अपने पास मौजूद शॉलों के ढेर के बारे में सोचने लगा ।
-जोनी एमएल