एक पेंटर जो बन गए “बुलबुल-ए-हिन्द” !

सिनेमा के होर्डिंग और बिलबोर्ड पेंटर से भारतीय समकालीन कला के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर बन चुके हुसैन यानी मकबूल फ़िदा हुसैन से तो आप परिचित हैं ही। यहाँ हम बात कर रहे हैं उस शख्सियत की जिन्होंने अपने करियर का आगाज़ तो बिलबोर्ड पेंटर के तौर पर किया था और बन गए गायकी के बुलबुल। अक्सर होता है कि आप किसी काम में मशगूल हो कुछ गुनगुनाने लगते हैं। आप कहेंगे यह तो एक सामान्य और सहज प्रक्रिया है। लेकिन अगर कुछ ऐसा हो कि इस गुनगुनाने का परिणाम यह सामने आये कि आपका मूल काम बहुत पीछे रह जाये और आप की शोहरत एक गायक वाली हो जाये। और वो भी ऐसी शोहरत की तत्कालीन प्रधानमंत्री द्वारा आपको “बुलबुले हिन्द” का ख़िताब दे दिया जाये। जी हाँ ऐसा ही कुछ हुआ था उस शख्सियत के साथ जिन्हें दुनिया हबीब पेंटर कव्वाल के नाम से जानती है। हुआ यही था कि हबीब पेंटर एक बिलबोर्ड पेंट करते समय कोई धुन गुनगुना रहे थे, किसी संगीत प्रेमी ने तब उन्हें पेंटिंग का काम छोड़कर गायकी को जारी रखने का सुझाव दिया। इस क्रम में तब उन्होंने दिल्ली की यात्रा की, जहां उनका परिचय कव्वाली जैसी विधा से हुआ। और उसके बाद वे हबीब पेंटर से बन गए हबीब पेंटर कव्वाल। सूफीवाद में उनकी इस आध्यात्मिक रुचि ने उनके अधिकांश गायन को प्रभावित किया। खासकर 13 -14वीं सदी के सूफी कवि अमीर खुसरो की लिखी “काहे को ब्याहे विदेश” को गाकर उन्होंने इसे जन-जन तक पहुंचा दिया। हबीब खुद को सूफी संत हजरत निजामुद्दीन औलिया का शिष्य मानते थे।

उनका जन्म 19 मार्च 1920 को उस्मानपाड़ा, अलीगढ़ में हुआ था। वहीँ उन्होंने बिलबोर्ड पेंटर के रूप में अपने करियर की शुरुआत की थी। हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया को समर्पित खुसरो की कविता “बहुत कठिन है डगर पनघट की” का उनका गायन आज भी सुनने वालों को मंत्रमुग्ध कर देता है। दिल्ली के सांस्कृतिक दुनिया से उनको परिचित कराया था रईस मिर्जा नाम के सज्जन ने जिन्होंने पहली बार उन्हें कव्वाल के रूप में दुनिया के सामने मंच पर पेश किया। दिल्ली के सांस्कृतिक जगत का यह वह दौर था जब रवींद्रनाथ टैगोर के निमंत्रण के बाद भारत में आये हंगेरियन कला, नाटक, संगीत और वास्तुकला विशेषज्ञ चार्ल्स फैबरी ने शांतिनिकेतन छोड़ दिया था और अपनी पत्नी रत्ना माथुर (एक ख्यात इंटीरियर डिजाइनर) के साथ दिल्ली में बस गए थे। यहाँ उन दिनों फैबरी द स्टेट्समैन के कला समीक्षक थे, और तब इस अख़बार के नाट्य समीक्षक हुआ करते थे हबीब तनवीर जैसे दिग्गज। हबीब पेंटर की आवाज अच्छी होने के साथ-साथ भाषा पर भी अच्छी पकड़ थी। कतिपय इन्हीं विशेषताओं के कारण उन्हें आज भी एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण कव्वाली गायक माना जाता है। चार्ल्स फैबरी भी हबीब की गायकी के मुरीदों में एक थे।

भारत और चीन के बीच 1962 के युद्ध के दौरान, भारतीय कलाकारों ने राष्ट्र को प्रेरित करने के लिए अपनी आवाज दी। तब हबीब ने भी भारतीय सेना के सिपाहियों के लिए गाना गाया। उसके बाद तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें “बुलबुल-ए-हिंद” की उपाधि से सम्मानित किया।अलीगढ़ में पान वाली कोठी के पास हबीब पेंटर के सम्मान में एक पार्क है जिसका नाम “बुलबुल-ए- हिंद हबीब पेंटर पार्क” है। उन्होंने कव्वालियां ही नहीं, सूफियाना कलाम भी गाए। कृष्ण, सत्संग व आध्यात्मिक गीतों को सुर भी दिए। महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, डॉ राधाकृष्णन, ज्ञानी ज़ैल सिंह, फखरुद्दीन अली अहमद, चौधरी चरण सिंह और बख्शी गुलाम मुहम्मद आदि उन्हें बहुत सम्मान देते थे। 22 फरवरी 1987 को उनका निधन हो गया।

-सुमन कुमार सिंह

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