जयकृष्ण अग्रवाल: रंग-रेखाओं, विचार और कला शिक्षा को समर्पित जीवन

प्रो. जय कृष्ण अग्रवाल सर से पहली मुलाकात कब और कहाँ हुयी, आज की तारीख में बता नहीं सकता I अलबत्ता कला एवं शिल्प महाविद्यालय, पटना के दिनों में अपने कलागुरु प्रो. श्याम शर्मा जी से लखनऊ कला महाविद्यालय के जिन प्राध्यापकों की चर्चा अक्सर सुनने को मिला, उनमें से एक नाम जय सर का भी था I ऐसे में वर्ष 1988 में जब ललित कला अकादेमी की शोधवृति के तहत क्षेत्रीय कला केंद्र, लखनऊ से जुड़ा, तब जिन प्राध्यापकों एवं कलाकारों से परिचित होने का सुअवसर मिला; जय कृष्ण अग्रवाल उनमें से एक थे I इन बीते दशकों में जब भी लखनऊ जाना हुआ, जय सर से मुलाकात का कोई न कोई बहाना निकाल ही लेता हूँ I और मेरा सौभाग्य कि जय सर भी समय दे ही देते हैं I मैंने उनसे सीधे तौर पर कला शिक्षा भले ही ग्रहण नहीं किया, किन्तु आज भी कला विषयक किसी विशेष जानकारी लेना हो, तो सबसे पहला नाम जय सर का ही याद आता है I वैसे तो दस्तावेज की गवाही है कि उनका जन्मदिन 1 जुलाई है, किन्तु वास्तविक जन्मतिथि 5 जुलाई है I

वाश शैली में रची गयी एक कलाकृति

भारतीय समकालीन चित्रकला में जयकृष्ण अग्रवाल का नाम एक ऐसे विचारशील कलाकार और प्रतिबद्ध शिक्षक के रूप में लिया जाता है जिन्होंने बतौर एक कलाकार और कलागुरु भारतीय कला-जगत को समृद्ध किया। लखनऊ कॉलेज ऑफ आर्ट के पूर्व प्राचार्य के रूप में उन्होंने न केवल संस्थान को नई दिशा दी, बल्कि अपने विद्यार्थियों में रचनात्मक स्वतंत्रता और वैचारिक अनुशासन का संस्कार भी रोपा।

जयकृष्ण अग्रवाल की चित्रशैली में परंपरा और आधुनिकता का अत्यंत संतुलित समागम दिखाई देता है। उनके चित्रों में भारतीय प्रतीकों, लोक-आख्यानों और गूढ़ मनोवैज्ञानिक संकेतों का प्रयोग अत्यंत सूक्ष्मता से होता है। वे शुद्ध अमूर्तन से अधिक संकेतात्मक यथार्थ (Symbolic Realism) के पक्षधर रहे। उन्होंने नारी-प्रतीकों, दैवत्त्व और सामाजिक विषमता को अपने चित्रों में सघन और प्रतीकात्मक रंगों के माध्यम से प्रस्तुत किया। उनकी विशिष्ट श्रृंखलाएँ जैसे “अंतर्मुखी आकृतियाँ”, “मौन संवाद”, तथा “ऋतुओं की संरचना” विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इन श्रृंखलाओं में वे केवल दृश्य नहीं रचते, बल्कि दर्शक को आंतरिक विचार-यात्रा पर आमंत्रित करते हैं। उनका रंग प्रयोग प्रायः संयमित होता है—न अधिक भड़कीला, न अधिक गाढ़ा—जिससे रचना की भावनात्मक गहराई स्वतः प्रकट होती है।

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जयकृष्ण अग्रवाल ने अपनी कला-यात्रा के दौरान भारत की अनेक प्रमुख कलादीर्घाओं में एकल और सामूहिक प्रदर्शनियों में भाग लिया। उनकी कृतियाँ ललित कला अकादमी (नई दिल्ली), भारत भवन (भोपाल), जहांगीर आर्ट गैलरी (मुंबई) तथा लखनऊ की स्टेट आर्ट गैलरी में प्रदर्शित हुई हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी उनकी कला को मान्यता मिली, विशेषतः बर्लिन, सियोल और लंदन की समकालीन कला-प्रदर्शनियों में। उन्हें उत्तर प्रदेश राज्य ललित कला पुरस्कार, राष्ट्रीय कला शोध परिषद की फैलोशिप, और कला-शिक्षा में उनके योगदान हेतु सांस्कृतिक मंत्रालय द्वारा विशेष प्रशंसा प्रमाण पत्र भी प्राप्त हुए।

एक शिक्षक के रूप में जयकृष्ण अग्रवाल ने कलापाठ को केवल तकनीकी प्रशिक्षण नहीं, बल्कि दृष्टि निर्माण की प्रक्रिया माना। उनके कई शिष्य आज प्रमुख कलाकार और कला-शिक्षक हैं, जिनमें मेरे कलागुरु प्रो.श्याम शर्मा, पूर्व प्राचार्य, कला एवं शिल्प महाविद्यालय, पटना का नाम विशेष उल्लेखनीय है I वे अपने विद्यार्थियों को केवल रंगों से नहीं, विचारों से रचना करना सिखाते रहे।आज जब हम जयकृष्ण अग्रवाल के जन्मदिवस पर उन्हें स्मरण करते हैं, तो यह केवल एक कलाकार को नहीं, बल्कि एक युगबोधी शिक्षक, एक रंग-द्रष्टा और भारतीय कला परंपरा के संवाहक को प्रणाम करने का क्षण है। उनका जीवन हमें यह सिखाता है कि कलाकार का उत्तरदायित्व केवल सृजन नहीं, बल्कि सृजनशीलता को साझा करना भी है।

वाश शैली में रची गयी एक कृति

इतना ही नहीं जय सर ने अपने कला जीवन से जुड़ी तमाम स्मृतियों को जिस तरह से संजो कर रखा है, वह हम जैसों के लिए विशेष अनुकरणीय है I उनके संग्रह में छात्र जीवन से लेकर अभी तक की सृजित कलाकृतियों में से अधिकांश संग्रहित हैं, साथ ही इन विगत दशकों में उनके कैमरे से ली गयी तमाम दुर्लभ तस्वीरें भी हैं I इन सबसे महत्वपूर्ण मैं उनके जिस संग्रह को मानता हूँ, वह है उनकी स्मृतियों में संजोयी वे तमाम यादें; जिसे वे समय-समय पर सोशल मीडिया पर साझा करते रहते हैं I हालाँकि अपेक्षा है कि उनका समग्र लेखन पुस्तकाकार रूप में जल्द से जल्द आ सके I सादर अभिवादन सहित हार्दिक बधाई एवं शुभकामनायें सर..

-सुमन कुमार सिंह 

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