मृत्युलेख क्या लेखक का अपना मृत्युलेख बन जाता है?

कलाकार के. पी. वलसाराज नहीं रहे। क्या यह एक मृत्युलेख है जिसे मैं लिखने जा रहा हूँ? क्या मैं उन्हें इतना जानता हूं कि उनके जीवन या कला के बारे में लिख सकूं, उनके व्यक्तित्व के बारे में तो बात ही छोड़ दें? मैं उनसे एक बार मिला था, एक कला शिविर में कुछ दिन साथ बिताए थे और कला के बारे में बातें की थी। क्या किसी कलाकार के बारे में लिखना काफी है? मैं सोशल मीडिया को यह सोचकर देखता हूं कि किसी के बारे में मुझे जितनी जानकारी है उससे कहीं अधिक जानकारी किसी पोस्ट से मिल जाए। कम से कम केरल के अधिकांश कलाकारों ने उनके निधन पर शोक व्यक्त किया है। सभी ने उनके सौम्य स्वभाव और भीड़ में भी कायम रहने वाली चुप्पी को रेखांकित किया है। लोग उन्हें एक ऐसे अच्छे इंसान के रूप में याद करते हैं, जिसमें कोई दोष नहीं है। अच्छाई एक कफन है, एक ऐसी सार्वजनिक छवि है जिससे खुद को ढंकना हम सभी की नियति है, खासकर जब हम इस दुनिया को अलविदा कर चुके हों।

के. पी. वलसाराज

अगर मैं वलसाराज के बारे में नहीं लिखूंगा तो मैं किस बारे में बात करूंगा? मैं मरने के बारे में कुछ लिखना चाहता हूँ। लेकिन मुझे पता है कि मौत जैसे विषय को इस तरह के संक्षिप्त लेख में शामिल नहीं किया जा सकता है। कई लोगों ने मृत्यु के बारे में इतने शानदार ढंग से लिखा है कि किसी को भी शब्दों के माध्यम से प्रदान की गई उस उत्कृष्ट भावना का अनुभव करने के लिए मर जाने का मन करने लगे। मैं समझता हूं कि मैं मृत्यु के बारे में लिखने के योग्य नहीं हूं क्योंकि मैंने मृत्यु का अनुभव नहीं किया है। हालाँकि, मैं सोशल मीडिया पर किसी की भी मौत के बारे में लिख सकता हूँ।

वलसाराज सोशल मीडिया में सक्रिय थे। कहा जाता है, किसी के चरित्र का आकलन उन किताबों से किया जा सकता है जिसे वह पढ़ता है या अपने पास रखता है। आज, सोशल मीडिया के युग में, किसी के व्यक्तित्व का आकलन उसके द्वारा पोस्ट किए गए संदेशों या उसके द्वारा साझा की गई जानकारियों से किया जा सकता है। जबकि ऐसे लोग भी हैं जो सावधानीपूर्वक तैयार किए गए अपने सोशल मीडिया पोस्ट के माध्यम से खुद को उच्च स्तर के आईक्यू (Intelligence Quotient ) और ईक्यू (Emotional Quotient) वाले अलग-अलग व्यक्तित्व के तौर पर प्रस्तुत करते हैं। वहीँ कुछ ऐसे भी हैं जो लापरवाही और नासमझी भरे शब्दों से अपनी क्षुद्रता उजागर करते हैं। वलसाराज उन जैसे कत्तई नहीं थे। उन्होंने वही पोस्ट किया जो उन्हें बेहद पसंद आया, शायद ही कभी उन्होंने अपनी व्यक्तिगत तस्वीरें या अपनी कलाकृतियां पोस्ट की हो। उन्होंने ज़्यादातर ऐसी जानकारियां और राय साझा की जो उन्हें सामाजिक रूप से प्रासंगिक लगती थी और इसलिए उनके दिल के करीब थी। अपने आपको छद्म बुद्धिजीवी साबित करने का उनका कभी कोई इरादा नहीं रहता था।

File Photo: Valsaraj with Ramesh Khandagiri

कुछ लोगों को दूसरे लोग सिर्फ इसलिए पसंद नहीं करते क्योंकि वे अपने कार्यक्षेत्र में महान हैं, बल्कि इसलिए पसंद करते हैं क्योंकि उनकी सार्वजनिक छवि शांत और संयमित व्यक्ति की है। इस तरह के लोगों को हम सुलझा हुआ व्यक्तित्व कहते या मानते हैं। किसी सुलझे व्यक्तित्व से ऑनलाइन और ऑफलाइन निपटना बेहद आसान है। क्योंकि उनकी बातों का कोई छुपा हुआ अर्थ नहीं होता है। वलसाराज कुछ इसी तरह के एक सीधे-सादे इंसान के तौर पर जाने गए। उनके सोशल मीडिया पोस्ट ‘लाइक इकोनॉमी’ के बाजार में कुछ खास नहीं चल पाए। लेकिन उनकी मृत्यु हमें बताती है कि अपनी ज़िन्दगी में उन्होंने बहुत सम्मान हासिल किया था। सोशल मीडिया पर कुछ ऐसे भी लोग होते हैं जो अगर एक-दो दिन तक कुछ पोस्ट न करें तो हमें उनकी याद आती है, उस श्रेणी में शुमार होना वास्तव में आसान नहीं है। वहीँ सोशल मीडिया पर कुछ ऐसे भी लोग हैं जिन्हें सिर्फ इसलिए बर्दाश्त किया जाता है क्योंकि वे हमारी मित्र सूची में हैं। हो सकता है कि हमें वे या उनकी पोस्टें पसंद न आएं। उनका आत्मतुष्टता का प्रकोप अक्सर हमारे लिए कष्टप्रद हो जाता है, फिर भी हम उन्हें सहन कर लेते हैं।

कलाकार मर जाते हैं, उनके परिवार और दोस्त कुछ दिनों तक शोक मनाते हैं। फिर वे उनकी अनुपस्थिति को लगभग स्वीकार लेते हैं। आनेवाला समय उन्हें ठीक कर देता है। ये मित्र और परिजन धीरे-धीरे अपनी दुनिया में वापस आ जाते हैं। लेकिन यह भी होता है कि जब परिवार अपने मृत रिश्तेदारों को भूल जाते हैं तब भी अन्यत्र कुछ अन्य लोग उन्हें कभी-कभी याद करते रहते हैं। इसलिए नहीं कि सोशल मीडिया उनकी यादों को ताज़ा करता है, बल्कि इसलिए कि उन्होंने कहीं कुछ गहरी छाप छोड़ी है। जब वलसाराज के मामले की बात आती है तो उनमें से अधिकांश ने, जिनमें मैं भी शामिल हूं, यही बात कही; वे उनसे एक बार किसी शिविर में या किसी सांस्कृतिक कार्यक्रम में मिले थे। ऐसा लगता है कि इन शोक मनाने वालों ने उनसे बात करने का मौका खो दिया क्योंकि उन सभी ने एक ही बात कही; उन्होंने दूर से ही सही उनके दीर्घ और गहरे व्यक्तित्व को देखा। उनके ऊपर हमेशा एक सन्नाटा छाया रहता था इसलिए वे खुद को लोगों से दूर रखते थे।

A Work by KP Valsaraj

क्या यह चमत्कार नहीं है कि जिस शख्स की जिंदगी उसके परिवार और करीबी दोस्तों को छोड़कर बाकी दुनिया के लिए एक पहेली है, उसे कई लोग उसी तरह पसंद करते हैं; सिर्फ इसलिए कि उन्होंने उससे बात नहीं की है? कई लोगों ने उनके कार्यों को करीब से देखा भी नहीं है। क्या वह एक प्रसिद्ध और कम बोलने वाले व्यक्ति थे? बिल्कुल नहीं। वह एक ऐसे व्यक्ति थे जो शायद कलाकारों की पागल भीड़ से दूर रहकर जीवन जीना पसंद करते थे। उनका एक अतीत था और जब वह युवा थे तो वह घमंडी और कट्टरपंथी थे, ऐसा एक पोस्ट में कहा गया है। वह उस विचारधारा के प्रति समर्पित थे जिसकी उन्होंने उन दिनों सदस्यता ले रखी थी। वह रेडिकल पेंटर्स एंड स्कल्पटर्स एसोसिएशन का हिस्सा थे, जिसे रेडिकल ग्रुप के नाम से जाना जाता था (जिसे कुछ जेएनयू प्रोफेसरों ने अंततः ‘केरल रेडिकल्स’ कहा था)। कट्टरपंथी 1980 के दशक में प्रचलित प्रतिगामी सौंदर्यशास्त्र के ख़िलाफ़ थे। लेकिन तथ्य हमें दिखाते हैं कि वे कट्टरपंथी कत्तई नहीं थे। अलबत्ता वे पैसा कमाने वाले कलाकारों के ख़िलाफ़ थे। 1980 के दशक में आयी कला बाजार के उछाल (एक अस्थायी घटना जिसने पूरे भारत के कला परिदृश्य को प्रभावित नहीं किया था) ने बॉम्बे प्रोग्रेसिव से जुड़े पुराने कलाकारों एवं मध्यम आयु वर्ग के कलाकारों को सामने लाया। अब हर कोई अपने घरों में हुसैन या सूजा चाहता था। यही वह दशक था जब रवि वर्मा को दोतरफा सफलता मिली। प्रतिगामी सौंदर्यशास्त्रियों के साथ-साथ कट्टरपंथियों ने भी समान रूप से उनकी आलोचना की। अंततः प्रोग्रेसिव और रवि वर्मा दोनों आर्थिक रूप से सफल हुए। कट्टरपंथियों ने पहले प्रतीकात्मक रूप से और फिर वास्तव में खुद को समाप्त कर लिया।

वलसाराज अभिव्यक्तिवाद के ख़िलाफ़ थे, मुझे ऐसा कहना चाहिए क्योंकि जिन कलाकारों पर प्रतिगमन का आरोप लगाया गया था, वे अभिव्यक्तिवादी शैली में पेंटिंग कर रहे थे। इसलिए उन्होंने प्रभाववाद और फ़ॉविज्म जो अभिव्यक्तिवाद की एक शाखा है तक पहुँचने के लिए अपने को उस दौर में पहुँचाया या कहें कि टाइम ट्रेवल किया। जबकि इस दौरान उनके सहयोगी अभिव्यक्तिवाद के विभिन्न रूपों के साथ काम कर रहे थे। देखा जाए तो यह एक विरोधाभासी और हास्यास्पद स्थिति थी। हालाँकि, वलसाराज ने खुद को वहाँ से बाहर निकाला और अपनी पसंद की राह चुनी। वे नहीं बदले। 2018 में जब मैंने उन्हें पेंटिंग करते देखा तो हैरान रह गया। उन्होंने अभी भी व्युत्पन्न प्रभाववादी और अभिव्यक्तिवादी शैली में चित्रकारी की। क्या मैं उन पर ज़िद्दी होने या पीटर पैन जैसा होने का आरोप लगा सकता हूँ? नहीं, मैं नहीं कर सकता। क्योंकि ऐसे अनेक कलाकार रहे हैं जो यह जानने के बाद भी कि उनकी पसंद की शैली पुरानी है और अब फैशन में नहीं है, एक निश्चित तरीके से काम करते रहे हैं। फिर भी कोई इसे जारी रखता है तो इसके पीछे जरूर कोई कलात्मक जिद रही होगी।

कलाकारों के चले जाने पर उनके बारे में कौन लिखेगा? जो लोग उन्हें जानते हैं वे निश्चित रूप से भावनाओं से ओतप्रोत शब्द लिखेंगे। लेकिन क्या मृत्युलेख से परे, उनके कार्यों का मूल्यांकन और सराहना करने वाला भी कोई होगा? यह इस बात पर निर्भर करता है कि कलाकारों को अपनी विरासत, किंवदंतियाँ और लोककथाएँ स्वयं बनानी चाहिए ताकि उन्हें सोशल मीडिया या मित्र मंडलियों में व्यापक रूप से प्रसारित किया जा सके। क्या यह भयानक नहीं है कि एक कलाकार अपने काम के अलावा कोई सबूत नहीं छोड़ता और अपने साथ कई कहानियाँ, कई किंवदंतियाँ और कई लोककथाएँ लेकर चला जाता है? जब आप किसी और का मृत्युलेख लिख रहे हैं, तो वास्तव में आप अपना मृत्युलेख लिख रहे हैं क्योंकि आपका लेखन आपकी दंतकथा और लोककथाओं को जोड़ता है। अरे, यह आदमी तो अच्छे शोक सन्देश लिखता था। और आज वह चला गया है तो आओ उन श्रद्धांजलियों के बारे में बात करते हैं जो उन्होंने आज तक लिखी हैं।

-जोनी एमएल

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