जरुरत है कला इतिहासकारों और विद्वानों को एक मंच पर लाने की

कला समीक्षक, कला इतिहासकार एवं क्यूरेटर जोनी एमएल के फेसबुक पोस्ट का हिंदी अनुवाद प्रस्तुत है, आलेखन डॉट इन के उन सुधि पाठकों के लिए I जो समकालीन कला की दशा-दिशा से वाकिफ हैं और यथास्थिति में बदलाव के पक्षधर हैं I मेरी राय में आज इस बात की अधिक आवश्यकता है कि अपने कला सृजन के साथ-साथ, कला विमर्श की दिशा में भी कलाकारों द्वारा पहल की जाए I – संपादक

 

हमारी (मेरी और मेरे गैलरी संचालक मित्र की) यह एक अनौपचारिक मुलाकात थी । हमेशा की तरह वे बहुत उत्साहित थे। उन्होंने कहा कि हम ख्यात और युवा कलाकारों की कलाकृतियों को आसानी से बेच सकते हैं, और अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा; ऐसा करने के लिए हमें किसी अतिरिक्त प्रयास की भी आवश्यकता नहीं है I एक अवसर पर मैं उनसे कह रहा था कि अगर ख्यात कलाकारों की कलाकृतियों को बेचना ही सब कुछ होता, तो हम अपने ड्राइंग रूम में बैठे-बैठे फोन कॉल के जरिये अपना गैलरी व्यवसाय मज़े से चला सकते थे।

वैसे मेरे मित्र सही थे क्योंकि मैं जानता था कि अपनी बात उन्होंने ईमानदारी से रखी थी, और वे एक सुस्थापित कला व्यवसाय वाले परिवार की दूसरी पीढ़ी से थे। हमारे पास मास्टर्स हैं और हमारे पास युवा समकालीन हैं। जब मैं युवा समकालीन कहता हूँ, तो आप पूछ सकते हैं कि इस श्रेणी में किसे रखा जाना चाहिए । मेरे पास इसका उत्तर है।

दरअसल समकालीन का अर्थ है एक समय में एक साथ, यानी कुछ चीजें जो एक ही समय के ढांचे या संदर्भ में होती हैं। हालाँकि, हमने कला के मामलों में इसकी सीमाओं को थोड़ा बढ़ाया है। कला में इसका मतलब है कि वे कलाकार जिन्हें हमने अपने समय में बढ़ते हुए और हमारे साझा समय के अनुसार सौंदर्यपूर्ण ढंग से अभिव्यक्त करते हुए देखा है। यहाँ यह कलाकार की उम्र से ज़्यादा कलात्मक सौन्दर्य के प्रति उनके उत्साह के बारे में है।

इस आधार पर देखा जाए तो 87 वर्षीय गुलाम मोहम्मद शेख एक समकालीन कलाकार हैं। इसी तरह अविनाश कर्ण या कार्तिक सूद या संतोष सदारक भी, जो अपनी उम्र के तीसवें दशक में हैं। इसका मतलब है कि जो कोई भी समकालीन सौंदर्यशास्त्र का निर्माण करता है या कर सकता है वह एक समकालीन कलाकार है। अब आप ज़रीना हाशमी, अर्पिता सिंह, रणबीर कालेका और कई अन्य को लें। या अनीता दुबे, पुष्पमाला, आयशा अब्राहम, शांतामणि मुद्दैया, रेखा रोडविटिया, सुरेंद्रन नायर, अतुल डोडिया, सुधीर पटवर्धन और ऐसे ही 60 से ज़्यादा उम्र वाले ‘युवा’ कलाकारों को ही लें।

जब हम शिबू नटेसन, टीवी संतोष, रियास कोमू और उन सभी के बारे में बात करते हैं जो अपनी उम्र के पांचवे दशक के मध्य या अंत में हैं, तो वे भी समकालीन हैं।

मेरे गैलरी संचालक मित्र उनमें से किसी के बारे में बात नहीं कर रहे थे। वे उन लोगों के बारे में बात कर रहे थे जो बीच की स्थिति में थे, यानी जिन्हें दोनों क्षेत्रों में प्रवेश से वंचित कर दिया गया था। सौंदर्यशास्त्र की दृष्टि से वे आधुनिकतावाद से संबंधित हैं। और जीवित कलाकार के रूप में वे समकालीन हैं! कैसी दुविधा है! कुछ तो इस दुनिया से फ़ना भी कर गए और अच्छे कलाकार के रूप में पहचाने जाने से भी वंचित रह गए।

एक आशावादी के रूप में मुझे यकीन है कि किसी दिन उन्हें कला चर्चा और कला बाज़ार में वापस लाया जाएगा। लेकिन ऐसा कौन करेगा? कला क्षेत्र के कुछ युवा शोधकर्ता जो ऐसे कलाकारों में रूचि रखते हैं? या क्या वे स्थापित कला इतिहासकार ऐसा करेंगे जिनकी पर्याप्त रूचि इस काम में है? या गैलरी संचालक?

मैं इस परिदृश्य को भली-भांति समझाता हूँ। यदि युवा कला इतिहासकार ऐसे कलाकारों पर काम करना चाहेंगे, तब उनके लिए पर्याप्त वित्तीय संसाधन की समस्या सामने होगी। दूसरी तरफ स्थापित कला इतिहासकार या समीक्षक इसे तभी अपनाएँगे जब उनसे इसके लिए कहा जाएगा और उन्हें पर्याप्त रूप से वित्तपोषण मिलेगा। फिर बारी आती है किसी गैलरी की, तो   वे व्यावसायिक प्रतिष्ठान हैं और उनके लिए लाभ कमाना ज्यादा महत्वपूर्ण है। ऐसे में यदि कला उद्योग के परस्पर जुड़े नेटवर्क द्वारा अगर कोई सामूहिक प्रयास नहीं होते हैं, तो अकेले किसी एक के बूते किये गए प्रयास कोई अपेक्षित परिणाम नहीं दे पायेंगे। अब इस कड़ी के अंत में संग्रहालयों या अर्द्ध संग्रहालयों के वे धनी लोग आते हैं जो बहुत कुछ खरीद सकते हैं और जो कुछ उन्होंने संग्रहित किया है उसके लिए एक विशिष्ट इतिहास बना सकते हैं।

मेरी नज़र में जो सबसे ज्यादा व्यावहारिक विकल्प यही अंतिम वाला है। लेकिन कुछ बातें उनके निष्कर्षों को थोड़ा असत्य बनाती हैं। यह लगभग दावा करने जैसा है कि देखो, हमने बहुत कुछ इकट्ठा कर लिया है, हमने उसका स्टूडियो खरीद लिया है। और ऐसे में अब सुनो, हम जो कहने जा रहे हैं वही अंतिम शब्द है।

यह वाकई निराशाजनक है। किन्तु मेरे पास इसका एक समाधान है। ऐसे संस्थानों में निजी तौर पर काम करने वाले विद्वानों और इतिहासकारों को एक मंच पर लाने के व्यापक प्रयास और कार्यक्रम होने चाहिए। क्योंकि किसी भी ऐसे संस्थान के आंतरिक इतिहासकार और क्यूरेटर हमेशा केवल पूर्वानुमानित प्रदर्शनियों और इतिहास को ही सामने लायेंगे।

परिणामस्वरूप, हम हमेशा अपनी सीमाओं में सीमाबद्ध और पश्चिम की ओर देखने वाले बने रहेंगे।

-जोनी एमएल

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