प्रस्तुत है कला समीक्षक/ कला इतिहासकार जोनी एमएल के उस लेख का हिंदी अनुवाद, जो उन्होंने अपने फेसबुक पेज पर साझा किया है I अपने मूर्धन्य कलाकारों और उनके योगदान का स्मरण आवश्यक है, क्योंकि इस तरह से हमारी आनेवाली पीढ़ी भी उन महान कलाकारों के व्यक्तित्व और कृतित्व से भलीभांति अवगत हो पाती है I लेकिन ऐसे में एक सवाल यह भी कि क्या याद करना सिर्फ उनसे जुड़ी घटनाओं-परिघटनाओं, यादों और संस्मरणों तक केन्द्रित होकर रह जाना चाहिए ? या एक समीक्षक की दृष्टि से भी उनके योगदान को देखा जाना चाहिए I अपने इस लेख में जोनी एमएल समीक्षक वाले इसी दायित्व का निर्वाह करते हुए, उन सभी तथ्यों पर विस्तार से अपना पक्ष रख रहे हैं जो सामान्यतया ऐसे आयोजनों में कम ही देखने को मिलता है I – संपादक
Johny ML
विगत शनिवार 21 जून को, मुझे कुछ वरिष्ठ कला समीक्षकों/ कलाकारों के साथ धूमिमल गैलरी में होना था, जहाँ हम प्रसिद्ध चित्रकार और संस्थान निर्माता जे. स्वामीनाथन को याद करने वाले थे। उस दिन मूसलाधार बारिश होने लगी । मैं लगभग एक घंटे तक एक सार्वजनिक शौचालय की छतरी के नीचे रुका रहा। मेरी जुराबें भीग गयीं थी और कपड़ों पर भी बारिश का असर आ चूका था। बारिश के थमने का यह इंतज़ार मुझे अनंत काल जैसा लग रहा था I आख़िरकार मैं एक घंटे की देरी से गैलरी तक पहुँचा। कार्यक्रम शुरू हो चूका था और हॉल लोगों से खचाखच भरा था। मैंने देखा कि एक कोने में एक वक्ता, कलाकार (स्वामीनाथन) के बारे में अपनी स्मृतियाँ साझा कर रहे थे । गैलरी के एक स्टाफ ने मुझसे पूछा कि क्या मैं भाषण देने के लिए तैयार हूँ? मेरा जवाब था ‘नहीं’ I मैं वहाँ जारी कार्यक्रम के प्रवाह को अवरोधित नहीं करना चाह रहा था I मैंने अपने मोबाइल फोन को ‘एयरप्लेन मोड’ में डाल दिया और पास के मेट्रो स्टेशन की ओर बढ़ गया।
जब भी मुझे किसी व्याख्यान या भाषण के लिए बुलाया जाता है, तो मैं पहले से तैयारी करके जाना पसंद करता हूँ। जब मुझे वरिष्ठ कला समीक्षक और कवि प्रयाग शुक्ल से यह आमंत्रण मिला, तो मैंने उसे खुशी-खुशी स्वीकार कर लिया, और उसके बाद एक सप्ताह तक का समय मैंने जे. स्वामीनाथन के बारे में पढ़ने और अपने उनके प्रति अपने विचारों को अद्यतन करने में बिताया। हालाँकि, जब मैंने आमंत्रण-पत्र देखा तो मैं थोड़ा भ्रमित हुआ। क्योंकि वहां मेरा नाम ‘स्मृतियाँ’ शीर्षक के अंतर्गत उन वरिष्ठ लोगों के साथ छपा था, जो जे. स्वामीनाथन को व्यक्तिगत रूप से जानते थे और उन्हें ‘स्वामी’ या ‘स्वामी जी’ कह कर पुकारने का अधिकार रखते थे। मुझे स्वामीनाथन से मिलने का अवसर कभी नहीं मिला। लेकिन मैं उनके बारे में एक कला इतिहासकार के दृष्टिकोण से बोलने के लिए तैयार था; निश्चित ही कुछ आलोचनात्मक बिंदुओं के साथ। चूंकि मैंने वहाँ भाषण नहीं दिया, इसलिए मैं समझता हूँ कि यहाँ उनके बारे में कुछ शब्द कहना आवश्यक है I ताकि मैं अपनी तरह से स्वामीनाथन के प्रति ‘स्मृति’ प्रस्तुत कर सकूँ।
Dhoomimal Gallery
1980 के दशक के मध्य में, एक युवा कॉलेज छात्र के रूप में, मैंने ‘जे. स्वामीनाथन’ का नाम एक सांस्कृतिक पत्रिका में पढ़ा, जिसे मैं उन दिनों नियमित रूप से पढ़ा करता था। वहाँ एक व्यक्ति की प्रोफ़ाइल वाली तस्वीर थी, जो कुछ हद तक ईसा मसीह जैसी थी और कुछ-कुछ एक ‘स्वामी’ जैसी भी। मैं तुरंत उस व्यक्ति से जुड़ गया, क्योंकि मैं उस छवि की तुलना एरिक क्लैप्टन (गायक), जॉन अब्राहम (फ़िल्म निर्देशक) और बॉब मार्ले (रेग्गे संगीत के राजा) की तस्वीरों से कर चूका था। लेख में लिखा था कि वे शिमला में एक तमिल-ब्राह्मण दंपत्ति के यहाँ पैदा हुए थे। इसके अलावा, लेख में यह भी लिखा था कि वे एक कम्युनिस्ट थे। इस व्यक्ति की सबसे बड़ी उपलब्धि यह थी कि उन्होंने सफलतापूर्वक भोपाल में ‘भारत भवन’ की स्थापना की — जो कलाकारों का एक केंद्र था और जिसमें ‘रूपांकर’ नामक एक कला संग्रहालय भी था। यह 1980 के दशक में भारतीय सांस्कृतिक परिदृश्य में घटित सबसे बड़ी घटनाओं में से एक थी।
स्वामीनाथन अपने लिए एक दृश्यात्मक मुहावरा (visual idiom) तलाश रहे थे, और वे उन पहले से चल चुके रास्तों पर नहीं जाना चाहते थे जो पोस्ट-क्यूबिस्ट एक्सप्रेशनिज़्म के रूप में जाने जाते थे, जिसने कई मायनों में भारतीय आधुनिक कला के स्वर और बनावट को आकार दिया था — जो वैकल्पिक रूप से भारतीय प्रोग्रेसिव आर्ट के रूप में भारत के विभिन्न हिस्सों में अभिव्यक्त होती थी, और जिसका प्रमुख केंद्र मुंबई था। यह वह दौर था जब स्वतंत्रता प्राप्त भारत एक देशज आधुनिकतावादी भाषा या घरेलू रूप से विकसित आधुनिकता (home-grown modernism) की तलाश में था, और दुविधा यह थी कि ऐसे में कलाकार न तो पश्चिम की ओर देख सकते थे और न ही पूर्व की ओर — क्योंकि दोनों ही विभिन्न ऐतिहासिक पड़ावों से गुजरकर थक चुके थे। पश्चिमी मुहावरा, जैसा कि मैंने पहले कहा, भारतीय आधुनिकतावादी भाषा को परिभाषित कर चुका था, और पूर्वी मुहावरा उन कई कलाकारों के लिए सहायक सिद्ध हुआ था; जो 20वीं शताब्दी की शुरुआत में उभरते राष्ट्रवादी भावनाओं के तहत काम कर रहे थे।
उस दौर में ‘देशज आधुनिकता’ (Indigenist Modernism) एक जुनून बन गई, क्योंकि भारतीय कलाकारों और यहां तक कि अत्यधिक प्रसिद्ध पश्चिमी कलाकारों ने भी यह समझा कि, अपनी व्यक्तिगत दृश्यात्मक भाषाएं विकसित करने के लिए, संग्रहालयों में उपलब्ध उपेक्षित संस्कृतियों (subaltern cultures), जातीय कला रूपों (ethnic art forms), और उपनिवेशवादी दोहन (colonial exploits) का ‘शोषण’ किया जा चूका था। भारत ने अपनी ‘आधुनिकता’ को एक शहरी परियोजना (urban project) के रूप में विकसित किया था, जिसका मौलिक रूप से भारत की जनता या उनकी जातीय संस्कृतियों से कोई लेना-देना नहीं था। भारतीय आधुनिकता (modernism) दरअसल एक शहरी परियोजना थी (और आज भी है), जिसमें व्यक्तिगत कलाकार अस्तित्ववादी भटकावों (existential meanderings) में मुख्य पात्र (protagonist) की भूमिका निभाता था। व्यक्तित्व-केंद्रित आधुनिकता (personality-oriented modernism) किसी न किसी रूप में द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के पश्चिमी संसार का प्रतिबिंब बन चुकी थी, क्योंकि ऐसा करके पूर्व उपनिवेशों (former colonies) के कलाकार उन्नीसवीं सदी के अंत के प्रभाववाद (Impressionism) और उत्तर-प्रभाववाद (Post-impressionism) से सीधे एक लंबी छलांग लगाकर विश्व-स्वीकृत पोस्ट-क्यूबिस्ट एक्सप्रेशनिज़्म (post-cubist expressionism) तक पहुँच सकते थे। ऐसे में जो आधुनिकता मुख्यतः पूर्वी सौंदर्यशास्त्र (Eastern aesthetics) पर आधारित थी, वह जल्द ही अकादमियों के हाशिये पर धकेल दी गई, जहाँ उसे ‘भारतीय शैली’ (Indian Style) कहकर संरक्षक भाव से देखा गया, जो वास्तव में ‘राष्ट्रवादी आधुनिकता’ (nationalist modernism) की एक व्युत्पत्ति (derivative) थी।
स्वामीनाथन की एक कलाकृति (सौजन्य : google)
भारतीय स्वतंत्रता के तुरंत बाद, पत्रकार व अनुवादक के रूप में अपनी भूमिका निभा लेने के पश्चात, स्वामीनाथन ने चित्रकला को एक गंभीर साधना के रूप में अपनाने का निश्चय किया। एक बुद्धिमान, स्पष्टभाषी और जानकार व्यक्ति होने के कारण, वे अपने आसपास कलाकारों को एकत्र कर सके और एक कला आंदोलन की शुरुआत की जिसका नाम था ‘ग्रुप 1890’। उन्होंने ‘कॉन्ट्रा’ नामक एक पत्रिका भी प्रकाशित की। यदि कोई ‘ग्रुप 1890’ के घोषणापत्र और स्वामीनाथन द्वारा लिखे गए लेखों को सरसरी तौर पर देखे, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि एक सामूहिक इकाई के रूप में, यह केवल एक आत्मविरोधी प्रयास था, क्योंकि यह समूह राजनीतिक रूप से अनिर्णीत, वैचारिक रूप से ढीला और अन्दर से स्वार्थी था। लेकिन बतौर कला समीक्षक स्वामीनाथन, ऐसी कमियों पर अपनी समीक्षाओं, लेखों और रचनाओं में निर्दयी टिप्पणीकार के रूप में सामने आते हैं। यह विरोधाभास स्वामीनाथन के रचनात्मक जीवन के आरंभिक चरण को परिभाषित करता है। लेकिन वे इस विरोधाभास को छिपाने में सक्षम थे, क्योंकि स्वामीनाथन इसे भली-भांति समझते थे और कभी भी इनकार की स्थिति में नहीं रहे। जैसा कि एक वरिष्ठ कलाकार ने एक बार कहा था: “स्वामीनाथन एक ऐसे कलाकार थे जो अपने बौद्धिक दृष्टिकोण में पूर्णतः स्पष्ट थे और उनके पास दूसरों को बौद्धिक रूप से भ्रमित करने और चुनौती देने की विशेष क्षमता थी।”
स्वामीनाथन का भोपाल जाना, तत्कालीन मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह, रंगमंच कार्यकर्ता बी. वी. कारंथ और कवि-प्रशासनिक अधिकारी अशोक वाजपेयी के समर्थन और सहयोग से संभव हुआ I जहाँ एक संस्था के निर्माण की ज़िम्मेदारी भी थी और साथ ही साथ यह उन वर्षों में उनके द्वारा पोषित ‘स्वदेशी आधुनिकतावाद’ की अवधारणाओं को आज़माने का एक अवसर भी था। स्वामीनाथन की पेंटिंग्स की पृष्ठभूमि कच्चे रंगों (raw color fields ) वाली थीं, जिनमें प्रतीकों और ज्यामितीय संकेतों से अलंकरण किया गया था, जिस कारण गीता कपूर ने पॉल क्ले को उनका प्रमुख प्रेरणास्रोत कहा, हालाँकि तब स्वयं स्वामीनाथन ने इस बात का प्रबल खंडन किया था।
भारत भवन, भोपाल (सौजन्य :google)
स्वदेशी आधुनिकतावाद की स्वामीनाथन की अवधारणा बाद में एक भिन्न रूप लेती है, जब वे मध्यप्रदेश की आदिवासी और लोक दृश्य संस्कृतियों में रुचि लेने लगते हैं। दिलचस्प बात यह है कि स्वामीनाथन ने कभी भी उन शैलीगत स्वरूपों या भाषाओं को नहीं अपनाया, जिन्हें जुटाकर ‘रूपांकर संग्रहालय’ में एक छत के नीचे रखने में सहायक बने। इसके बजाय, वे अपने बचपन की स्मृतियों में लौटते हैं — शिमला और कांगड़ा/पहाड़ी लघुचित्र शैलियाँ — और उन्हें इस सीमा तक सरल-सहज करते हैं कि वे ‘आधुनिक’ बन जाती हैं; पहाड़, चट्टानें, पक्षी, वृक्ष और समतल पृष्ठभूमि, स्वामीनाथन को एक आधुनिक चित्रकार बना सकते हैं, एक ऐसा विशेषण जिसे हिम्मत शाह की आलोचनात्मक दृष्टि का सामना करना पड़ता है, और तब हिम्मत शाह ने कहा था : चूँकि स्वामी अपने कार्यों में काव्यात्मक संकेतों का उपयोग करते हैं, इसलिए उनमें आधुनिक चित्रकला की शक्ति का अभाव है।
स्वामीनाथन के प्रशंसक उन्हें एक घटना के रूप में देखते हैं, एक प्रकार के ‘स्वयम्भू’ की तरह — जो बिना किसी बाह्य कारण के ‘घटित’ हुआ हो। उनकी छवि और आकृति इस तरह की श्रद्धेय प्रस्तुतियों के लिए उपयुक्त थीं, हालाँकि ऐतिहासिक दृष्टि से यह सत्य नहीं है। स्वामीनाथन ने अपनी कलाकृतियों में प्रतीकात्मक अमूर्तन (symbolic abstraction), रंग-क्षेत्र अमूर्तन (color-field abstraction) या यहाँ तक कि ज्यामितीय अमूर्तन (geometric abstraction) को अपनी व्यक्तिगत कोशिशों के परिणामस्वरूप नहीं लाया। ये सब उन परिवर्तनों का हिस्सा थे जो राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सांस्कृतिक क्षेत्रों में उस दौरान घटित हो रहे थे। एक ओर, भारत में और सभी पूर्व उपनिवेशों में, स्वदेशी आधुनिकतावाद की मांग अपने शिखर पर पहुँच चुकी थी, और दूसरी ओर, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर, अमूर्त अभिव्यक्तिवाद (abstract expressionism) को संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा नई अंतरराष्ट्रीय आधुनिक कला या ‘हाई मॉडर्निज़्म’ के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा था।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की स्थिति और अमेरिका तथा सोवियत संघ के बीच विकसित होते शीत युद्ध की पृष्ठभूमि में, मानव समानता और कृषक तथा औद्योगिक श्रमिकों की विजय जैसे समाजवादी विचारों (जैसे कि समाजवादी यथार्थवादी कला में प्रकट होते थे) के विरुद्ध संयुक्त राज्य अमेरिका में एक सुनियोजित अभियान चलाया जा रहा था — उनकी अंतरराष्ट्रीय आर्थिक और सांस्कृतिक नीति का भाग बनकर। संस्कृति से मानवीय तत्व को हटाकर उसकी जगह आध्यात्मिक भटकावों (spiritual meanderings) के अमूर्त विचारों को स्थापित करना इस एजेंडा का प्रमुख उद्देश्य था, ताकि अमेरिका उपभोक्तावादी विचारधारा का प्रचार कर सके और साथ ही साथ सत्ता-विरोधी मानवतावाद (anti-establishmentarian humanism) के उभार को रोक सके।
यह नव अंतरराष्ट्रीयतावाद (new internationalism) नव-स्वतंत्र उपनिवेशों के कलाकारों को आकर्षित करता था और इसने उन्हें अमूर्तन वाले नवाचार (abstract innovations) के लिए बहुत स्वतंत्रता प्रदान की — बिना मानवीय उद्देश्यों के प्रति किसी प्रतिबद्धता के। पॉल क्ले (Paul Klee) का संदर्भ दक्षिण भारतीय ‘अमूर्त अभिव्यक्तिवादी’ (abstract expressionism) कलाकार के.सी.एस. पनिक्कर (K C S Panicker) के मामले में असाधारण रूप से समान दिखाई देता है। लगभग एक ही सांस्कृतिक समय-रेखा (cultural temporality) में, पनिक्कर और स्वामीनाथन दोनों ने ज्यामितीय चिह्नों (geometric notations), गणित (mathematics), संगीत (music) और अपठनीय लिपियों (illegible scripts) से मिली प्रेरणाओं के बारे में बात की। के.सी.एस. पनिक्कर को ‘नव-तांत्रिक कलाकार’ (Neo-Tantric Artist) कहा गया, हालाँकि उनके कार्यों में तांत्रिक तत्व लगभग न के बराबर था। उन्होंने ‘शब्द और प्रतीक’ (Words and Symbols) नामक एक शृंखला बनाई, जिसमें उन्होंने ज्यामितीय चिह्नों, रंग-सतहों (color fields), और अपठनीय लिपियों का प्रयोग किया।
कोई भी स्वामीनाथन को उसी दिशा में आगे बढ़ते हुए देख सकता है — हालाँकि उन्होंने अपनी चित्रकला में उन अपठनीय लिपियों का प्रयोग नहीं किया, किन्तु हम उन्हें आदिवासी कलाकारों को उनकी पहली कोशिशों में ऐसी एक अपठनीय लिपि — एक प्रकार की चित्र-लिपि (pictograms) — बनाने के लिए प्रोत्साहित करते हुए देख सकते हैं। इसके अतिरिक्त, स्वामीनाथन और पनिक्कर — दोनों ने छवियों को न्यूनतम संकेतों (minimal suggestions) तक सीमित करने की दिशा में बढ़ना शुरू किया। जहाँ स्वामीनाथन पीले और लाल रंगों तक सीमित रहे, वहीँ पनिक्कर ने मद्धम रंगों की अनेक छायाओं के साथ प्रयोग करना जारी रखा।
स्वामीनाथन आदिवासी कलाकारों और ‘आधुनिक कलाकारों’ को एक ही छत के नीचे देखना चाहते थे, हालाँकि अधिकांश सह-कलाकारों का मानना था कि भले ही उनकी मंशा अच्छी थी, लेकिन उन्हें (आदिवासी कलाकारों को) शहरी-केंद्रित आधुनिक कलाकारों के स्तर तक उठाना एक ऐतिहासिक भ्रांति (historical fallacy) होगी। यहाँ प्रश्न यह है: क्या स्वामीनाथन आदिवासी और आधुनिक कलाकारों को एक ही मंच पर लाने के विचार में सही थे? मेरे विचार में, यह कभी भी सही नहीं था। आदिवासी और लोक कलाकारों का सामान्य जीवन में प्रशिक्षित-शहरी-आधुनिक कलाकारों के साथ एक ही समय-कालिक स्थान (temporal space) साझा करना, समानता के आधार (equity plank) के रूप में नहीं लिया जा सकता।
स्वामीनाथन की एक अन्य कलाकृति (सौजन्य : google)
उनके अनुभवजन्य संसार (experiential worlds) और अभिव्यक्तिपरक माध्यम (expressive modes) अलग हैं। उनकी सामाजिक-सांस्कृतिक स्थिति को ऊपर उठाने की मंशा अच्छी थी, और स्वामीनाथन ने इस उद्देश्य को हासिल भी किया, जैसा कि हम आज देखते हैं कि कई लोक और आदिवासी कलाकार अपने रचनात्मक कार्यों से अच्छी कमाई कर रहे हैं। हालाँकि, मैं इसे ‘लोक-शोषण कला’ (folkploitation art) कहता हूँ, जो कि स्वामीनाथन की कल्पना से बिल्कुल विपरीत है। इन कलाकारों को अपनी इच्छानुसार पैसा ज़रूर मिलता है, लेकिन वे कभी भी ‘समकालीन कलाकार’ (contemporary artists) के रूप में समान अधिकार के साथ कला परिदृश्य (art scene) में स्थापित नहीं हो पाते।
निश्चित ही, स्वामीनाथन एक संस्थान-निर्माता (institution builder) थे और वे समान रूप से अपनी स्वयं की एक शैली या ‘स्कूल’ स्थापित करना चाहते थे, जिसमें वे सफल भी हुए। स्वामीनाथन ने अमूर्तन (abstraction) की एक शैली (school) स्थापित की, संभवतः उनका अमूर्तन के प्रति झुकाव उनकी प्रतिक्रियावादी दृष्टिकोण (reactionary approach) से आया, उन सभी बातों के प्रति जिन पर उन्होंने अपने रचनात्मक जीवन के पहले चरण में विश्वास किया था; वे पहले समाजवादी कांग्रेस (Socialist Congress) और फिर कम्युनिस्ट विचारधारा पर विश्वास रखते थे। फिर उन्हें इन दोनों के पतन (degeneration) से हताशा हुई। इसका प्रतिक्रम था — मानव विषयवस्तु (human content) के विचार को समान अधिकार और न्याय के प्रतीक के रूप में पूर्णतः अस्वीकार कर देना। उन्होंने अपने चित्रों (कलाकृतियों) से मानव आकृति (human image) को हटा दिया और उसकी जगह (हिंदू) दार्शनिक शब्दावली (philosophical jargons) को एक अंतरराष्ट्रीय आधुनिक कलाकार की बुद्धिमत्ता के साथ भर दिया। लेकिन उनके भीतर निहित समान अधिकार और न्याय (equal rights and justice) के विचार के प्रति प्रेम बचा रहा, और उन्होंने वही अधिकार आदिवासी और लोक कलाकारों के लिए भी माँगे। और सबसे ऊपर, उन्होंने मध्य प्रदेश को अमूर्त कलाकारों (abstract artists) का प्रदेश बना दिया !