यूं तो बाबा कबीर सदियों पहले कह चुके हैं -“निंदक नियरे राखिये। लेकिन सच तो यह है कि निंदा या आलोचना शायद ही कोई सुनना चाहता हो। किन्तु इन सबके बावजूद कला एवं साहित्य में आलोचना का चलन तो है ही। जाहिर है ऐसे में किसी कला समीक्षक या आलोचक के लिए, समीक्षा लिखना जोखिम का पर्याय बन जाता है। और बहुधा कला समीक्षक इससे बचने के प्रयास में अपनी कला समीक्षा के साथ न्याय नहीं कर पाते हैं। किन्तु जोनी एम एल जैसे कुछ लेखक इन जोखिमों से बेपरवाह अपनी धारदार लेखन के लिए जाने जाते हैं। यहाँ प्रस्तुत है उनका यह आलेख, जो मौजूदा कला परिदृश्य की कड़वी सच्चाईयों को उजागर करते हुए; कुछ सोचने समझने को विवश भी करता है।
– मॉडरेटर
मुझे कला प्रदर्शनी के उद्घाटन में भाग लेने का निमंत्रण मिला है। ऐसे निमंत्रण मेरे पास व्यक्तिगत फ़ोन कॉल सहित विभिन्न माध्यमों से आते रहते हैं। किन्तु मैं इन दिनों प्रदर्शनी के उद्घाटनों में मुश्किल से ही शामिल होता हूँ । ऐसे में मैं अपने आप से पूछता हूं कि कला कार्यक्रमों में भाग लेने के प्रति मेरी इतनी उदासीनता क्यों हो गई है? ये समाजीकरण और नेटवर्किंग के मंच हैं। और विडंबना यह है कि जब भी मैं कोई प्रदर्शनी क्यूरेट करता हूं तो उम्मीद करता हूं कि लोग बड़ी संख्या में उद्घाटन समारोह में शामिल होने के लिए आएं। यदि वे भी किसी उद्घाटन के प्रति उदासीन हो गये तो परिणाम क्या होगा? वीरान दीर्घाएँ और फीके उद्घाटन समारोह। जाहिर है कोई भी कलाकार इसे पसंद नहीं करेगा, कोई भी दीर्घा संचालक यह नहीं चाहेगा कि उसकी गैलरी में प्रदर्शनी की शुरूआत सन्नाटे के साथ हो।
हाल ही में, एक वरिष्ठ कला समीक्षक ने मुझसे कहा कि मैं अब अपने ब्लॉग पर पोस्ट क्यों नहीं करता। क्या कोई रचनात्मक अवरोध? उसने पूछा। मैंने ऐसी स्थिति के बारे में कभी नहीं सोचा था, हालांकि पहले भी मैं ऐसे दौर से गुजरा हूं जब शब्दों से दूरियां बन गई थी। अलबत्ता अब मैं खुद को उस स्थिति में नहीं पाता, अब मुझे एक सादा कागज का पन्ना या माइक्रोसॉफ्ट वर्ड के पेज की आवश्यकता है ताकि मैं बिना रुके अपने विचारों को दर्ज कर सकूं। यह कहने में मेरा कोई अहंकार नहीं है, क्योंकि अपने दैनिक प्रशिक्षण से मैंने यह सब हासिल किया हैै। फिर भी आजकल मैं उतना नहीं लिखता। क्या यह किसी प्रकार की सुस्ती है? क्या अब मुझे अपने उमड़ते-घुमड़ते विचारों को व्यक्त करने की आवश्यकता महसूस नहीं होती?
मैं चाहता हूं कि मेरा लेखन स्पष्ट और बिल्कुल स्पष्ट हो। एक पाठक को न केवल आपके शब्द या शब्दों तक, बल्कि उसके कथ्य तक भी आसान पहुंच होनी चाहिए। मेरे लेखन से किसी को ऐसा नहीं लगना चाहिए जैसे कि वह भित्तिचित्रों और वाक्पटुता से भरी एक मोटी और ऊंची कंक्रीट की दीवार के सामने खड़ा हो। किसी चीज तक आसान पहुंच एक बहुत ही गलत अवधारणा है। ज्यादातर लोग सोचते हैं कि आसानी से उपलब्ध चीजें कम मूल्यवान होती हैं। ऐसे में आप किसी चीज़ को इतना जटिल बना देते हैं कि उस तक पहुंच होना ही लोगों को आश्चर्य में डाल देती है। तब आपके शब्द और विचार किसी मजबूत किले में बंद मशहूर हस्तियों तथा विशिष्ट जनों की तरह हो जाते हैं। जो कभी-कभार अपने असहाय प्रशंसकों की ओर हाथ हिलाने के लिए बाहर आते हैं, और तब वे प्रशंसक उन्हें चेहरे पर चौड़ी मुस्कान के साथ बाँहें फैलाए हुए देखकर खुशी से चीख पड़ते हैं।
सच तो यह है कि मैं आजकल इसलिए नहीं लिखता क्योंकि मुझे उतनी अच्छी कला देखने को नहीं मिलती। मैं लंबे समय तक किसी भी विषय पर लिखता रह सकता हूं । लेकिन जब बात कला की आए तो उसपर या उसके बारे में लिखना मेरे लिए दुनिया की सबसे आनंददायक बात हो जाती है। जो कलाकार सड़कछाप विचारों, बचकाने तर्कों और कला की हत्या कर देने जैसी शैलियों के साथ आते हैं, उनकी कला के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता है, कुछ नहीं लिखा जा सकता। इसलिए मैं शांत रहता हूँ, मैं दीर्घाओं के सामने से जब गुजरता हूँ, तब उधर की तरफ नज़र डालने से भी बचता हूँ। वे मुझे किसी मूर्खता की तरह दिखते हैं जिन्हें मोड़ पर लावारिस खड़ा कर जंग लगने के लिए छोड़ दिया जाता है। मुझे लगता है कि ऐसे निराशाजनक दृश्यों से आँखें फेर ही लेनी चाहिए।
जब भी निमंत्रण पत्रों पर कलाकारों के नाम छपे देखता हूँ तो वे अजीब और अपरिचित से लगते हैं। सच है, मैं उनमें से अधिकांश को नहीं जानता। मुझे वह समय अच्छी तरह से याद है जब मुझे युवा कलाकारों का काम देखने के लिए विभिन्न स्थानों और स्टूडियो की यात्रा में कठिनाईयों का सामना तक करना पड़ता था। वह समय चला गया और उस समय कलाकारों पर जो चिंताएं हावी थीं, वे भी अतीत की बात हो गई हैं । आज कलाकारों की चिंताएं अलग-अलग हैं। वे प्रमुख प्रदर्शनियों और अंतर्राष्ट्रीय मेलों का हिस्सा बनना चाहते हैं। वे अंतरराष्ट्रीय आर्ट रेजिडेन्सी और कला शिविरों में भाग लेते रहना चाहते हैं। वे अपनी कलाकृतियों के साथ एक अलग दुनिया में रहना चाहते हैं। वे अपनी कला में क्या संबोधित करते हैं या कहना चाहते हैं, मैं खुद से पूछता हूं और मुझे कोई जवाब नहीं मिलता। मैंने कई जगहों से सुना है कि आज के युवा भी प्रवासन, पर्यावरणीय संकट, युद्ध, गरीबी, मानवीय पीड़ा और अन्याय जैसे मुद्दों को अपनी कलाकृतियों का विषय बनाते हैं। इस अर्थ में वे हमारी पीढ़ी से अलग नहीं हैं।
फिर वे कहाँ और कैसे अलग हैं? मेरे पास इसका कोई स्पष्ट उत्तर नहीं है। वे युवा कलाकार जिनकी निजी प्रतिष्ठानों द्वारा सराहना की जाती है, जो भारत और अन्य जगहों पर कला परिदृश्य पर लगभग एकाधिकार रखते हैं, खुद को एक नई भाषा और दृष्टिकोण के साथ नए युग के मसीहा के रूप में अपने आप को पेश करते हैं। वे नई सामग्रियों और समसामयिक तकनीकों का उपयोग करते हैं। हो सकता है कि मैं इस नई प्रौद्योगिकी को व्यावहारिक अर्थों में समझने के लिए बहुत बूढ़ा हो गया हूं, लेकिन मैं समकालीन मानव जीवन में उनके प्रभावों और अतीत को समझने और भविष्य को आकार देने में उनके प्रभाव को समझता हूं। लेकिन मुझे समझ नहीं आता कि वे किस भाषा का प्रयोग करते हैं। दरअसल वे बहुत कमजोर हैं और केवल इसलिए तनकर खड़े हैं क्योंकि उनके चारों ओर शब्दों के कवच और मचान हैं। जो उन्हें कुछ इस तरह से सहारा दिए हुए है, जैसे कोई अधकचरा वास्तुविद किसी टुटे-फूटे मकान को जोड़तोड़ कर खड़ा रखे हुए हो।
मैं उनके लिए अजनबी हूं। हालांकि मैं उन अंतर्राष्ट्रीय पेशेवर कला समीक्षकों की तरह, इन छिछले कार्यों का गहराई से विश्लेषण कर उन पर गर्व कर सकता हूँ। मैं उन्हें इंस्टाग्राम पर नियमित रूप से पोस्ट कर सकता हूं और फॉलोअर्स भी जुटा सकता हूं। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर अधिक फॉलोअर्स होने और खुद को एक प्रभावशाली व्यक्ति बनाने में कोई समस्या नहीं है। लेकिन जब मैं इसके बारे में सोचता हूं तब एक तरह की अर्थहीनता की भावना मुझ पर हावी हो जाती है। सवाल आता है कि मैं उन चीजों को क्यों देखूं जो वहां हैं ही नहीं? जब वे पढ़ने लायक ही नहीं हैं तो मुझे क्यों उसे ज्यादा से ज़्यादा पढ़नी चाहिए? हो सकता है कि इस तरह की कलाकृतियों को निहारने से आपको अपनी श्रेष्ठता का अहसास या संभ्रांत बन जाने का बोध भी हो, लेकिन यह श्रेष्ठता बोध या अहंकार हमेशा अच्छा हो यह जरूरी नहीं। क्योंकि इस तरह से आप धीरे-धीरे और लगातार झूठे बनते चले जाते हैं।
एक बार मैं महिला कलाकारों के एक कला शिविर में गया। मैंने वहां उन कलाकृतियों को देखा जो जल्दबाजी में रचे गये थे क्योंकि यह एक दिवसीय कला शिविर था। उनमें से अधिकांश ने ऐसी चित्र रचनाएं कीं जिनसे कोई आश्चर्य नहीं हुआ। वही योनियाँ, गर्भ, रक्त, पक्षियों का घोंसला, अंडे, बिखरे हुए पैर, रसोई के बर्तन इत्यादि। मैंने सोचा, रूढ़िवादी छवि के अलावा उनके पास कोई अन्य अपनी आत्म-छवि क्यों नहीं है। लिंडा नॉचलिन और उनके जैसे अन्य नारीवादी सिद्धांतकारों ने महिला शरीर को पुरूष इच्छाओं और अधिकारिता के चंगुल से मुक्त कराने की बात की थी। यह लगभग साठ वर्ष पुरानी बात है। तब से दुनिया काफी बदल गई है। आप कब तक महिला की योनि से रक्त और आंखों से आंसुओं को बहाते हुए एक ही चीज़ करते रहेंगे?
मैं यह प्रश्न अपने आप से पूछता हूं। नए माध्यमों और सामग्रियों में वही पुरानी बात कहने का क्या मतलब है? क्या खुद को देखने और मापने का कोई अलग लेंस, अलग नजरिया और अलग पैमाना नहीं हो सकता? अगर मैं कोई बात कहूंगा तो मुझे स्त्रीद्वेषी और पुरुष सत्ता का पक्षधर कहा जाएगा। यह सिर्फ महिला कलाकारों के बारे में नहीं है, यह हरेक कलाकार के बारे में है। वैसे जब आप सच कहते हैं, तो वे आपकी निन्दा करते हैं। ऐसे में बेहतर होगा कि मौन धारण किए रहा जाए…