अपने अराध्य की जन्मभूमि का दर्शन -1

पिछले महीने यानी 15-16 अप्रैल को सिताब दियारा में भोजपुरी समागम का आयोजन हुआ था। जिसमें अन्य विषयों पर चर्चा के साथ-साथ भोजपुरी लोक चित्रकला पर भी वार्ता आयोजित की गयी थी। जिसमें मुख्य वक्ता के तौर पर बिहार म्यूजियम, पटना के अपर निदेशक अशोक कुमार सिन्हा को आमंत्रित किया गया था। पटना से सिताब दियारा तक की इस अविस्मरणीय यात्रा को अपने संस्मरण में पिरोया है अशोक सिन्हा जी ने। आलेखन डॉट इन के सुधि पाठकों की सुविधा को देखते हुए इसे चार हिस्सों में प्रस्तुत करना पड़ रहा है। प्रस्तुत है इस यात्रा वृतांत का पहला भाग …………………….-मॉडरेटर

Ashok Kumar Sinha

जयप्रकाश शताब्दी वर्ष चल रहा था। कभी जयप्रकाश के सहयोगी रहे सुख्यात गाँधीवादी डा. रामजी सिंह की पहल पर पटना के कदमकुआँ में एक विचार गोष्ठी आयोजित थी। उस गोष्ठी में आचार्य राममूर्ति समेत कई अन्य लोग उपस्थित थे। मुझे उस वक्ता का नाम तो ठीक से स्मरण नहीं, लेकिन किसी ने अपने संबोधन के क्रम में यह कहा था कि लोकनायक जयप्रकाश (जे.पी.) के व्यक्तित्व-निर्माण में उनकी जन्मभूमि सिताब दियारा का बहुत बड़ा योगदान रहा है। अपने संबोधन में उन्होंने कहा था कि जयप्रकाश को छठे वर्ग तक की शिक्षा अपने गाँव सिताब दियारा (सारण) में मिली थी। उन दिनों उनके गाँव में प्रत्येक वर्ष बाढ़ आती थी। सब कुछ बरबाद हो जाता था। किन्तु वहाँ के लोग पुनः सब कुछ संवार लेते थे। उनमें संघर्ष से जूझते रहने और आत्मविश्वास की जो भावना थी, उसने जयप्रकाश के हृदय में कभी नैराश्य नहीं आने दिया। उनके जीवन में उतार-चढ़ाव आते रहे। लेकिन बचपन के उस अवदान के सहारे वे देश की जनता के लिए, उसकी बेहतरी के लिए नयी राह का अनुसंधान करते रहे। उस वक्ता की यह बात मेरे अन्तर्मन को छू गई थी और उसी क्षण मैंने यह तय कर लिया था कि किसी दिन समय निकालकर अपने अराध्य जयप्रकाश की जन्मभूमि का दर्शन जरूर करूँगा। कई मर्तबे वहाँ जाने का प्रोग्राम भी बना, लेकिन किसी न किसी कारणवश वह टलता रहा। इसी क्रम में लगभग बाइस वर्ष गुजर गए। यह बात मुझे हरदम कचोटती रहती थी।

भोजपुरी भाषा और संस्कृति के सरंक्षण के लिए प्रयासरत जयप्रकाश विश्वविद्यालय, छपरा के अवकाश प्राप्त प्रोफेसर पृथ्वी राज सिंह से मेरा पुराना परिचय रहा है। एक दिन फोन पर उन्होंने जानकारी दी कि जयप्रकाश की जन्मभूमि सिताब दियारा में 15-16 अप्रैल, 2023 को उन्होंने ‘‘भोजपुरी समागम“ का आयोजन किया है और उसमें भोजपुरी कला पर विचार गोष्ठी भी होगी। वे उस गोष्ठी में वक्ता के तौर पर मेरी उपस्थिति चाह रहे थे। जयप्रकाश की जन्मभूमि के दर्शन की वर्षो पुरानी मेरी इच्छा बलवती हो उठी और मैंने ’हाँ’ कहने में तनिक भर भी देरी नहीं की। उस गोष्ठी में पटना से कला लेखक सुमन कुमार सिंह और वरिष्ठ फोटोग्राफर शैलेन्द्र कुमार को भी आमंत्रित किया गया था। उनसे बात हुई। फिर तय हुआ कि हम सब एक साथ चलेंगे।

नियत तारीख यानि 15 अप्रैल, 2023 को सुबह 08 बजे अपनी गाड़ी में बैठकर हमलोग पटना से निकल पड़े। जयप्रकाश की जन्मभूमि जाने की इच्छा कितने सालों बाद आज पूर्ण हो रही है, यह महसूस कर ही मेरा मन रोमांचित था। शुरूआत में इधर-उधर का गपशप और हँसी-मजाक होता रहा। फिर जयप्रकाश आन्दोलन पर चर्चा चल पड़ी। सुमन सिंह बेगूसराय में जयप्रकाश जी के आगमन का आँखों देखा ब्यौरा सुना रहे थे, वहीं शैलेन्द्र कुमार छात्र-आन्दोलन में अपनी भागीदारी का जिक्र कर रहे थे। उनके संस्मरण सुन-सुनकर उस आन्दोलन की वे सारी घटनाएँ मेरे स्मृति पटल पर तैरने लगी, जिन्हें मैंने किशोरावस्था में देखा और महसूस किया था। मै भी अपने रौ में बोलता चला गया। तब मेरी उम्र बारह वर्ष की रही होगी। भ्रष्टाचार, बेरोजगारी तथा शिक्षा में सुधार जैसे मुद्दों को लेकर जयप्रकाश आन्दोलन जोरों पर था। जयप्रकाश जी का नेतृत्व दिनों दिन परवान चढ़ रहा था। उस दौर में जनता पागलपन की हद तक जे. पी. को प्यार करती थी, उन्हें देखने के लिए उमड़ पड़ती थी। जयप्रकाश धीरे-धीरे बापू के पयार्य होते जा रहे थे। उसी दौर में 04 नवंबर, 1974 को पटना के आयकर चैराहे के समीप जयप्रकाश जी को पहली बार देखा था, जब वे एक जुलूस का नेतृत्व करते हुए वहाँ से गुजर रहे थे। कोई प्रचार नहीं, कोई बुलाहट नहीं, पर पूरा पटना उन्हें देखने के लिए उमड़ पड़ा था। यह उनका वृद्धावस्था का समय था। फिर भी विस्मित कर देने वाली एक अपूर्व शोभा उनके वृद्ध शरीर में थी। छरहरी कद-काठी, साफा बांधे, अलीगढ़ी पायजामें में, कंधे पर गमछा। फिर दूसरी बार आपातकाल की समाप्ति के बाद 1977 के जनवरी माह में गाँधी मैदान, पटना की महती सभा में उन्हें देखा और सुना था। उस दिन पहली बार गाँधी मैदान लोगों से भरा था। वहाँ तिल रखने की भी जगह नहीं थी। छात्र, युवक, बूढ़े, बच्चे, बूढ़ी स्त्रियाँ, घूँघट ओढ़े खड़ी दुल्हने, बच्चियाँ………..। यहाँ तक कि पटना मेडिकल काॅलेज अस्पताल में इलाजरत कई मरीज भी स्ट्रेचर पर लदे हुए वहाँ पहुँचे थे। मानों अपने अराध्य का दर्शन कर अपने जीवन को सफल बनाना चाहते हों। उस सभा में फणीश्वर नाथ रेणु ने राष्ट्रकवि दिनकर की इस गीत को स्वागत या आहवान की तरह गाया था-

फणीश्वर नाथ रेणु
कहते हैं उसको जयप्रकाश,
जो नहीं मरण से डरता है,
ज्वाला को बुझते देख कुण्ड में,
स्वयं कूद जो पड़ता है।
है जयप्रकाश वह,
जो कि पंगु का चरण,
मूक की भाषा है,
है जयप्रकाश वह,
टिकी हुई जिसपर
स्वदेश की आशा है।

छात्र आन्दोलन के किस्से और संस्मरण खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहे थे। अगर गाड़ी जाम के वजह से रूक न गयी होती तो शायद कुछ देर तक और हमलोग संस्मरणों में खोये रहते। डेढ़ घंटे की यात्रा संपन्न हो चुकी थी और हमलोग छपरा से पहले डोरीगंज के समीप थे। दोनो तरफ बालू से लदे ट्रकों एवं ट्रैक्टरों की बेतरकीब पार्किंग के चलते सामने लम्बा जाम लगा हुआ था। हमारी गाड़ी धीरे-धीरे रेंगती रही। करीब आधे घंटे की कड़ी मशक्कत के बाद उस जाम से मुक्ति मिली। छपरा शहर होते हुए हम मांझी घाट पहुँच चुके थे।

मांझी घाट से दूसरी तरफ मांझी रेल पुल दिखाई पड़ रहा था। उसे देखकर मुझे सहसा साहित्य अकादमी और ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि केदारनाथ सिंह का स्मरण हो आया। बताते चलें कि केदारनाथ सिंह का जन्म मांझी पुल से कुछ दूरी पर अवस्थित बलिया (उत्तर प्रदेश) जिले के चकिया गाँव में हुआ था। पटना से उनका गहरा लगाव था। उनका प्रेम और स्नेह मुझे भी बराबर मिलता रहा था। वे जब कभी भी पटना आते थे, मेरे घर पर ही ठहरना पसंद करते थे। कभी-कभार वे शाम की बैठकी में अपने श्रुति-मधुर स्वर में अपनी पसंदीदा कविताओं का पाठ भी करते थे। उन्होंने एक बार मांझी पुल पर लिखी अपनी चर्चित कविता की कुछ पंक्तियाँ भी मुझे सुनायी थी, जो कुछ इस प्रकार हैं-

वह कब बना था
कोई नहीं जानता
किसने बनाया था मांझी का पुल
यह सवाल मेरी बस्ती के लोगों को
अब भी परेशां करता है
‘तुम्हारे जन्म से पहले’ –
कहती थीं दादी
‘जब दिन में रात हुई थी
उससे भी पहले’
कहता है गाँव का बूढ़ा चौकीदार।

श्रद्धेय केदारजी के मुख से सुनी उन कविताओं को ‘रिकार्ड‘ न कर पाने का मुझे आज तक अफसोस है।

-अशोक कुमार सिन्हा

E mail : aksinhajdi@gmail.com

जारी ….

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