अशोक कुमार सिन्हा के यात्रा वृतांत के पिछले भाग में आपने पढ़ा- (लोकनायक को पूर्ण रूप से समझने के लिए उक्त घटना को जानना-समझना आवश्यक है। घटना कुछ इस प्रकार थी- जयप्रकाश और प्रभावती की शादी बहुत कम ही उम्र में हो गई थी। शादी के कुछ महीने बाद ही जयप्रकाश उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका चले गये और प्रभावती गाँधी के साबरमती आश्रम में। जयप्रकाश का व्यक्तित्व-निर्माण अमेरिका में हो रहा था, वहीं प्रभावती का चरित्र-निर्माण गाँधी जी की छत्रछाया में। गाँधी जी के प्रभाव में आकर प्रभावती ने ब्रहाचर्य पालन की प्रतिज्ञा ले ली थी। जयप्रकाश उससे अनजान थे।) इससे आगे का वर्णन कुछ यूं है ….
जयप्रकाश जब अमेरिका से 1929 में वापस लौटे, सिताब दियारा में बहुत बड़ा जलसा आयोजित हुआ। उस समय प्रभावती गाँधी जी के साथ उतर प्रदेश के दौरे पर थीं। गाँधी जी ने प्रभावती को सिताब दियारा भेज दिया। लगभग एक माह तक सिताब दियारा में रहने के बाद जे.पी. और प्रभावती गाँधी से मिलने वर्धा पहुँचे। गाँधी जी से लोकनायक की यह पहली मुलाकात थी। वर्धा में कस्तूरबा और गाँधी ने जयप्रकाश के स्वागत की व्यापक तैयारी की थी, बिल्कुल दामाद की तरह। लेकिन जयप्रकाश के मन में गाँधी जी के प्रति आक्रोश था क्योंकि उनका मानना था कि प्रभावती को ब्रहाचर्य व्रत दिलाने में कहीं न कहीं गाँधी जी का हाथ है। जयप्रकाश के गुस्से का आभास गाँधी जी को भी हो चुका था। एक दिन गाँधी जी ने जे.पी. से माफी मांगी और कहा, ‘‘प्रभावती ने बड़ी कठिन प्रतिज्ञा ले ली है, टस से मस नही हो रही है। कहो, जयप्रकाश क्या किया जाए ? यह तो मानती ही नहीं है।‘‘
जवाब में जे.पी. फूट-फूट कर रोए। फिर बोले, ‘‘आप क्या सोचते हैं कि मैं दूसरी शादी करूँगा। इस जन्म में तो प्रभावती को छोड़कर दूसरी कोई मेरी पत्नी बन ही नहीं सकती। भारत में आज तक पत्नी पति के व्रत में शामिल होती रही हैं, अब आप देखेंगे कि पत्नी के व्रत में जयप्रकाश शामिल है।” गाँधी जी काफी देर तक जयप्रकाश का चेहरा निहारते रह गये थे। इस घटना के बाद जयप्रकाश के लिए व्यक्तिगत सुख, सामाजिक प्रतिष्ठा और ऐश्वर्य- भोग तुच्छ हो गया। देश-सेवा के श्रेष्ठतम आदर्श की प्राप्ति ही उनका लक्ष्य बन गया था।
लोकनायक के घर की परिक्रमा के बाद जयप्रकाश स्मारक में प्रवेश करते हैं। आधुनिक ढंग से निर्मित भव्य स्मारक के बाहर मे लगे शिलापट्ट से यह पता चल रहा था कि इस भवन का शिलान्यास पूर्व प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर ने 30 मई, 1985 को किया था और उसका उद्घाटन कर्नाटक के मुख्यमंत्री रामकृष्ण हेगडे़ ने लोकनायक के जन्म दिवस के अवसर पर 11 अक्टूबर, 1985 को किया था। स्मारक के अंदर की परिक्रमा करता हूँ। चारों तरफ की दीवारों पर जयप्रकाश के जीवन काल की प्रमुख घटनाओं को फाटोग्राफ्स के माध्यम से दर्शाया गया है। जयप्रकाश द्वारा समय-समय पर विभिन्न नेताओं, संस्थाओं को लिखे गए पत्र भी यहाँ प्रदर्शित हैं हैं। उनका अवलोकन करते हुए मै कुछ क्षणों के लिए उस समय की स्थितियों-परिस्थितियों की कल्पना में खो गया। शाम के 5 बजने वाले थे। 5 बजे से हमारी गोष्ठी का समय निर्धारित है। यह सोचकर हम वहाँ से सिताब दियारा के लिए निकल पड़े।
लोकनायक स्मृति भवन-सह-पुस्तकालय के एक बड़े हाॅल में भोजपुरी लोक चित्रकला पर आयोजित गोष्ठी में मेरे संग-संग अरविन्द ओझा, कला-लेखक सुमन कुमार सिंह, साधना राणा और आर्ट फोटोग्राफर शैलेन्द्र कुमार भी वक्ता के रूप में शामिल थे। श्रोता भी बड़ी संख्या में उपस्थित थे। लगभग एक घंटे तक विचार-परिर्वतन का दौर चला। बीच-बीच में तालियाँ भी बजती रहीं। सर्वप्रथम सुमन कुमार सिंह ने बिहार की लोककलाओं के विकास में मेंरे योगदान की चर्चा करते हुए भोजपुरी लोक चित्रकला की वर्तमान दशा-दिशा का चित्रण प्रस्तुत किया। तत्पश्चात भोजपुरी में दिये गए अपने संबोधन में मैंने मधुबनी चित्रकला, मंजूषा चित्रकला के साथ-साथ भोजपुरी चित्रकला के इतिहास पर प्रकाश डाला और उपेन्द्र महारथी षिल्प अनुसंधान संस्थान के निदेशक के तौर पर अपने कार्यकाल में भोजपुरी चित्रकला को राज्य सरकार के विभिन्न आयोजनों में शामिल करवाने के अपने प्रयास का उल्लेख किया। अरविन्द ओझा ने बेहतर समाज के निर्माण में कला की भूमिका पर व्याख्यान देते हुए लोकनायक जयप्रकाश राष्ट्रीय कला एवं संस्कृति प्रतिष्ठान, नयी दिल्ली के योगदान का उल्लेख किया। गोष्ठी को साधना राणा एवं आयोजक पृथ्वी राज सिंह ने भी संबोधित किया। कार्यक्रम के अंत में शैलेन्द्र कुमार सिंह ने धन्यवाद ज्ञापित किया। घड़ी की ओर निगाह दौड़ाई, शाम को 6ः30 बज रहे थे। सर्वसम्मत राय बनी कि पटना लौट चला जाए। आयोजको का अनुरोध हुआ कि प्रस्थान के पूर्व अतिथि-कक्ष में बैठकर चाय का आनंद ले लिया जाए।
अतिथि-कक्ष में पहले से चार-पाँच लोग बैठे हुए थे। वेष-भूषा से स्थानीय लग रहे थे। मैंने उनका परिचय पूछा, तो मेरा अनुमान सही निकला। चाय आने में कुछ देर थी। इसलिए मैं उनसे अनौपचारिक होने का प्रयास करता हूँ। बात छेड़ते हुए मैं उनसे जयप्रकाश के जीवन काल की घटनाओं को जानना चाहता हूँ। वहाँ पर गरीबा टोला के अरविन्द कुमार सिंह नामक एक उत्साही कार्यकर्ता बैठे हुए थे। अरविन्द कुमार सिंह कहने लगे कि आप जिस पक्की सड़क से होकर यहाँ पहुँचे है, वह श्रमदान से बनी थी। भूदान के समय विनोबा को लेकर जे.पी. यहाँ आये थे और गाँव-गाँव घूमे थे। उसी समय जयप्रकाश ने श्रमदान से वह रोड बनवाया था। मैं उनकी बातों में रूचि लेता हूँ तो वह और आगे बढ़ते हैं। जयप्रकाश जब तक जीवित थे, उनकी पहल पर सिताब दियारा में प्रत्येक वर्ष 12 फरवरी को एक बहुत बड़ा मेला लगता था। उस मेले के आयोजन के पीछे जयप्रकाश की ग्राम स्वराज्य की परिकल्पना थी। उस मेले में देश के विभिन्न राज्यों के किसान अपने-अपने उत्पादों के साथ शामिल होते थे। उस समय सिताब दियारा की शान थी शान। वहाँ बैठे अन्य लोग भी उनकी ‘‘हाँ‘‘ में ‘‘हाँ‘‘ मिलाते हुए कहने लगे कि लोकनायक जयप्रकाश जैसे महामानव के गाँव में पैदा होना, उन्हें देखना, उनसे बातें करना हमलोगों के लिए गौरव की बात है। इसलिए हमलोग खुद को खुशकिस्मत और भाग्यशाली मानते हैं। तब तक चाय आ चुकी थी। गरमा-गरम चाय पीकर मन तृप्त हो उठा। फिर पृथ्वी राज सिंह और अन्य लोगों से पुनः मिलने का वादा कर हम अपनी गाड़ी में बैठकर पटना के लिए निकल पड़े।
मैं सिताब दियारा में ज्यादा देर तक नहीं ठहर सका। दोपहर में पहुँचा और देर शाम में चल दिया। लेकिन उन चंद घंटो की अवधि में ही सिताब दियारा और जयप्रकाश नगर में बिताए गए क्षण मेरी जिंदगी की अमूल्य निधि बन गए हैं। लौटते वक्त मैं मन ही मन यह सोच रहा था कि जयप्रकाश जी के गुजरने के बाद भारतीय राजनीति के पास अब बचा क्या है? निश्चय ही देश के राजनीतिक आकाश की उज्ज्वलता में बहुत कमी आयी है। आज की राजनीति उनके सामने बौना दिखलाई पड़ रही है। जयप्रकाश जी के अवदान को यह देश कभी नकार न सकेगा। वे राजनीति के सहारे नहीं चलते थे, बल्कि देश की राजनीति उनके सहारे चलती थी।
-अशोक कुमार सिन्हा
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