कला और आकृति की भाषा

अधिकांश कलाकृतियों में सन्देश रहता है। लेकिन, ये सन्देश संप्रेषित करने के अन्य तरीकों से भिन्न होते हैं, क्योंकि इनके द्वारा संप्रेषित सन्देश चित्ताकर्षक आवरण के अन्दर होते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं है कि जिस तरह किसी दवा के उपर चीनी का लेप चढ़ा होता है, उसी तरह आकृतियों से सन्देश चिपके होते हैं जिन्हें अलग नहीं किया जा सकता है। कलाकृति बिना किसी जानकारी के भी हमें प्रभावित करती है, क्योंकि, जैसा कि पूर्व में कहा गया है, छवियों से लगाव मनुष्य का नैसर्गिक गुण है।

यह तथ्य पूरी तरह आकलन पर आधारित नहीं है। शिशुओं और पूर्व के अंध व्यक्तियों जिन्हें, अब नेत्र-दृष्टि मिल गई है, इनकी आकृति विषयक समझ पर मनोवैज्ञानिक द्वारा किए गए शोध से पता चला है कि मनुष्य में आकृति विषयक समझ की नैसर्गिक क्षमता है। मनुष्य की इसी क्षमता से पता चलता है कि अमुक चीज सुन्दर है और अमुक आकृति आनन्ददायक है। वास्तव में आकृति के प्रति यह प्रेरणा मनुष्य में इतनी बलवती होती है कि पूरे मानव इतिहास में मनुष्य अपने उपयोग की वस्तुओं को अपनी कलाकृति में बदलते रहा है। वह जो वस्त्र पहनता है, वह जिस घर में रहता है तथा वह जिस बर्तन और औज़ार का उपयोग करता है, ये सभी आकृति में ढालने की उसकी प्रेरणा का ही प्रभाव लिए हुए रहते हैं।

औपचारिक सजावट के बगैर भी महान कलाकृतियों में सन्देश भरे हो सकते हैं, लेकिन शायद ही ऐसा कोई क्षेत्र होगा जिसमें औपचारिक या श्रृंगारिक भावों की प्रधानता नहीं रहती हो। परन्तु सौंदर्य केवल कलाकृति या मनुष्य द्वारा गढ़़े गए कला-सिद्धान्तों तक ही सीमित नहीं है। वस्तुत: प्रकृति में वैसी अनगिनत चीजें हैं जो स्वत: हमारे सौन्दर्यबोध को जगाती हैं।

फूल हमें किस तरह प्रभावित करता है? यह हमें अपने औपचारिक संगठन यथा पंखुडियों की व्यवस्था में संतुलन और तारतम्यता आदि से प्रभावित करता है। औपचारिक संगठन की भिन्नता के कारण कुछ फूल दूसरे फूलों से अधिक सुन्दर दिखते हैं। उदाहरणस्वरूप, अधिकांश लोगों का सूर्यमुखी से ज्यादा गुलाब पसन्द आता है ( यहाँ हम भावनात्मक प्रभाव को नजरअन्दाज कर रहे हैं जो पूरी तरह व्यक्तिगत भाव पर निर्भर करता है)। इसका कारण है कि सूर्यमुखी में पंखुड़ियों दुहराव वाली लय में होने के कारण नीरस होती हैं, जबकि ये पूरी तरह सुडौल होते हैं। यद्यपि हम लय और सन्तुलन को प्राथमिकता देते हैं, लेकिन ये अत्यधिक साफ ढंग से व्यवस्थित हों तो हमारा ध्यान केवल क्षण माात्र के लिए आकृष्ट करते हैं तथा हमें उबाऊ लगने लगते हैं। सन्तुलित होने के बावजूद गुलाब जरा बेडौल होता है। इसकी पंखुड़ियाँ चक्कराकार ढंग से एक दूसरे के उपर सजी होती हैं। इस प्रकार, इसकी पंखुड़ियों के अंश एक दूसरे से सटे होते हैं। प्रकाश और छाया के कारण इसमें उस तरह की एक लय बनती है जिस तरह कि पानी में लहरों को विच्छेदित कर लहर पैदा की जाती है।

किन्हीं निश्चित औपचारिक गुणों के प्रति हमारी पसंद नैसर्गिक होती है। इस तथ्यात्मक ज्ञान के लिए हम गेस्टाल्ट मनोवैज्ञानिकों के ऋणी हैं कि हम इसी अनियमित की अपेक्षा नियमित नमूने, घुमाव या चित्र को ज्यादा आसानी से समझ लेते हैं । उसी प्रकार सुडौल चित्र हमारी पहली पसंद होती है। हम निकटता या निश्चित औपचारिक संबंधों के माध्यम से तत्वों को एकबद्ध कर उसकी व्यवस्था को सरल बनाने का भी प्रयास करते हैं और अंततः यदि कोई अधूरी तस्वीर उक्त शर्तों को पूरा करने की ख्वाहिश रखती है तो हमारी प्रवृति बन जाती है कि उस अधूरी तस्वीर को पूरी की जाए। इस उपकरण के माध्यम से हमारी ज्ञानात्मक प्रक्रिया में काफी ऊर्जा खर्च होती है। गेस्टाल्ट मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि समाकृति के कारण यह ज्ञानात्मक मितव्ययिता संभव हो पाती है, यथा हमारी आदर्श पसंद इस भौतिक संसार में किसी तरह से प्राकृतिक आदर्श के अनुरूप होती है।इस गेस्टाल्टिस्ट विचार से यदि कोई पूरी तरह सहमत नहीं है, तब भी इसमें कोई संदेह नहीं है कि मानव जाति ही ज्ञानात्मक पसंद की किस्म को प्रदर्शित करती है जिसकी तरफ गेस्टाल्टियों ने ध्यान आकृष्ट किया है। कलाकार इस ज्ञान को अपने कला-स्रोत के रूप में ज्यादा इस्तेमाल करते हैं।अपने प्रकरण में वे अधिकांश अंतर्ज्ञान से संचालित होते हैं ।

-सच्चिदानन्द सिन्हा
‘कला और आकृति की भाषा ‘ शीर्षक आलेख से

विदित हो कि ‘अरूप और आकार’ श्री सच्चिदानन्द सिन्हा की ललित कला अकादमी, नई दिल्ली द्वारा पूर्व प्रकाशित पुस्तक ‘केऑस एण्ड क्रियेशन’ का हिन्दी अनुवाद है।

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