धरोहर संरक्षण और सामाजिक चेतना

  • सन्दर्भ :  मिथिला के पंजी की माइक्रोफिल्मिंग, वर्ष 1990-2000

मिथिलांचल की तमाम विविधताओं और विशेषताओं में एक है यहाँ की पंजी प्रथा, यानी वंशावली लेखन की प्रथा I किन्तु बदलते दौर में यह प्रथा लगभग विलुप्त होने को है, क्योंकि इस पंजी के काम को सदियों से अंजाम देते आये थे उस गाँव के पंजीकार और अब उनकी नयी पीढ़ी इस व्यवसाय को जारी रखना नहीं चाहती I पिछली सदी के अंतिम दशक में कैलाश चन्द्र झा जी ने इन पंजियों की माइक्रो फिल्मिंग की कोशिश की, तमाम तकनिकी जटिलताओं एवं अन्य समस्याओं से जूझते हुए कुछ हद तक इस कार्य में आपको सफलता भी मिली I किन्तु इसके बावजूद इस परियोजना को आज भी अधूरा ही कहा जायेगा I बहरहाल इस परियोजना से जुड़े अपने अनुभवों को आलेखन डॉट इन के विशेष अनुरोध पर कैलाश चन्द्र झा जी अपने इस लेख के माध्यम से साझा कर रहे हैं, इसके लिए हम उनके हार्दिक आभारी हैं … – संपादक 

कैलाश चन्द्र झा

1970/71 की घटना है। मैं पटना हाइकोर्ट  के एक कोर्ट में बैठा हुआ था। कोर्ट का Procedure Observe करने के लिए। एक बुजुर्ग जिनकी उम्र करीब साठ वर्ष रही होगी, मेरे बगल में बैठे थे। उन्होंने मेरा नाम पूछा और पूछा ‘कोन गाम घर अछि’ (आपका घर किस गांव में है) I मैंने उत्तर दिया – राँटी। वो उठे और मेरा पांव छू बैठे। मैं तो अवाक रह गया । वैसे तो पहले का कुछ अनुभव था- राँटी के नाम पर लोगों का चौंकना और फिर आदर से देखना। यह घटना मुझे बचपन के दिनों में ले जाती है। जब मैं सुना करता था- पंचकोशी , भलमानुष, बिकउआ, कुलीन, दरिहरे, योग, पजियार, दोगामिया, दखिनाहा, सभागाछी, अधिकार, गोत्र-मूल – इन शब्दों को और इन सबों से मैं परिचित रहा था और इनके अर्थ-समझने की कोशिश करता था – सांस्कृतिक और सामाजिक संदर्भ में। ये सब जातिगत और मेरे मैथिल ब्राम्हण परिवार में जन्म होने से संबंधित हैं। यह अनुभव उसका है। धीरे-धीरे पता चलने लगा, किस तरह ये सब बातें पंजी प्रबंध से भी किसी तरह जुड़ी हुई हैं।

मेरा पैतृक गाँव- राँटी और ननिहाल – लोहा कपसिया के बीच सौराठ पड़ता है। सभागाछी उनदिनों अहम था। यह सौराठ में आम और बरसात के समय में करीब दस से बारह दिनों के लिए लगता था। आम का बगीचा, तालाब और वहाँ स्थापित महादेव मंदिर। गाँव व ननिहाल आते-जाते पैदल, बैलगाड़ी, साइकिल, रिक्शा  व बस से देखा करता था। वह जगह एक प्रकार से लैंड मार्क की छवि छोड़ता था। सभागाछी के दौरान आस-पास के गाँवों में ‘पाहुनों’ का आना और सभागाछी प्रतिदिन जाना, कथा तय होना, पंजीकार से अधिकार की स्वस्ति लेना, सिद्धांत लिखाना, महादेव के मंदिर में उसका चढ़ाना – एक सांस्कृतिक, सामाजिक और धार्मिक प्रक्रिया थी। इससे मैं परिचित होता गया। सभागाछी भी जाता था और पूरे माहौल  का अनुभव करता था। गाँव के पुरुषों का टोली बनाकर, दरी बिछाकर, आम के पेड़ों की छाँव में बैठना। होने वाले वर का भी वहां उपस्थित होना। ‘घटक’ लोगों का संभावित रिश्तों  के लिए प्रयास, परिचित ढुंढना, वर पक्ष व कन्यागत पक्षों का जोड़ तोड़- यह सब अनुभव हो रहा था।

‘कन्याएँ’ नहीं आती हैं -सभागाछी में । एक तरह से यहाँ होता है वृहद जमाव मैथिल ब्राम्हण समुदाय का, जहाँ उपयुक्त वर व कन्या पक्ष का चुनाव सामाजिक स्तर पर सन्निहित था। कई लोग (टोली) तो तम्बू गाड़कर वहीं रहते थे, खाना वगैरह वहीं पकता था। समां ही अलग होता था। जैसे ही शादियाँ तय होती थी लोग अपने गाँव की ओर प्रस्थान करने लगते  थे। किसी किसी दिन तो साठ-सत्तर हजार लोग एकत्रित हो जाते थे। खाने की वस्तुएं नहीं मिलती थीं। माहौल ही अलग होता था । किंवदंती थी, अगर एक लाख लोग जुटे तो एक पाकड़ का पेड़ था जो मौला (मुरझा ) जाता था। लोग आम के फल को पेड़ में बचाकर रखते थे, अपने गाछी में, आगंतुक पाहुनों के लिए। श्रावण-भादव का महीना होता था – वारिश के बीच कई बार पूरी प्रक्रिया संम्पन्न होती थी। जिनकी शादियाँ तय नहीं हो पाती थी वो अगले साल सौराठ सभा की प्रतीक्षा करते थे- मायूसी के साथ । यहाँ अनपढ़ से लेकर डाक्टर व इंजिनियर लोगों तक की शादी तय होती थी। मेरे पिताजी की शादी इसी प्रक्रिया से तय हुई थी और मेरे कई फूफेरे भाइयों की भी।

सभागाछी में ही पंजीकारों का उन दिनों आना होता था। वहीं उनका खेमा होता था, पंजियों के साथ। उन पंजियों को देखता था। उस समय से ‘पंजी, मन में बैठ गया – कौतूहलता के साथ। दो और चीजें – जिसे आज के दिनों में ‘मधुबनी पेंटिग’ के नाम से जाना जाता है और ‘पोखरि’, हमेशा बचपन से ही मुझे कौतूहलता जगाता था। जनेऊ में ‘मड़वा’ और शादी में ‘कोहवर घर’ में यह चित्रकला औरतों द्वारा बनाना मेरे लिए Intriguing था। और ‘पोखरि’ भी। पोखरि, जाठ, भीड़ पर आम की  गाछी (बगीचा), मंदिर – यह सब पुनः सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और धार्मिक संभावनाओं का प्रतीक था। मधुबनी पेंटिंग के प्रचार-प्रसार और पंजी के संरक्षण में कुछ हद तक सफल हुआ। ‘पोखरि’ पर लगा हुआ हूं।

इस लेख में पंजी संरक्षण के वृतांत को कहने जा रहा हूं। मैं Acedemician नहीं हूं और मैने पंजी – प्रबंध का अध्ययन नहीं किया है। इसलिए मैं अपने आपको पंजी के  संरक्षण  तक ही सीमित  रखूंगा। और संरक्षण की प्रक्रिया में जो अनुभव हुआ, वही मैं लिख रहा हूँ । हो सकता है पंजी-प्रबंध के इतिहास का मुझे ज्ञान न हो, इसके लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूं।

1326 ई. कर्नाटक वंशी शासक हरिसिंह देव के शासनकाल में पंजी प्रबन्ध की व्यवस्था नियमित रूप से स्थापित हुई शादियों के लिए। मैथिल ब्राम्हण और कर्ण कायस्थ बाद के दिनों में जुडे़ रहे इसमें। यह नेपाल और भारत दोनों में प्रचलित रहा – क्योंकि दोनों जातियाँ दोनों देशो में हैं और इनमें आपसी संम्बन्ध स्थापित होते हैं । मुझे 1988/89 में एक फोन कॉल आया अमेरिकी दूतावास में कि Alice Kniskern, Deputy Director, U.S. Library of Congregss  ने आपका Reference दिया है। मेरा नाम Tinesh Kalra है और मैं आपसे मिलना चाहता हूं। हम लंच पर मिले। Tinesh ने बताया कि वह Genealogical Society of Utah, Salt Lake City, U.S.A.  (GSU) के behalf पर बात कर रहा है।

बहुत ही देर से, 2-3 साल पहले मेरे Library of Congress (L.C) छोड़ने से G.S.U., L.C Participant बना था और जातिगत Publications  में उसका Interest था। मैं GSU से वाकिफ था और जाति से संबंधित प्रकाशनों का मैंने  Acquisition किया हुआ था। Tinesh ने बताया कि कोई System है बिहार में जिससे शादियाँ तय होती हैं। मैं समझ गया कि पंजी की बात हो रही है। मेरे लिए ‘जहाँ चाह वहाँ राह वाली बात थी। मैंने उसे पंजी प्रबंध के बारे में बताया, जितनी मुझे जानकारी थी। मैंने समझाया कि Seven Generations पिता और Five Generations माता के तरफ से सम्बन्ध न हो, और यह स्वस्ति पंजीकार देते हैं पंजी देखकर और तभी शादी होती है। कई पंजीकार को यह कंठस्थ भी था। यह Dying system है, कई कारणों से, परंतु  ”Let’s start and I am with you.”

Genealogical Society of Utah, Salt Lake City, U.S.A. में है। यह Mormons Church Funded Organisation है – The Church of Jesus Christ of Latter-day saints. Library  पहाड़ काटकर बनाई गई है, Family History Library और Materials vaults में रखे जाते हैं। जिससे उनपर Atom Bomb, बाढ़ आदि का प्रभाव न पडे़ ओर हजारों साल तक सामग्री सुरक्षित रहे। Mormon Church, Fastest growing church है। ये Geneology में विश्वास करते हैं। मुझे धर्म से मतलब नहीं था। मुझे Preservation से मतलब था। पंजी सुरक्षित हो जाए यह मेरा लक्ष्य था। Exploration trip शुरू हुआ मेरा। सौराठ और कोईलख पहला Target रहा- कई कारणों से। स्वर्गीय श्री जयदेव मिश्र जी जो कोईलख के थे और पंजी में रूचि रखते थे और कई पंजीकार उनसे मिलने आते थे पटना आने पर। उनकी पंजीकारों से वार्त्ता होती थी। हर कार्य में पहला Breakthrough बहुत ही अहम होता है। मैं अकेले और फिर Tinesh Kalra के साथ जाते रहे। जयदेव बाबू पंजी के ज्ञाता थे और पंजीकार उन्हें आदर करते थे।

पहला Breakthrough उन्होंने ही दिलाया। वह समझ गए थे Microfilming द्वारा पंजी के Preservation के महत्व को। वे मेरे साथ कोईलख गए। पंजीकार श्री कीर्तिनाथ झा को आश्वासन दिया कि Microfilming कराने में कोई हानि नहीं है। Microfilming के बाद आपको पंजी भी वापस मिल जाएगा। जाहिर है कोई भी व्यक्ति अपनी कोई  ऐसी  सामग्री, जिससे उसका जीवकोपार्जन भी जुड़ा हो, देने को तैयार नहीं होता है। वो इस बात पर तैयार हुए कि प्रतिदिन सुबह पंजी का बंडल लेकर मेरे साथ सुमंत होटल मधुबनी आएंगे। एक कमरे में रहेंगे, दिन में सिर्फ चूड़ा-दही और आम खाएंगे और शाम में पंजी सहित उन्हें  उनके गांव कोईलख वापस पहुचा दिया जायेगा। यानि कि उनकी उपस्थिति में ही सारी प्रक्रिया होगी। 1990 के पूरे दशक को याद करें। उस समय मधुबनी में सुमंत होटल पहला होटल बना था। पटना-मधुबनी के लिए उन दिनों गाड़ियाँ भी नहीं मिलती थीं। सड़के खराब थीं। बिजली का भी संकट था। कानून-व्यवस्था की स्थिति भी खराब थी। उन दिनों दस पैसे प्रति पृष्ठ  (एक तरफ)  से Honorarium  तय हुआ। Contract में तय हुआ कि पंजीकारों को जरूरत पड़ने पर GSU एक Positive film free दिया जायेगा । जैसे कि आग व अन्य विपदा में नष्ट हो जाने पर। Microfilm Reader की व्यवस्था न होने के कारण उनके लिए यह कोई Option नहीं था। बाद के दिनों में इस अनुबंध में परिवर्तन भी हुए ।

कलकत्ता की Microfilming Company को Contract मिला था और प्रक्रिया सुमंत होटल से शुरू हुआ 1990 में । बिजली की खराब व्यवस्था के कारण जेनरेटर का सहारा लिया गया – क्योंकि फिल्मिंग के लिए एक खास वोल्टेज सप्लाय  की आवश्यक्ता थी। गौतम जो इस कम्पनी के मालिक थे, वह भी रह रहे थे। काफी खराब काम हुआ। लोग समझ नहीं पाते हैं कि किसी भी International Institution में एक स्टैण्डर्ड तय रहता है। प्रोडक्ट को उस पर आँका जाता है। चलो, चलता है, फिल्म करते चलो, यह कहीं भी होता है। GSU के मापदंड पर फिल्म खरी नहीं उतरी । समस्या आ गई। इस कम्पनी को हटाया गया। GSU ने Tinesh Kalra को Japan भेजकर ट्रेनिंग दिया। फिर Tinesh ने दो लड़कों को ट्रेनिंग  दी। जिनमें मेरे सबसे छोटे भाई स्वर्गीय ईश्वर चंद्र झा भी थे। सुमंत होटल से निकलकर बड़ी बाजार में मकान किराए पर लेकर काम फिर से शुरू किया गया। कई पंजीकारों की पंजी का दुबारा फिल्मिंग किया गया।

जेनरेटर बहुत बड़ी समस्या थी। लोग पसंद नहीं करते थे उसका देर रात तक चलना। काफी शोर होता था। अंततः बड़ी बाजार से हम अपने घर राँटी ले आए इस प्रोजेक्ट को। दो कैमरे जेनरेटर पर, 10-12 घंटे तक चलता था I यह सिलसिला  1990-2000 तक चलता रहा। मैं शुक्रवार को दिल्ली से निकलता था, शनिवार सुबह राँटी पहुंचता था। फिर गाँव-गाँव घूमना। पंजीकारों से मिलता, समझाता, कीर्तिनाथ झा का उदाहरण देता, इस तरह काम चल गया। रविवार रात को दिल्ली लौट आता था। यह काम शनिवार-रविवार के बीच करता था। ताम्रपत्र से शुरूआत होकर, कागज पर पंजी मिलते थे। अब यह तिरहुता (Mithilakshar) लिपि से देवनागरी पर आ चुका था। पुराने पंजी काफी गंदे स्थिति में होते थे और Ink fade कर गए थे। पहले उनकी साफ-सफाई करनी होती थी। इस बीच में कैमरे में भी तकनिकी  समस्या आने लगी, ऐसे में  GSU,  America से Technician भी आए। कैमरा को ठीक होने के लिए अमेरिका भी भेजना पड़ता था। जेनरेटर के शोर के कारण गाँव में झगड़ा से लेकर ब्लू फिल्म बनाने तक का दोषारोपण झेलना पड़ा और इन सबके बीच पुलिस के छापे का सामना भी करना पड़ा ।

इस दौरान अनुभव हुआ कि ‘महापात्र’ (कर्मकांडी ब्राम्हण) के पंजीकार अलग होते हैं और मैथिल ब्राम्हण के अलग। यह भी पता चला कि कायस्थ पंजीकार, ‘घटक’ का भी काम करते हैं- (Negotiator) का । कायस्थ पंजीकार से Breakthrough दिलाने में मेरे ग्रामीण विपिन कुमार दास (पुत्र स्वर्गीय पद्यश्री महासुन्दरी देवी) ने अहम भूमिका निभायी। हम उनके आभारी हैं। पंजीकार पहले गाँवों में घूमा करते थे Update करने के लिए। अधिकार ठहराने के लिए Manuevering भी होता है। यह भी पता चला कि पंजीकार ‘खोट’ – born illegitimate भी  Note करते थे और फिर बंद करते थे उनके वंशावली को। बिमारी जैसे Mental illness का भी जिक्र कई पंजीकार कर देते रहे हैं। Step brothers का branches भी अलग मिलता है। Village Migratations and Movements are there, women not mentioned in Panjis, लेकिन पंजीकार trace कर सकते हैं शादियाँ। मैंने अपनी वंशावली का चार्ट बनवाया। छब्बीस जेनरेशन आ जाते है। और सारे Movements गाँवों का है इसमें।

पुराने पंजीकार जिनसे मेरा संबंध था शायद अब न हों। पता नहीं उनके पुत्र व पौत्र जारी रखे हों इसे अथवा नहीं । क्योंकि आज के समय में  जीविका के लिए इस पर निर्भर रहना कठिन है। 1988-89-2000 की बात कर रहे हैं। 24-25 साल हो गये। एक पंजीकार की पत्नी ने तो कहा, ‘जीवछक धार में द देलिएक ओ नई रहलखिन्ह’ ( जीवछ नदी की धारा में पंजियों को बहा दिया जब वे नहीं रहे) । दुःखद । इसे धार्मिक तौर पर पवित्र जानकर उन्होंने ऐसा किया, क्योंकि परिवार में  इस पेशे को जारी रखने वाला कोई नहीं था। Project को 2000 में बंद किया गया। शुरू के पंजी में Duplications भी हैं। पंजीकारों को Court Cases में  Witness के तौर पर भी बुलाया जाता था। Researchers के लिए GSU Library में उपलब्ध था उन दिनों। इधर पता चला कि नियम में कई बदलाव हुए हैं। क्योंकि पेशे से जुडे़ होने के कारण Monetary Involment  है और लोग इसे Private रखना चाहते हैं। उन दिनों एक प्रति इस फिल्म  की National Archives को भी दी गई, पता नहीं अब उसकी क्या स्थिति है। इसमें भी बदलाव आया उपर्युक्त कारणों से। मुझे तीन मैथिल ब्राम्हण ने U.S.A से Contact किया था। उन्होंने उन दिनों GSU में देखा था। इस पूरी प्रक्रिया में पैतीस मैथिल ब्राम्हण पंजीकारों, तीन महापात्र पंजीकारों और नौ कायस्थ पंजीकारों से संपर्क किया गया। कुल सैंतालीस पंजीकार। जो अट्ठाइस गाँवों में फैले थे। मधुबनी, दरभंगा से जनकपुर (नेपाल) और पूर्णिया (अररिया) तक। इनमें से बयालीस पंजीकारों की पंजी का Microfilming हुआ।

पंजीकारों और गाँवों के नाम नीचे वर्णित हैं और साथ ही कई पंजीकारों की अनुमानतः पंजी के पृष्ठ भी –

 

मैथिल ब्राम्हण पंजीकार

 

सं.        नाम                             गाँव                    पंजीपृष्ठ

1.   श्री कीर्तिनाथ झा              कोईलख                   –

2.  श्री बोधकृष्ण झा                सौराठ                       –

3.  श्री हरे कृष्ण झा                सौराठ                       –

4. श्री दिगम्बर झा                  सौराठ                       –

5. श्री जीवानंद मिश्र                सौराठ                       20000

6. श्री चंद्रकांत मिश्र                 सौराठ                       –

7.  श्री  पीताम्बर मिश्र               सौराठ                       –

8. श्री कालिका दत्त झा           सौराठ                       30000

9. श्री शंकर कुमार मिश्र           सौराठ                       20000

10.  श्री चंद्रकांत मिश्र               सौराठ (कोठा टोल)    80000

11.  श्री शिव कृष्ण मिश्र             नाहर     –

12.  श्री जगन्नाथ झा                  भराम   – 40000

13. श्री नुनू मिश्र                        ननौर        –

14. श्री रामचन्द्र झा                  पिलखबार  – 40000

15.  श्री उमाकांत झा              जितवारपुर     –

16. श्री विंध्यनाथ झा              पखरौनी        –

17.   श्री विश्वचन्द्र मोहन मिश्र    पखरौनी   – 50000

18.  श्री बटुक मिश्र                   पखरौनी                    –

19.  श्री देव मिश्र                      पखरौनी                    –

20. श्री हरिशंकर मिश्र           बैरिया टोल    -15000

21. श्री हरिदर्शन झा             मारैर     –

22. श्री अभिराम झा            मारैर                         –

23. श्री दीनानाथ झा          मंगरौनी                     –

24.  श्री रमण कुमार         मंगरौनी                     –

25. श्री दुर्गानाथ झा          मंगरौनी                     –

26. श्री रविनाथ झा         मंगरौनी                     –

27.  श्री कैलाश झा        ककरौल                      –

28. श्री भुवनेश्वर झा       जरैल                 30000

29. श्री महेन्द्र झा           जरैल                 20000

30. श्री लीलाधर झा      जरैल                        –

31. श्री चंद्रधर झा        जरैल                        –

32. श्री हरिनंन्दन झा    दरभंगा                 –

33. श्री मोदानंद झा       शिवनगर, अररिया (पुर्णिया)     60000

34. श्री शंकर झा           बनौली, जनकपुर (नेपाल)        20000

35. कछुआ-चकौती। यहाँ के पंजीकार का Microfilming नहीं हुआ।

महापात्र पंजीकार

1.  श्री सत्यनारायण झा –  रहिका, कोठा टोल    – 6000

2. श्री देवनारायण झा –  साहरघाट         –

3. श्री रमाकांत झा  –   साहरघाट-   6000

कर्ण कायस्थ पंजीकार

1 . श्री रघुनाथ लाल दास  -मधुबनी  – 20000

2. श्री जीवानंद मल्लिक -शिवीपट्टी    –

3. श्री शिवानंद मल्लिक -शिवीपट्टी  –

4. श्री जगनारायण मल्लिक- शिवीपट्टी  –

5.  श्री जगतानंद मल्लिक- शिवीपट्टी- 50000

6. श्री अरविंद मल्लिक- लहेरियासराय- 40000

7. श्री ज्वाला मल्लिक- बहेरा     –

8. श्री श्याम सुन्दर दास- सिमरा,झंझारपुर  –

9. श्री वासुदेव मल्लिक-लक्ष्मीपुर, मधेपुरा   –

   बहेरा, सिमरा, लक्ष्मीपुर और लहेरियासराय के पंजीकारों का Microfilming नहीं हो सका।

यह पूरा Project Commitment, Passion और Zeal की कहानी है। पूरे Project में बिहार व भारत सरकार और उनके किसी भी संस्थानों से किसी प्रकार की आर्थिक मदद नहीं ली गई है। किसी पद  व ऑफिस से इसका संबंध नहीं है। Outreach एक शब्द है – हमें करना है। न कि मैं पदासीन हूं और सबकुछ मेरे चरणों पर होगा। सप्ताहांत में  दिल्ली से मधुबनी और गाँवों तक आता जाता रहा । Low Profile, Without media attention-  इसलिए कुछ सफलता मिली है।  अलबत्ता मेरे अपने Profession से इसका कोई ताल्लुक नहीं रहा है।

नब्बे के दशक में जब Microfilming चल रहा था, मेरे Society में जहाँ मैं दिल्ली में रहता हूँ मॉर्निंग वाक कर रहा था। एक Eminent Historian जो Indian Council of Historical Research (ICHR) के प्रमुख रह चुके थे और बिहार से आते थे, भी सैर कर रहे थे। मैं यह खबर उनसे बांटना चाहा- और बताया। उन्होंने जो भाव बनाया जैसे एक कान से सुनी और दूसरे कान से निकाल दी- प्रतिक्रिया ऐसी जैसे कि मैं पैरवी कर रहा था, M.A History, Delhi University में Admission के लिए अथवा लेक्चरार की नौकरी के लिए या ICHR grants के लिए। मैं बढ़ गया, अवाक सा। करीब सात साल इस Project के खत्म होने के बाद Times of India, Patna में एक रिपोर्ट आई। बहुत ही खराब तरीके से लिखा, कोई जानकारी लिखने के पहले इकट्ठा न की गई और Conspiracy theory से भरपूर। Sensationalising it by invoking Amrica & American Agent.

2020 – मैं दिल्ली में अपने घर बैठा ‘आज तक’ T.V. Channel पर खबर देख रहा था, बिहार के बाढ़ पर। देखता क्या हूं- पंजी-पानी में डूबे हुए किन्हीं के ‘दालान’ पर। Anchor को कोई पता नहीं यह क्या है। मैने अपनी पत्नी को बुलाया और दिखाया। पीड़ा हुई। लेकिन आश्वस्त  भी हुआ कि चलो- Microfilming हो चुकी है। मेरा अनुभव कमोवेश दस्तावेजों के ‘संरक्षण’ में यही रहा है। चाहे वह स्वामी सहजानंद सरस्वती व किसान सभा से जुडे़ हों, आचार्य शिवपूजन सहाय की ‘बागेश्वरी पुस्तकालय’ हो व ”Encyclopedia Mundarica”. ग्रामीण पंजीकार की पत्नी का धार्मिक भाव, Eminent Historian की अन्यमनस्कता व पत्रकार की मानसिकता- करीब-करीब हर कहानी में है। केवल संदर्भ और पात्र बदल जाते हैं। और यह एक प्रश्न चिन्ह खड़ा करता है- हम सबों के लिए, सम्पूर्ण समाज के लिए और खासकर बुद्धिजीवी वर्ग के लिए।

 

-कैलाश चन्द्र झा

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