बिहार से रचा बॉलीवुड का रंगमंच

“प्रभात ठाकुर : केवल सेट नहीं रचते, बल्कि कहानियों को जीने लायक दृश्य प्रदान करते हैं”

प्रभात ठाकुर जी से मेरी पहली मुलाकात लखनऊ में हुई। उस समय किसानियत फिल्म की शूटिंग करने लखनऊ आए थे। हालांकि लिखने पढ़ने के कारण इससे पहले मुलाकात तो नहीं लेकिन सोशल मीडिया पर उनसे परिचय का आगाज हो चला था। धीरे-धीरे बातचीत में पता चला कि ठाकुर ने काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी से ही कला शिक्षा ली है तो और करीबी का एहसास हुआ। फिर बातचीत का सिलसिला लगातार चलता रहा जो आज भी जारी है। उनकी अनवरत कला यात्रा को देखते हुए एक आत्मिक प्रसन्नता होती है। उन्होंने अपना मुकाम आज अपनी कला, मेहनत और सकारात्मक सोच और ऊर्जा के बदौलत हासिल की है। जटाधरा के लिए प्रभात ठाकुर और उनकी पूरी टीम को बधाई एवं शुभकामनाएं।

भूपेन्द्र कुमार अस्थाना

 

“कौन कहता है आसमाँ में सुराख नहीं हो सकता,

एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों”

दुष्यंत कुमार की यह पंक्तियाँ जैसे प्रभात ठाकुर के जीवन की धड़कन बन गई हैं — एक ऐसा कलाकार जो सपनों को आकार देने की हिम्मत रखता है और जिनकी कला उन सपनों को दृश्य संसार में ढाल देती है। फ़िल्मों की दुनिया में हम अक्सर उन चेहरों को जानते हैं जो कैमरे के सामने होते हैं, पर पर्दे के पीछे भी एक जादुई दुनिया है — रंग, रूप और रचना से भरी। वहीं वे कलाकार होते हैं जो केवल सेट नहीं बनाते, बल्कि कहानियों की आत्मा गढ़ते हैं। इन्हीं अनदेखे, पर अद्भुत कलाकारों में से एक हैं प्रभात ठाकुर, जो आज आर्ट डायरेक्शन और प्रोडक्शन डिज़ाइन की दुनिया में सम्मान और पहचान दोनों के प्रतीक हैं।

बिहार में जन्मे और झारखंड के बोकारो स्टील सिटी में पले-बढ़े प्रभात ठाकुर की कहानी किसी प्रेरक लोककथा जैसी है — मिट्टी की गंध से लेकर कैमरे की रोशनी तक की यात्रा। 11 अक्टूबर 1975 को मिहिजाम (झारखंड) के एक साधारण परिवार में जन्मे प्रभात का बचपन रंगों और कल्पनाओं के बीच बीता। गाँव की रामलीला के पर्दों पर बनने वाले चित्र, झोपड़ी कॉलोनियों में लगने वाले फिल्म शो और गलियों में गूँजती संवादों की आवाज़ें — ये सब उनके भीतर सिनेमा की पहली चिंगारी बनती रहीं।

स्कूल की पढ़ाई के बाद कला की औपचारिक शिक्षा के लिए उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) का रुख किया। वहीं उनकी दृष्टि गहराई और तकनीक में विस्तार पा गई। यही वह स्थान था जहाँ कला उनके लिए केवल पेशा नहीं, बल्कि साधना बन गई। 1992 में अभिनेता ओम पुरी से हुई एक आकस्मिक मुलाकात ने उनके जीवन की दिशा तय कर दी। ओम पुरी ने उनके स्केच देखकर कहा — “थिएटर और आर्ट को गंभीरता से लो।” प्रभात ने इस एक वाक्य को अपने जीवन का सूत्रवाक्य बना लिया।

1999 में मुंबई पहुँचना उनके लिए किसी नए जन्म जैसा था। शुरुआत असिस्टेंट आर्ट डायरेक्टर के रूप में हुई — ‘खूबसूरत’, ‘हेराफेरी’, ‘गदर’, ‘आंखें’, ‘तेरे नाम’, ‘मकबूल’ जैसी फिल्मों में उन्होंने वह सब सीखा जो किताबों में नहीं मिलता। धीरे-धीरे उन्होंने “स्पेस” को केवल भौतिक नहीं, बल्कि भावनात्मक बनाने की कला में महारत हासिल की। बतौर प्रोडक्शन डिज़ाइनर, प्रभात ठाकुर ने ‘कड़वी हवा’, ‘बहुत हुआ सम्मान’, ‘टीटू अंबानी’, ‘सरोज का रिश्ता’, ‘कलर ब्लैक’ और ‘बाप तिया’ जैसी फिल्मों में अपनी विशिष्ट दृष्टि और सौंदर्यबोध का परिचय दिया। उनके सेट महज़ संरचनाएँ नहीं, बल्कि पात्रों की भावनाओं के विस्तार हैं।

उनकी नवीनतम फिल्म ‘जटाधरा’ (मुख्य भूमिकाएँ: सोनाक्षी सिन्हा और सुधीर बाबू) 7 नवंबर 2025 को रिलीज़ होने जा रही है। इसमें उन्होंने “मांडवा हाउस” नामक सेट तैयार किया है — जो एक ही समय में दो संसारों को समेटे हुए है। एक तरफ टूटी-फूटी दीवारों में छिपी पीड़ा है, और दूसरी ओर उन्हीं दीवारों में बसी जीवन की चमक। यह सेट केवल दृश्य नहीं, बल्कि एक अनुभूति है — जैसे हर ईंट किसी अधूरी कहानी की गवाही दे रही हो।

प्रभात ठाकुर केवल प्रोडक्शन डिज़ाइनर ही नहीं, बल्कि एक सजग निर्देशक भी हैं। उनकी वेब सीरीज़ ‘किसानियत’ और फिल्म ‘द लॉस्ट गर्ल’ उनके निर्देशन की परिपक्वता और सामाजिक दृष्टि का उदाहरण हैं। वे मानते हैं कि “सिनेमा सिर्फ मनोरंजन नहीं, बल्कि समाज से संवाद का सबसे सशक्त माध्यम है।” इसी भावना के साथ वे अक्सर आर्ट कॉलेजों और सेमिनारों में युवाओं से संवाद करते हैं और उन्हें प्रेरित करते हैं कि सिनेमा को केवल ग्लैमर नहीं, एक ज़िम्मेदारी के रूप में देखें।

उनका कहना है — “फिल्मी कला में सफलता तभी मिलती है जब मेहनत, तकनीकी समझ और कल्पना — तीनों का संगम हो।” शायद यही कारण है कि उनके हर काम में संवेदना, सादगी और सृजन की सच्चाई झलकती है।

बिहार के मुंगेर से लेकर झारखंड के बोकारो और फिर मुंबई तक की यह यात्रा केवल भौगोलिक नहीं, बल्कि आत्मिक है। हर मोड़ पर संघर्ष, हर पड़ाव पर रचनात्मकता, और हर उपलब्धि में विनम्रता। प्रभात ठाकुर इस विश्वास के साक्षात उदाहरण हैं कि सच्ची लगन के आगे सीमाएँ कभी दीवार नहीं बनतीं।

आज जब वे ‘जटाधरा’ के माध्यम से एक नई दुनिया रच रहे हैं, तो लगता है कि कला के इस यात्री ने सचमुच यह सिद्ध कर दिया है — सीमाएँ केवल नक्शे पर होती हैं, कल्पना के संसार में नहीं। प्रभात ठाकुर, वास्तव में सिनेमा के वे चित्रकार हैं जो पर्दे के पीछे रहकर कहानियों को दृश्य देते हैं — और हर दृश्य को आत्मा।

-भूपेन्द्र कुमार अस्थाना

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