पब्लिक आर्ट और हाजीपुर का ‘मालभोग’ केला: एक स्थानीय स्मृति और उसका जनकला परिप्रेक्ष्य

पब्लिक आर्ट (जन कला) या सार्वजनिक कला का आशय है—कला को अकादमिक कक्षाओं और संग्रहालयों की दीवारों से बाहर निकालकर  जनता के बीच लाना; ऐसे स्थलों, आंदोलनों और स्मृतियों में उसे रचाना जहाँ समाज साँस लेता है, संघर्ष करता है और संवाद करता है।

जनकला की चार आधारशिलाएँ निम्नवत हैं :

  1. जन-सरोकार की दृष्टि:  यह लोककलाओं, जनजातीय अभिव्यक्तियों, दीवार-चित्रों, स्मारकों और सामाजिक आंदोलनों से उपजी कलाओं को ‘इतिहास’ के परिप्रेक्ष्य में दर्ज करने की माँग करती है।
  2. स्मृति और स्थान: यह केवल दृश्य नहीं, स्मृतियों की राजनीति से भी जुड़ी होती है। कोई चित्र, कोई मूर्ति या कोई दीवार किसी स्थान विशेष की पहचान बन जाती है।
  3. प्रतिरोध और भागीदारी: जनकला सत्ता के सांस्कृतिक वर्चस्व का प्रतिकार भी करती है — वह दलित, आदिवासी, स्त्री या पर्यावरण-संबंधी संघर्षों से संवाद करती है।
  4. लोकतांत्रिकता: यह केवल विद्वानों और संस्थानों का विषय नहीं, आम लोगों के अनुभव, दृष्टिकोण और भागीदारी का भी इतिहास है।

 पटना का ‘एको पार्क’: बिहार में पब्लिक आर्ट का केंद्र-बिंदु :

राजधानी पटना स्थित ‘एको पार्क’—या राजधानी वाटिका—आज बिहार में सार्वजनिक कला का सबसे सक्रिय केंद्र बन चुका है। यहाँ स्थापित प्रसिद्ध मूर्तिशिल्प, सुबोध गुप्ता द्वारा निर्मित स्टील बर्तनों से बना विशाल कैक्टस, भारतीय घरेलू जीवन की स्मृति को कलात्मक प्रतीक में बदलता है।

साथ ही, प्लास्टिक बोतलों, टायरों, और कबाड़ से बनी अन्य कलाकृतियाँ भी पार्क में जगह-जगह देखने को मिलती हैं—जो रीसाइक्लिंग, पर्यावरण-संवेदना, और उपभोग संस्कृति पर टिप्पणी करती हैं। इस प्रकार, पब्लिक आर्ट एक बार फिर यह सवाल उठाती है कि कला किसके लिए है? किससे संवाद करती है? और किसने इसे रचा है?

Eco park, Patna

हाजीपुर का ‘मालभोग’ केला और स्थानीय प्रतीक की मूर्तिकला :

अब यदि हम हाजीपुर की ओर रुख करें—जहाँ का मालभोग केला न केवल एक कृषि उत्पाद है, बल्कि सांस्कृतिक स्मृति और शहर की पहचान का हिस्सा बन चुका है—तो वहाँ भी पब्लिक आर्ट का एक उल्लेखनीय प्रयास हाल के वर्षों में सामने आया। अप्रैल माह की बात है। रामाशीष चौक, हाजीपुर के पास एक विशाल केले के घवद (गुच्छे) की मूर्तिकला स्थापित होते मैंने देखा था I यद्यपि स्थापना का कार्य उस समय जारी था, फिर भी दृश्य ने जिज्ञासा जगा दी। बाद में यह ज्ञात हुआ कि इस मूर्तिशिल्प के रचनाकार हैं—धर्मेन्द्र कुमार, कला एवं शिल्प महाविद्यालय, पटना के स्नातक और एक युवा मूर्तिकार।

जाहिर था कि यहाँ यह मूर्तिशिल्प न केवल एक फल का प्रतिरूप है, बल्कि एक पूरे शहर की स्मृति, उसकी पहचान और उसके श्रम-संस्कृति का प्रतीक है। बाद में सोशल मीडिया पर तस्वीरें और समाचार भी प्रसारित हुए। मुझे व्यक्तिगत रूप से—एक कलाकार और कला लेखक होने के नाते—यह देखकर विशेष प्रसन्नता हुई, क्योंकि दो-तीन दशक पहले तक सार्वजनिक स्थलों पर केवल धार्मिक मूर्तियाँ या राजनेताओं की प्रतिमाएँ ही देखने को मिलती थीं।

राजनीति बनाम सार्वजनिक कला :

किन्तु अब कलाकार के हवाले से यह सूचना मिल रही है कि इस मूर्तिशिल्प को वहाँ से हटाया जा सकता है। चुनावों के मौसम में राजनैतिक दल अपने-अपने मतदाता समूहों को संतुष्ट करने के लिए उस स्थल पर किसी “महापुरुष” की मूर्ति स्थापित करने का दबाव बना रहे हैं। दरअसल यह कोई अपवाद नहीं, बल्कि एक प्रवृत्ति है। भारत के कई शहरों में पब्लिक आर्ट, स्थानीय स्मृति या पर्यावरण प्रतीकों की बजाय राजनीतिक मूर्तियों से विस्थापित हो रही है।

एक कलाकार के रूप में मेरे लिए यह क्षोभ का विषय है। क्योंकि अगर ऐसे सार्वजनिक प्रतीक ग़ायब कर दिए जाएँ, तो हम न केवल कला को, बल्कि अपने स्थानीय इतिहास और स्मृति को मिटा रहे होते हैं। अब यह तय करना स्थानीय प्रशासन और आम जनता के हाथ में है कि वह ‘केले के प्रतीक’ को बनाए रखने के पक्ष में खड़ी होती है या नहीं। कहीं ऐसा न हो कि यह मूर्तिशिल्प गुमनामी के अँधेरे में सदा के लिए खो जाए।

क्योंकि पब्लिक आर्ट का सबसे बड़ा मकसद है — इतिहास को केवल किताबों में नहीं, बल्कि सड़कों, चौराहों, और शहरों के स्मृति में जीवित रखना। हाजीपुर का यह केला-घवद केवल एक फल नहीं, लोक की लय, श्रम की महिमा, और सांस्कृतिक स्मृति की प्रतिमा है — जिसे संरक्षित और सुरक्षित किया जाना चाहिए।

-सुमन कुमार सिंह 

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