चित्रकार चेतन औदिच्य उन कलाकारों में से एक हैं जिनका वास्ता साहित्य सृजन से भी रहता है। यहाँ प्रस्तुत है उनकी कलम से राजस्थान के वरिष्ठ चित्रकार राजाराम व्यास की कला पर एक विस्तृत आलेख ….
० चेतन औदिच्य
अमूर्तन के व्योम में सबसे पहले जो सिरजा गया, वह था — लिपियों के आकारों का अमूर्तन । लिपियां सर्वाधिक प्राचीन अमूर्त आकार हैं। क्षैतिजीय, लंबवत, वृत्ताकार अथवा वक्र — हर रूप में वे अमूर्त हैं। यह दूसरा सौपान रहा, जब लिपि-प्रतीकों को, ध्वनियों ने अपने अंक में धारण करके, अर्थों की ओर प्रयाण किया। किसी कला-रसिक के लिए लिपि प्रतीक- सदैव आकर्षण का हेतु रहे हैं। अक्षरों के अपने ही घुमाव होते हैं और अपनी ही घाटियां। वे अपनी ही गति में, अपनी ही जड़ता को तोड़ते हैं। अर्थों से अलग उनकी अपनी ही लय हैं।

राजस्थान के वरिष्ठ चित्रकार राजाराम व्यास ने अपनी कला यात्रा में इन्हीं अक्षरों को अपनाया है। साथ ही चित्र में अपनाएं अक्षरों को इतना विस्तार दिया है कि, वे फलक पर कला की अनेक भंगिमाओं के छवि रूप में प्रस्तुत हो सकें हैं। लिपि-बिंदु से आरंभ उनकी कलायात्रा ने समकालीन कलाधारा की अनेक विधाओं के साथ तादात्म्य कर, कलाओं को कुछ नूतन आभाएं सौंपी हैं।
राजाराम मूलत:, रूप में अरूप को व्यंजित करने वाले कलाकार हैं। रूप से अरूप तक की यात्रा में वे अनेक कला-सौपानों से होकर गुजरे हैं। विभिन्न विधाओं में सर्जना की है । लयात्मक रेखाओं की वृत्तीय परिभूमि के संग तरह-तरह के रंग प्रयोग इसमें शामिल रहे हैं। विशेष बात यह है कि उनकी अभिव्यक्ति में एक निजता है। यह निजता ही उन्हें अन्य कलाकारों से विलग करती हैं । उनकी चित्र-शैली में एकनिष्ठता है, सुघड़ता है। किंतु , उनकी सुघड़ता, जड़ता की नहीं , अपितु एक तरलता की प्रभाविता प्रस्तुत करती है। सभी रंगों में यह तरलता , चित्र के एक छोर से दूसरे छोर तक बनी रहती है। चित्रों की एकनिष्ठता के चलते ही विभिन्न माध्यमों के बावजूद उनकी मौलिकता कहीं टूटती नहीं है, छूटती नहीं है, बिखरती नहीं है। वस्तुतः वह अमूर्तन को आत्मसात करके रंग-उत्सव के रूप में ,अपनी कृति प्रस्तुत करते हैं। वह कहते भी हैं कि, ” मैं स्वांतसुखाय सृजन करता हूं , कला मुझे आनंद में डुबोती है । ”

आनंद में डूबकर रची गई कृतियां स्वभावत: अपने ‘ स्व ‘ में कुछ श्रेष्ठताएं लिए होती हैं। यह कलाओं का ‘साधारणीकरण’ है ; जहां रस की निष्पत्ति , कृति-कृतिकार (नाट्य -नट ) अथवा प्रेक्षक (विदग्ध ) में घटित होती हैं। अन्य प्रेक्षणीय दृश्य कलाओं से चित्रकला में इसका और भी विशिष्ट पहलू यह है कि कृति रचना के क्षणों के उपरांत भी अन्य के लिए बनी रहती है। जिससे भावक भविष्य में भी उसके आस्वाद से गुजरता रहता है । राजाराम व्यास कला के इसी आस्वाद से गुज़रने- गुज़ारने वाले कलाकार हैं। उनके चित्रों से फौरी तौर पर नहीं गुज़रा जा सकता ।
शैलीगत दृष्टि से ये चित्र, रेखाओं की लयात्मक गति तथा वृत्तों, वलयों के द्विआयामी संयोजन में आबद्ध चाक्षुष रूप हैं । उनकी रेखाएं रंग-आभा को बाथ में भरकर, आभासी छवियों का निर्माण करती हैं । ये छवियां एक दूसरे को अतिक्रमित एवं आवृत्त करती हुई, एक तीसरे ही बिंब का निर्माण करती है । यह तृतीयक बिंब कहीं, प्रकृति के पन्नों का स्वरूप है, तो कहीं, मानव देहाकृतियों का । देहाकृतियां भी अलिंग-चीह्नी है । वे स्त्री अथवा पुरुष के रूप में नहीं है, अपितु स्त्री पुरुष के मनोविकारों की थिर अवस्था की प्रतिनिधि बनकर आती हैं । अनेक वलयाकार रेखाएं एक दूसरे के ऊपर तथा आर-पार जाती हुई, अंतराल संयोजन को मोहक बनाती हैं । कलाकार ने सीधी तथा लंबवत रेखाओं की अपेक्षा, आंगिक मोड़ लेती रेखाओं को वरीयता दी है । यह उल्लेखनीय है कि, रेखाओं का प्रयोग किसी आकार-प्रयोजन से नहीं करके, उन्हें स्वतंत्र विचरण का अवकाश प्रदान करते हुए किया गया है । इन रेखाओं को ‘स्वातंत्र्य’, कलाकार द्वारा वर्षों तक रेखाओं के साथ किए गए अभ्यास के उपरांत ही चित्र में मिल पाता है। राजाराम की रेखाएं आकार मुक्त वे लयात्मक रेखाएं हैं जिन्हें, रूप का अवलंबन करने की आवश्यकता नहीं है। वे नितांत मौलिक वलय हैं।
रंग परतों का स्वच्छ लेप तथा महीन टेक्स्चर के साथ उकेरे गए द्विआयामी वर्तुल आकार उनके चित्रों की सर्वप्रमुख विशेषता कही जा सकती है। आकारों की लय वहां, प्रबल संवेगों की सृष्टि करती है । किंतु वे स्निग्ध हैं, चारु हैं, थिर हैं। यद्यपि ये आकार, पहचाने रूपों की प्रतिकृति नहीं होकर, अमूर्त अमूर्तन की ही व्यंजना है। चटक एवं आभामय रंगों की तान और टेक्स्चर को लेकर वहां अनेक प्रयोग दीख पड़ते हैं। प्रत्येक रंग को विशिष्ट दशा में संयोजित किया गया है। उसे रेखाओं से बांधा गया है। महनीयता यह कि, यदि किसी एक रेखा को पकड़ लें, तो जैसे, वह गतिमान होते हुए पूरे चित्र की गिरहें खोलती-सी प्रतीत होती हैं। रंगों के विरोधाभास का सामिप्य इस तरह बरता गया है कि, बरबस ही सौंदर्य-वृष्टि होती है।
इन चित्रों में प्रतीकों और बिंबों का मनोहारी अंकन भावक में विदग्धता का उद्घाटन करता है। चूंकि बिंब एवं प्रतीक समकालीन कला मुहावरों में अभिव्यंजित हैं अतः वे उस तरह से सादृश्य नहीं हैं, जैसे, सामान्य जगत की वस्तुएं होती हैं। असल में चित्र के साथ एकाकार होने पर ज्ञात होता है कि, वह सौंदर्य के गहरे निहितार्थ को संयोजित किए हुए हैं। चित्रकार का अभिधेय भी संभवत यही रहा है । इसी की व्याप्ति की तलाश में राजाराम अन्य केनवास या कपड़े को फलक पर चिपका कर भिन्न प्रकार का प्रभाव उत्पन्न करने की चेष्टा करते हैं। उनका यह प्रयोगात्मक प्रयास सफल भी रहा है । फिलहाल वे इसी तरह के काम में संलग्न है। यह संलग्नता निश्चित ही और भी श्रेष्ठ कृतियों को कला जगत के समक्ष उपस्थित करने में सक्षम होगी ।
चेतन औदिच्य
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