बरसों पहले कला में अमूर्तन और मूर्तन की अवधारणा को केंद्र में रखकर एक लघु फिल्म “ए स्ट्रोक विद स्क्वेयर” बनायीं गयी थी। जिसे पिछले दिनों जब एक बार फिर से प्रदर्शित किया गया तब कलाकारों साथ-साथ वरिष्ठ साहित्यकारों और कला मर्मज्ञों की दृष्टि में जो स्वीकृति और प्रशंसा मिली वह उल्लेखनीय है। कला एवं संस्कृति लेखक साधना राणा ने बहुत विस्तार से इस फिल्म के एक-एक पहलू को समझकर यह सुंदर और विशिष्ट आलेख लिखा। आलेखन डॉट इन के पाठकों के लिए प्रस्तुत है साधना राणा का यह आलेख एवं साथ में वरिष्ठ कलाकारों एवं कलाविदों की प्रतिक्रियाएं …….- मॉडरेटर
साधना राणा (कला व संस्कृति लेखक)
कला और कलाकार के दिलचस्प और रहस्यमयी दुनिया पर यूं तो अनेक साहित्य और सिनेमा की रचना हुई है। जिसे वैश्विक स्तर पर दर्शकों ने खूब सराहा और याद भी रखा लेकिन हिन्दुस्तान में कला पर निर्मित सिनेमा की बात करें तो वैसा कोई महत्वपूर्ण उदाहरण हमारे सामने नहीं आता। राजा रवि वर्मा, रविन्द्र नाथ टैगोर और कुछ अन्य महत्वपूर्ण कलाकारों के नाम यदि छोड़ दें तो फिर हिन्दी सिनेमा जगत ने भारतीय कला और कलाकारों को लेकर अपनी अभिव्यक्ति में अभी तक कोई विशेष रुचि नहीं दिखाई । हालांकि राजनेताओं, खिलाड़ियों, अपराधियों और समाज सुधारकों के उपर फिल्में जरूर बनती रही है। इसके पीछे के मनोविज्ञान के अनेक कारण हो सकते है जिसपर अलग से विचार किया जा सकता है। वहीं पाश्चात्य सिनेमा इसके ठीक उलट कला और कलाकारों को लेकर बेहद संवेदनशील रहा है। वहां कला, कलाकार, संगीतकार, साहित्यकार और अन्य रचनात्मक विधाओं के रचनाकारों को बतौर मुख्य विषय देखा गया और इस तरह अनेक कालजयी फिल्मों का निर्माण हुआ । लस्ट फौर लाइफ, सरवाइविंग पिकासो, फ्रिडा, कारवेजियों, मोदिगिल्यानी, पोलक, एमेडियस, गोया घोस्ट, उन चिन एंदलो, गर्ल विद ए पर्ल इयररिंग, आंद्रे रूबलो, द विन्सी कोड, एंजल्स एंड डेमंस, परफ्यूम जैसी अनेक चर्चित फिल्मों का निर्माण पाश्चात्य सिनेमा में कला और कला विषयों के प्रति प्रतिबद्धता और एक लंबी सुदृढ़ परंपरा को दर्शाता है। हिंदुस्तान में कला सिनेमा की यदि बात करें तो सिनेमा निर्माताओं से कहीं अधिक स्वयं कलाकारों ने फिल्मों में अनेक प्रयोग जरूर किये हैं ।
सत्तर के अंतिम दशक में प्रसिद्ध चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन द्वारा बनाई गई वृत्तचित्र “थ्रू द आई आफ ए पेंटर” खासा चर्चित रहीं थी और इस फिल्म को अनेक विश्व फिल्म उत्सवों में सराहना के साथ नेशनल अवार्ड भी प्राप्त हुआ। हुसैन ने गजगामिनी और मीनाक्षी जैसी हिन्दी फिल्मों का सफल निर्माण कर अपने रचनात्मक अभिव्यक्ति का अद्भुत परिचय दिया। भारतीय सिनेमा के शुरुआती दौर में रजा रवि वर्मा का हिन्दी सिनेमा का योगदान तो जगजाहिर है। हां कला में वृत्तचित्रों के निर्माण में एक निरंतरता जरूर रही है लेकिन वह भी ज्यादा दस्तावेजीकरण के लिहाज से, उनका कलात्मक पक्ष बहुत कमजोर रहा है । फिर भी यदा कदा कुछ फिल्मकार, कलाकार और साहित्यकार अब भी कला और कलाकारों के विषयों को छूते हुए कुछ रचनात्मक प्रयोग जरूर करते रहते हैं ।
इसी क्रम में 2006 में निर्मित कला के अन्तर्जगत् को छूती एक लघु फिल्म – “ए स्ट्रोक विद स्क्वेयर” की चर्चा यहां जरूरी है। कलाकार अरविन्द ओझा द्वारा लिखित और फिल्मकार धर्मेंद्र नाथ ओझा द्वारा निर्देशित इस फिल्म में कला सृजन प्रक्रिया, कलाकार की अंतर्दृष्टि, उसके द्वंद्वात्मक मनोभाव, दृष्टिकोण की विविधता, मूर्तन और अमूर्तन के प्रयोग और कला में समय की अवधारणा जैसे अनेक ऐसे महत्वपूर्ण पक्ष रहें है जो इस लघु फिल्म को विशिष्ट बनाते हुए कलात्मक दृष्टि के लिए एक जरूरी संदर्भ रचते है। विदित हो कि लगभग डेढ़ दशक से भी उपर बनी इस फिल्म का निर्माण अहमदाबाद स्थित मार्वल आर्ट गैलरी द्वारा किया गया था जिसने मकबूल फिदा हुसैन द्वारा निर्देशित चर्चित फिल्म गजगामिनी का भी निर्माण किया था। “ए स्ट्रोक विद स्क्वेयर” की कुल अवधि बाइस मिनट है और इसके केन्द्रीय भूमिका में गुजरात के दों स्वतंत्र चित्रकार शरद राठौर और अजय चौधरी हैं।
अजय चौधरी वर्तमान में गुजरात कैडर के एक पुलिस अधिकारी भी है। इस फिल्म का निर्माण राजकोट, अहमदाबाद, पोरबंदर और गिरवन के अलग-अलग लोकेशन पर हुआ था। अनेक भारतीय और अंतरराष्ट्रीय फिल्म उत्सवों का हिस्सा रहीं यह फिल्म अपनी कलात्मकता, संक्षिप्त संवाद शैली, कला की दार्शनिक दृष्टि और एक बेहतर कलात्मक शिल्प संरचना के लिए बेहद सराही गयी । इस सिनेमा से जुड़े प्रमुख लोगों में बतौर निर्देशक धर्मेंद्र नाथ ओझा, पटकथा लेखक अरविन्द ओझा, पार्श्व संगीत निर्देशक अनुपम मंगलम, कैमरामैन अंकित त्रिवेदी, कला निर्देशक अरविन्द ओझा तथा अश्विनी सतपथी और मुख्य एडिटर अमित वैद्य रहें थे। निर्देशक धर्मेंद्र नाथ ओझा की तब यह दुसरी लघु फिल्म थी। इसके पहले “बॉम्बे ऑफ मंटो” जैसी चर्चित “डोक्युड्रामा” फिल्म बनाकर उन्होंने मीडिया और “मीफ” जैसे फिल्म फेस्टिवलों में खासी सुर्खियां बटोरी थी ।
पिछले दिनों दिल्ली में कला जगत के लोगों के बीच इस फिल्म को लगभग डेढ़ दशक बाद पुन: प्रदर्शन किया गया। अनेक कलाकारों और साहित्यकारों ने इस कलात्मक फिल्म को देखा और खुब सराहा । कला में सृजन की अवधारणा को एक नये दृष्टिकोण से देखने की पहल इस फिल्म का केन्द्रीय पक्ष है । इसके विषय वस्तु और इस फिल्म के नवीन प्रयोग दृष्टि पर पुछे गए एक सवाल में इस फिल्म के मुख्य सूत्रधार रहें लेखक और कला निर्देशक अरविन्द ओझा ने कहा – दरअसल यह फिल्म सृजन, सर्जक और समय के एक ऐसे त्रिकोणीय अवधारणा को बारी-बारी से रेखांकित करती हुई आगे बढ़ती है जिसमें एक कलाकार अपने रचनात्मक संसार का आत्मावलोकन करता हुआ इस जीवन में अमूर्तन तथा मूर्तन जैसी अवधारणाओं के सही अर्थ को ढूंढने का सहज प्रयास करता है। विदित हो कि अरविन्द ओझा मूलतः एक चित्रकार, कवि और कला चिंतक है साथ ही देश की प्रतिष्ठित सामाजिक और रचनात्मक संगठन “लोकनायक जयप्रकाश राष्ट्रीय कला और संस्कृति प्रतिष्ठान” से वे बतौर राष्ट्रीय सचिव भी जुड़े हुए है। इस फिल्म को देखकर अनेक वरिष्ठ कलाकारों और साहित्यकारों ने अपनी महत्वपूर्ण प्रतिक्रियाएं भी दी ।
प्रतिक्रियाएं…………………………………
प्रो. भवानी शंकर शर्मा
( पूर्व डीन, फैकल्टी ऑफ़ फाइन आर्ट्स, बनस्थली विद्यापीठ एवं राजस्थान ललित कला अकादेमी के पूर्व चेयरमैन)
ए स्ट्रोक विद स्क्वायर फिल्म मैं प्रकाश अंधेरे का बड़े नाटकीय रूप में प्रयोग किया हैl अंधेरे से प्रकाश द्वारा अनेक रूपा कार अनछुए बिंबो को स्पेस में अभिव्यक्ति व गति देते हैं l आकृतियां उभरती हैं,संवाद करती हैं और विमर्श की नई संभावनाओं को जगाती हैं। अमूर्त -मुर्त रूप रंगों में अठखेलियां करते संयोजन के सौंदर्य व विविधता मैं जादुई आकर्षण रखते हैं l कलाकार द्वारा रूपाकारों में नित नए प्रयोग व दर्शनीय खोज की निरंतरता उसे सदा चित्र रचना के लिए प्रेरित करती रहती है। यही उसकी सफलता का राज है l फिल्म को आकर्षक व दर्शनीय बनाने में आपका तकनीकी कौशल महत्वपूर्ण है l हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं
अशोक आत्रेय
(वरिष्ठ कथाकार, कवि, समीक्षक और चित्रकार)
रंगों का जीवन की गति से संवाद, बनते व बिगड़ते बिम्ब और उनके मूर्त अमूर्त रूपाकारों की अन्तर्ध्वनियां। स्मृतियों की अंतहीन पदचापों से उभरते संवेदनाओं के संदर्भ। इन सबके बीच से गुजरता कोलाहल, रोशनी और अंधेरों की आवाजाही। अमूर्तन, क्षितिज तक जाकर धीरे और तेज गति से लौटती चेतना और उसकी स्वतंत्र उड़ान। वस्तु और भाव जगत के मंथन। रचनात्मकता के घुलनशील वक्र, रंग, रेखाएं, वर्ग, सब कुछ कहीं आकार लेता अनाकार से – शब्द से, ध्वनि से और रंगों व वर्णों से अठखेलियां करता जैसे। ऊर्जा के आलोक व स्पंदन के आवेग से बराबर टकराता, उलझता और नये आकारों में ढलता। क्या है यह सब ? क्या यही है कोई सृष्टि ? अपरिभाषित ही सही लेकिन कहीं तो है सार्थक वह एक अमृता, कोई फूल की उपमा जैसी समुद्र की तरंग, आकाश से उतरती कोई एक अप्सरा, देव, दानव और गंधर्व की प्रतिमा, जैसे कोई मानव शिशु आकार लेता गर्भ में…
अपरिमित लोक, परलोक, आस्था और अनास्था के दिव्य आत्मलोक ! किसी भी गोलार्द्ध चेतना से मुक्त होते जैसे। फिर भी वहीं एक वर्ग । लगातार लगातार । अपनी अनंत यात्रा में नील वर्णी लोहित व अन्य रंगों के साथ प्रमुदित और उत्साहित होता बार बार । वहीं-वहीं वर्ग – ए स्ट्रोक विद स्क्वेयर …
ज्योतिष जोशी
( प्रसिद्ध लेखक, कला समीक्षक एवं विचारक)
‘ स्ट्रोक विद स्क्वायर ‘ एक लघु कला फ़िल्म है जिसके निर्देशक धर्मेन्द्रनाथ ओझा हैं और फ़िल्म का पटकथा- लेखन और कला निर्देशन अरविंद ओझा ने किया है। कुल बाईस मिनट की यह फ़िल्म दृश्य और अदृश्य की कला अनुभूतियों को बेहद सधे हुए अंदाज में प्रस्तुत करती है। कला स्वयं को परिभाषित नहीं करती और न ही सत्य के विविध रूपों को खोज पाने का कोई दावा ही, वह तो अनन्त में जीवन को, उसके क्षणों को दृश्य करने की एक मानवीय पहल है। दो स्तरों पर फ़िल्म अपने कथ्य को दृश्य करती है-एक स्तर उस कलाकार का है जो अपनी आंखों से दुनिया को देख सकता है, तो दूसरा स्तर ऐसे कलाकार का है जो अंधत्व का शिकार है। कला दोनों जगह है, एक में वह रंग की अभिव्यक्ति है, क्षण की अभिव्यक्ति है, जीवन की अभिव्यक्ति है और सीमा को असीम में समझने की युक्ति भी है। दूसरे स्तर पर वह स्पर्श की अनुभूति है और उसके माध्यम से मानसिक और चेतना के स्तर पर वह आह्लादकारी प्रतीति है जिसकी व्याख्या सम्भव नहीं।
कला, और वह भी आधुनिक कला समय की माप से बाहर है और समय को बांधने का एक दुर्वह प्रयत्न भी। चित्रफलक के रंग, तूलिका के आघात, रंगों के प्रवाह और उसकी मौन भंगिमा को अनुभूति में विन्यस्त करने की प्रक्रिया में कला कैसे बाहर से भीतर और भीतर से बाहर की यात्रा बन जाती है, इसे भी इस लघु फ़िल्म में दृश्य किया गया है। अरविंद ओझा के आलेख के साथ समुचित छायांकन से फ़िल्म पूरी आनुभूतिक दृश्यता के साथ खुलती है जो इसकी सफलता का प्रमाण है। आधुनिक कला के विमर्शों में उतरते हुए फ़िल्म को कला की बहुस्तरीयता में समझने की इस कोशिश को निश्चय ही सराहा जाना चाहिए। हमें इससे गुजरते हुए कला के आधुनिक मानकों की दृश्यता ने बहुत प्रभावित किया।
अरविन्द ओझा
(पटकथा लेखक और कला निर्देशक)
यह फिल्म अपनी यात्रा के अंत में हमारे सामने कुछ मौलिक प्रश्न खड़ा करती है और पूछती है कि कला का विसर्जन बिन्दु क्या है ? क्या कला समय से इतर कोई स्वतंत्र अवधारणा है ? क्या समय के अनंत विस्तार में कला अपने प्रतीकों और संदर्भों से कभी मुक्त हो सकती हैं ?