आज कलाकार / कलाचिन्तक जे . स्वामीनाथन की जयंती पर कला जगत उन्हें याद कर रहा है I याद करने के इसी सिलसिले में प्रस्तुत है जयंत सिंह तोमर का यह आलेख, आलेखन डॉट इन के पाठकों के लिए I कला और साहित्य से लेकर सामाजिक एवं राजनैतिक मंचों पर भी समान रूप से सक्रिय जयंत सिंह तोमर अपने युवा दिनों में शांति-निकेतन से जुड़े रहे I पत्रकारिता से लेकर अध्यापन तक में अपना योगदान देने के साथ-साथ वे विभिन्न विषयों पर अपनी कलम चलाते रहते हैं I इन्हीं विषयों में से एक है उनका कला लेखन भी I अलबत्ता कला लेखन के मामले में #जयंत सिंह तोमर महानगरों से जुड़े कला लेखकों / समीक्षकों से बिल्कुल भिन्न हैं I क्योंकि उनके कला लेखन का बड़ा हिस्सा देश के ग्रामीण अंचलों और अपेक्षाकृत छोटे शहरों के कलाकारों पर केन्द्रित रहता है I जयंत तोमर अपने इस आलेख में स्वामीनाथन जी से जुड़े कुछ अनसुने अनछुए प्रसंगों के आलोक में भारतीय कला के लिए उनके योगदान की चर्चा कर रहे हैं I -संपादक
जयंत सिंह तोमर
चित्रकार – कलाविद जगदीश स्वामीनाथन उन स्वतंत्र चिंतकों में थे जिनके लिए किसी भी वर्चस्ववादी विचार से अनुकूलन सम्भव नहीं था। कितना भी शक्तिशाली वैचारिक केन्द्र हो उसके उपग्रह बनकर चक्कर काटना उनके स्वभाव में नहीं था I इसलिए चित्रकार अखिलेश ने स्वामी पर जो किताब लिखी है उसका शीर्षक ‘के विरुद्ध’ एक तरह से ठीक ही है।
अगर हर कोई सत्ताधीश,नौकरशाह, धन्ना – सेठ, दल के नेता और अपने नियोक्ता का अनुगत होकर उसके इर्द-गिर्द चक्कर लगायेगा और ‘हां ‘ में ‘हां ‘ मिलायेगा तो स्वतंत्र विचार कहां से पैदा होगा?
जगदीश स्वामीनाथन जब थे तब भी दुनिया ऐसी ही थी। घरेलू बैठकों में जो निरंतर बोलते थे सभा गोष्ठियों में भी वे ही बोलते थे। थोड़ा बहुत बोलने का अवसर उन्हीं को मिल पाता था जिनकी ‘कंडीशनिंग’ हो गयी हो, वैचारिक अनुकूलन हो गया हो।
जिस समय दुनिया का अधिकांश कला- चिंतन ‘यूरो- सेन्ट्रिक ‘ या पश्चिम केन्द्रित था तब जगदीश स्वामीनाथन जी ने साहस के साथ यह कहा कि आदिवासी कलाएं उतनी ही समकालीन हैं जितनी कि दुनिया की अन्य आधुनिक और समकालीन कलाएं।
अविभाजित मध्यप्रदेश में जनजातीय कलाओं की पहचान करने के लिए विभिन्न दिशाओं में जिन कला- पारखियों को उन्होंने भेजा उनमें विवेक टेम्बे भी थे। विवेक टेम्बे ने ही मंडला के पाटनगढ़ में जनगढ़ सिंह श्याम की खोज की। कुछ उसी तरह जैसे अफ्रीका महाद्वीप के घने जंगलों में जम्बेजी से नील नदी के तट पर पहुंचे डेविड लिविंगस्टोन से पत्रकार हेनरी मोर्टन स्टेनली ने कहा- ‘ Dr. Livingston! I presume.’
आज ‘ जनगढ़ कलम ‘ खुद में एक स्वतंत्र शैली है जिसके अंतर्गत अनेक कलाकार गोंड चित्रकला में अनेक प्रकार के प्रयोग करते हुए चित्र बना रहे हैं। मध्यप्रदेश की आदिवासी कला को आज यदि वैश्विक पहचान मिली है तो उसके पीछे जगदीश स्वामीनाथन और उनके सहयोगियों की कला दृष्टि ही है।
इब्राहीम अल्काजी के आर्ट हेरीटेज प्रकाशन के लिए श्री मुश्ताक खान ने ‘ जनगढ़ सिंह – द ट्राइबल आई ‘ शीर्षक से एक महत्वपूर्ण लेख लिखा था। औरोगीता दास ने जनगढ़ पर एक अच्छी किताब लिखी है। अलका पांडे की भी एक किताब आई है – ‘From mudwalls to paper and canvas’ I इस तरह के लेख और प्रकाशन कैसे मध्यप्रदेश की आदिवासी कला के लिए मील का पत्थर बने इस पर छह जुलाई को जनगढ़ सिंह श्याम के जन्मदिन पर विस्तार से चर्चा करेंगे। लेकिन जगदीश स्वामीनाथन न होते तो मध्यप्रदेश , भारत- भवन और आदिवासी कला को समानांतर महत्व इस गति से शायद नहीं मिलता।
जगदीश स्वामीनाथन को नजदीक से जानने वालों के संस्मरण यदि सुनेंगे तो ऐसा लगेगा कि स्वामीजी एक ‘ व्हिम्सिकल ‘ शख्सियत थे। वे कब किससे नाराज होंगे, कब किससे खुश होंगे, सत्ताधीशों के सामने कुर्ते के नीचे धोती लपेट कर आयेंगे या किसी और रंग रूप में, कहीं किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति के सामने कब बीड़ी सुलगाने लगेंगे, इस विषय में कुछ भी नहीं कहा जा सकता था। उनके कलाकार मित्र, शायद अम्बादास ने जो स्वेटर उन्हें दिया था उसे आनंद के साथ पहनते हुए वे
कई जाड़े निकाल सकते थे। मुक्त मन के दार्शनिक – चिंतक – कलाकार की ऐसी ही छवि भारतीय मानस को लुभाती भी है। पिकासो की जहाजी बेशभूषा शायद ही उतना आकर्षित करे।
वैसे साल 1950 के दशक में जब स्वामीनाथन कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े, फिर कला की समझ विकसित करने पोलैंड गये, सीपीआई से मोहभंग हुआ, तब के स्वामीनाथन और मध्यप्रदेश के स्वामीनाथन में जमीन आसमान का फर्क था। कला समीक्षक प्रयाग शुक्ल रह-रह कर शिमला की कोटखाई के परिवेश में स्वामीनाथन को याद करते हैं। वह स्मृतियां एक भिन्न स्वामीनाथन से हमारा परिचय कराती हैं। साल 1968 में जब स्वामीनाथन को नेहरू फेलोशिप मिली और उन्होंने ‘significance of traditional Numan to contemporary art ‘ पर अध्ययन किया तो वह भी उनकी कला – दृष्टि का एक नया पड़ाव था।
जीवनसंगिनी भवानी जी को स्वामीनाथन ने पहली बार एक जनसभा में देखा था। परिणय- सूत्र में बंधने के बाद दोनों जब मध्यप्रदेश के बैतूल में आये तब उनके पुराने शुभचिंतक अंजलि में धवल- सुरभित फूल लिए अचानक प्रकट हुए। स्वामी जी के मन में मध्यप्रदेश के प्रति सहज आकर्षण सम्भवतः तभी से उपजा।
स्वामीनाथन कला में लोकतंत्र, आंदोलन और व्यापक सहभागिता के पक्षधर रहे। ललित कला अकादमी में कलाकारों की कांस्टिट्युएंसी और निर्वाचन प्रणाली उन्हीं की देन मानी जाती है। कला – जगत में मुखर विरोध को प्रकट करना लोगों ने उनसे सीखा। ठीक वैसे ही जैसे फ्रांस में प्रदर्शनी से बाहर कर दी गयीं कलाकृतियों की प्रदर्शनी कलाकारों ने लगा दी थी और कला दृष्टि की एक नई धारा ने वहां से जन्म लिया। ग्रुप 1890 का गठन और contra जैसी पत्रिका का प्रकाशन ऐसे ही विद्रोही चित्त से उपजी परिघटना है।
‘ शुभ – लाभ’ से परे स्वामीनाथन साधारण जन की सृजनशीलता के अन्वेषी रहे। वे ऐसे आज़ाद ख्याल थे कि सामान्य व्यक्ति भी उनके लिए असाधारण हो सकता था और जो खुद को असाधारण मानते थे उनके सामने वे धोती लपेटे खड़े होकर बीड़ी सुलगा सकते थे। यह बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि कि भारत – भवन भोपाल में रूपंकर के निदेशक के रूप में उनकी कुल परिलब्धियां उनके सहयोगियों से कम थी। भारत – भवन में उनके समय प्रदर्शनी – अधिकारी रहे मूर्तिकार श्री रौबिन डेविड ने नीति निर्धारकों का ध्यान इस ओर आकर्षित कर इस विसंगति को दूर करने की कोशिश की थी। कलाजगत के श्रेष्ठियों की गद्दी पर बैठकर रसरंजन करते हुए उन्हें याद किया जाये इससे उन्हें कोई आपत्ति तो न होती, लेकिन उन्हें शायद यही ज्यादा अच्छा लगता कि कलाकार, चिंतक और कलाप्रेमी किसी चौपाल पर बैठकर उनसे जुड़ी यादों और उनके फलसफे को साझा करें। उनके जाने के लगभग तीन दशक बाद देशभर के तीस नये लोग भी उन पर बात करते तो अलग अलग रंगों में चिड़िया, पहाड़ और पेड़ बनाते बनाते आकाश में बैठे स्वामी जी प्रसन्न होते।
आवरण चित्र – भारत भवन में मूर्तिकार रौबिन डेविड से बात करते हुए जगदीश स्वामीनाथन