वरिष्ठ कलाकार अशोक भौमिक अपनी चित्रण शैली के साथ-साथ अपने लेखन के लिए भी जाने जाते हैं I अपने शोधपूर्ण लेखों के जरिये जहाँ उन्होंने कला जगत में प्रचलित धारणाओं एवं मान्यताओं को नए सिरे से व्याख्यायित किया है I वहीँ कला जगत को अनेक प्रचलित भ्रांतियों से मुक्त भी किया है I बात चित्रण की हो या लेखन की, स्थापित मान्यताओं से इतर हटकर अपनी बात रखने की उनकी शैली ने, कलाकारों विशेषकर युवा कलाकारों के बीच उन्हें लोकप्रिय भी बनाया है I प्रस्तुत है रबीन्द्र नाथ टैगोर और उनकी कला पर अशोक भौमिक का यह विश्लेष्णात्मक आलेख….

भारतीय साहित्य में रबीन्द्रनाथ ठाकुर की ख्याति विश्व-कवि के रूप में होने के साथ-साथ एक समर्थ कथाकार, नाटककार, चित्रकार और सामाजिक चिन्तक के रूप में भी है। उनकी रचनाओं में अपने समय की गहरी समझ दिखाई देती है। भारतीय महाकाव्यों और मिथकों पर आधारित रबीन्द्रनाथ ठाकुर की अनेकानेक रचनाओं में हम रचना की पृष्ठभूमि में उपस्थित उनकी आधुनिक और समकालीन सोच को साफ़ महसूस कर सकते हैं। उनकी रचनाओं में अन्तर्निहित विचार, उनके शिल्प के वैभव में खोते नहीं बल्कि इसी कारण वे शास्त्रीय होने के बावजूद लोकप्रिय हैं और लोकप्रिय होकर भी शास्त्रीय!
उनका युग बंगाल के औपनिवेशिक और सामन्ती प्रवृत्तियों का एक अन्धकार काल था। अंग्रेजों और (कुछ सीमित क्षेत्रों में) फ्रांसीसियों का उपनिवेश बनने के ऐतिहासिक कारणों के चलते बंगाल में एक महानगर केन्द्रित सभ्यता का विकास हो चुका था जो दुर्भाग्य से कलकत्ते में रहने वाले धनी वर्ग तक ही सीमित थी। दूसरी तरफ़ बंगाल का विशाल ग्रामीण भाग था, जिसे अशिक्षित और कुसंस्कारों से ग्रस्त मान लेना शहरी ‘बाबुओं’ के लिए परम आत्म-सन्तुष्टि का कारण था। इस ग्रामीण बांग्ला को रबीन्द्रनाथ ठाकुर ने नज़दीक से जानने की कोशिश की थी। अपनी अनेक रचनाओं; जैसे- घोरे बाईरे, नोष्टो नीड, चार अध्याय आदि में जहाँ वे एक रबीन्द्रकालीन औपनिवेशिक शहर कलकत्ते के अभिजात वर्ग के अन्तर्द्वन्द्वों का चित्रण करते हैं, वहीं चित्रांगदा, पुजारिनी, श्यामा, कर्ण-कुन्ती संवाद, वाल्मीकि प्रतिभा आदि में वे पौराणिक कथाओं तक जाते हैं।
रबीन्द्रनाथ ठाकुर अपनी रचनाओं में ग्रामीण, कस्बाई, महानगरीय जीवन और संस्कृतियों तथा वर्तमान एवं अतीत के बीच सहज आवाजाही करते हैं। उनकी पारलौकिक विषयों पर लिखी गद्य रचनाएँ (क्षुधितोपाषान, मोनिहारा आदि) अपने वैविध्य के कारण हमें चकित करती हैं। अचलायतन, रक्तकरबी जैसी अपनी अनेक कालजयी रचनाओं के माध्यम से वे आने वाले वक़्त के जन को सम्बोधित करते हुए नज़र आते हैं। समकालीन से पुराण तक! रबीन्द्रनाथ ठाकुर ने सदियों पुराने सामन्ती मूल्यों में फलते-फूलते धार्मिक पाखण्ड, नियतिवाद और ब्राह्मणवाद के खिलाफ अपनी सार्थक रचनाओं के जरिये जनता में आधुनिक और वैज्ञानिक विचारों को संचारित करने का बारम्बार प्रयास किया।
वास्तव में देशप्रेम का अर्थ उनके लिए यही था ! रबीन्द्रनाथ की रचनाओं के बारे में यहाँ यह जानना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि वे अपनी रचनाओं के विषयों और उनके विश्लेषणों में अत्यन्त आधुनिक होने के बावज़ूद कला (नाटक, कविता, कहानी, उपन्यास और गीतों आदि) में इसकी पूर्व-स्थापित संरचना या ढाँचे में कोई बहुत बड़ा क्रान्तिकारी प्रयोग करते नहीं दिखते। रबीन्द्रनाथ ठाकुर जहाँ अपने आरम्भिक वर्षों में गुरु ग्रन्थ साहब और कबीर से प्रभावित हुए, वहीं आगे चलकर मूर्ति-पूजा विरोधी ब्रह्म-समाज से गहराई से जुड़ गए थे। इन सब का प्रभाव उनके समस्त रचनाकर्म में दिखाई देता है।
उनकी साहित्यिक रचनाएँ, उनके अपने मानवतावादी दर्शन पर उनके विश्वास का प्रतिनिधित्व करती हैं। वे पाठकों के ‘मनोरंजन’ को अपने सरोकारों से अलग नहीं होने देते, पर इन सबके ठीक विपरीत, अपने चित्रों में वे भारतीय चित्रकला के परम्परागत स्वरूप को सीधे चुनौती देते हैं। चित्रकला सम्बन्धी उनके विचार, जो उन्होंने अपने लेखों, पत्रों और व्याख्यानों
में व्यक्त किये हैं; हमें चित्रकला के एक सर्वथा नए सत्य से परिचित कराते हैं।
हम सब इस तथ्य से परिचित हैं कि रबीन्द्रनाथ ठाकुर ने अपने जीवन के अन्तिम दस-बारह वर्षों में पूरी तन्मयता से चित्र-रचना की थी। उन्होंने चित्रकला को ‘शेष बोयेशेर प्रिया’ या ‘जीवन संध्या की प्रेयसी’ माना था। रबीन्द्रनाथ ठाकुर ने चित्रकला को ‘खेल के बहाने वक़्त गुजारने की संगिनी’ भी कहा था (खेलार छले बेला काटानोर शोंगिनी,एई चित्रोकला)। जीवन के अन्तिम पड़ाव पर पहुँचकर जब कोई किसी नए काम को इतनी तन्मयता के साथ करता है तो कतई ज़रूरी नहीं कि यह उनके रचना कर्म का एक विस्तार मात्र ही हो। रबीन्द्रनाथ ठाकुर अपने जीवन में लम्बे समय तक कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास, गीत, नृत्य आदि विधाओं में पूरी ऊर्जा और तन्मयता के साथ सक्रिय रहे किन्तु जीवन के अन्तिम दस वर्षों की अवधि में उन्होंने चित्रकला को जिस गम्भीरता से लिया, उसे उनके रचना कर्म का महज एक ‘विस्तार’ नहीं माना जा सकता, बल्कि ऐसा अनुभव होता है कि चित्रकला को उन्होंने अपने अन्य रचना-कर्म का ‘विकल्प’ मान लिया था।
शब्दों की दुनिया के कोलाहल से निकलकर एक खामोश कला में खो जाने के इस सफ़र को हम शायद उन्हीं की बातों से बेहतर समझ सकते हैं। जैसा कि हम जानते हैं, अपने पत्रों में अपने विचारों को पिरो देने की उनमें अद्भुत क्षमता थी। अपने पत्रों में, कभी-कभी वे बेहद सहज और मज़ाकिया लहज़े में अपनी बातें भी करते हैं किन्तु अधिकांश पत्रों को पढ़ते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि वे बहुत सजग रूप से अपने विचारों के दस्तावेज़ रच रहे थे। अपनी मज़बूरियों, अपने दुःखों का उन्होंने बहुत कम शब्दों में जिक्र भर किया है। ठीक उसी प्रकार वे अपने विचारों की भी कोई व्याख्या प्रस्तुत नहीं करते।
अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में उन्होंने अपने पत्रों में चित्रकला पर जितना लिखा, उतना पहले कभी नहीं लिखा। अपने पत्रों, लेखों और व्याख्यानों में जब भी उन्होंने चित्रकला पर लिखा या कहा, उनमें वे एक स्वतन्त्र और निर्भीक कला चिन्तक की भूमिका में कला की कई स्थापित मान्यताओं के खिलाफ एक नई ज़मीन तैयार करने का प्रयास करते दिखे। यहाँ यह भी सत्य है कि रबीन्द्रनाथ ठाकुर इस बात को बख़ूबी समझते थे कि उनके अपने देशवासी उनकी बातों से आसानी से सहमत नहीं होंगे। पत्रों, व्याख्यानों और लेखों के अलावा अपने दैनन्दिन रचना कर्म के साथ-साथ जब-जब कोई विचार उनके मन में आता, रबीन्द्रनाथ ठाकुर उसे अपनी डायरी में लिखकर रख लेते थे।
उनकी ये टिप्पणियाँ जीवन, रचना, किसी घटना या किसी स्थान पर कभी-कभी स्वीकारोक्तियों के रूप में भी नज़र आती हैं। इन समस्त संक्षिप्त टिप्पणियों को संकलित कर सन् 1912 में ‘छिन्न पत्र’ के नाम से प्रकाशित किया गया था, जिसमें पहली टिप्पणी या लघु-लेख अक्टूबर, 1885 का है। इसी पुस्तक में प्रकाशित दिनांक 17 जुलाई 1893 की एक टिप्पणी रबीन्द्रनाथ की कला-यात्रा को समझने में हमारी मदद करती है। वे लिखते हैं, “अगर मुझे सच कहना हो तो मैं कहूँगा कि यह जो चित्र-विद्या है, उसकी ओर भी मैं हरदम एक हताश प्रेम की लालच भरी निगाहों से देखता रहा हूँ, हालाँकि उसके मिलने की मुझे कोई उम्मीद नहीं है। साधना करने की अब उम्र नहीं रही। दूसरी विद्याओं की तरह उसे आसानी से नहीं हासिल किया जा सकता है…। बस, केवल कविता को साथ लिए चलूँ, यही सबसे आसान है मेरे लिए। लगता है, इसी (कविता) ने ही मुझे अपना सब-कुछ सौंपा है!”
रबीन्द्रनाथ ठाकुर के इस बयान से यह स्पष्ट है कि उनका चित्रकला के प्रति भले ही आकर्षण क्यों न रहा हो, चित्र-रचना की बात तो वह कतई नहीं सोच रहे थे। पर इसके सात वर्षों बाद (17 सितम्बर, 1900 ई.) में जगदीश चन्द्र बोस (लब्धप्रतिष्ठ वैज्ञानिक और कला मर्मज्ञ) को लिखे एक पत्र से हमें पता चलता है कि रबीन्द्रनाथ ठाकुर शायद चित्र-रचना की ओर धीरे-धीरे आकृष्ट हो रहे थे। यहीं पर यह भी समझ में आता है कि ऐसा वे किसी पूर्णकालीन या पेशेवर चित्रकार बनने के उद्देश्य से नहीं कर रहे थे।
“यह जानकर आपको आश्चर्य होगा कि मैं एक स्कैच बुक लेकर चित्र बना रहा हूँ। कहना न होगा कि मैं ये चित्र पेरिस की किसी प्रदर्शनी के लिए नहीं बना रहा हूँ…। पर जिस तरह से अपने बदसूरत बच्चे के लिए माँ के मन में एक ख़ास प्रेम होता है, उसी प्रकार जो विद्या नहीं आती, उसके प्रति लोग दिल से एक ख़ास आकर्षण महसूस करते हैं। इसीलिए जब मैंने तय कर लिया कि अब थोड़ा आलस का मज़ा लूँ, तब खोजते-खोजते मेरे हाथों चित्रकला आ लगी। इस दिशा में कुछ हासिल करने में सबसे बड़ी दिक्कत यह आ रही है कि जितना मैं पेन्सिल का उपयोग कर रहा हूँ, उससे भी ज़्यादा मुझे रबर के इस्तेमाल करने का अभ्यास होता जा रहा है, इसलिए मृत राफ़ेल (विश्व प्रसिद्ध इतालवी चित्रकार : 1483-1520 ई.) अपनी कब्र में निश्चिन्त होकर सोये रह सकते हैं कि मेरे हाथों उनके यश में कोई कमी नहीं होने वाली!”

रबीन्द्रनाथ ठाकुर, जो सन् 1900 ई. में चित्र-रचना के बारे में लिखते हुए स्पष्ट कहते हैं कि पेरिस (विश्व में चित्रकला का सबसे महत्वपूर्ण माना जाने वाला केन्द्र) में प्रदर्शनी करने के लिए चित्र नहीं बना रहे हैं। वही रबीन्द्रनाथ ठाकुर तीस साल बाद अपनी लगन और आत्मविश्वास के चलते एक ऐसे स्तर तक पहुँच जाते हैं जहाँ उसी शहर यानी कि पेरिस की गैलरी पिगाले में (मई 2, 1930 से मई 19, 1930 ई.) उनकी पहली प्रदर्शनी का आयोजन होता है। यही नहीं, मात्र एक वर्ष (मई 1930 से मई 1931 ई.) के दरम्यान फ्रांस, इंग्लैंड, जर्मनी, डेनमार्क, स्विट्ज़रलैण्ड, रूस और अमेरिका में उनकी एकल प्रदर्शनियों का सफल आयोजन होता है।
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रबीन्द्रनाथ ठाकुर के चित्रों को लेकर तत्कालीन भारतीय कला-जगत क्या सोच रहा था, यह शायद इतिहासकार बता पाएँगे, पर रबीन्द्रनाथ ठाकुर स्वयं अपने रचनात्मक जीवन में आए इस नए परिवर्तन के प्रति बेहद सजग थे और यह ख़ूब समझते थे कि भविष्य उन्हें जब भी याद करेगा, उनके कलाकार की भूमिका को काटकर याद नहीं कर सकेगा। रबीन्द्रनाथ ठाकुर दिनांक 24 अक्टूबर, 1930 ई. को एक पत्र में लिखते हैं, “मैंने (पहले) कभी चित्र नहीं बनाये थे, सपने में भी यह यक़ीन नहीं किया था कि कभी चित्र बनाऊँगा। पिछले दो-तीन वर्षों में मैंने बड़ी तादाद में चित्र बनाये और यहाँ (विदेश में) लोगों ने उनकी तारीफ़ भी की है… जीवन-ग्रन्थ के सभी अध्याय जब समाप्त होने को आये हैं, तब एक अभूतपूर्व ढंग से मेरे जीवन-देवता ने उसका परिशिष्ट लिखने के लिए मुझे साधन जुटा दिया है।”
रबीन्द्रनाथ ठाकुर अपने जीवन के अन्तिम दौर में चित्रकला से कितनी गहराई से जुड़ गए थे, इस बारे में हम सभी जानते हैं पर उनका एक ख़ास बयान हमें कई बातों पर सोचने के लिए मज़बूर करता है। अपने एक पत्र में (07 नवम्बर, 1928 ई. को) एक स्थान पर वह लिखते हैं कि, “अब मैं चित्रकला से इस कदर जुड़ गया हूँ कि प्रायः यह भूल जाता हूँ कि मैं कभी कविता भी लिखा करता था।” निस्सन्देह यह एक बेहद महत्वपूर्ण स्वीकारोक्ति है क्योंकि यह उस व्यक्ति का बयान है जिन्होंने न केवल असंख्य कविताएँ रचीं, बल्कि जिन्हें कविता के लिए ही नोबेल पुरस्कार मिला था और जो विश्व-कवि के रूप में प्रतिष्ठित हैं। ऐसा लगता है कि उन्हें चित्रकला में ही ‘मुक्ति’ का वह आनन्द मिला था, जिसे वे शायद उम्र भर साहित्य और अन्य कला विधाओं में तलाशते रहे थे।
चित्र-रचना में वे किस कदर डूब गए थे, इसका प्रमाण श्री अमिय चक्रवर्ती को लिखे एक और पत्र में मिलता है। “आजकल लिखने से ऊब हो गयी है मुझे। मेरा दिल आदतन बस चित्र बनाने को करता है। मेरा कलाकर्म अब दौड़ रहा है बस चित्रों (चित्र-रचना) की ओर। इस बीच अगर कहीं से भाषण देने की फरमाइश आती है तो मेरा धैर्य टूट जाता है। पर क्या करें! दूसरा कोई उपाय भी तो नहीं… टैगोर को कभी शिक्षा-संस्कारक बनना पड़ रहा है, तो कभी ग्राम-संस्कारक और कभी विश्व-संस्कारक। अब सारे वेष त्यागकर चित्रकूट के शीर्ष पर एकान्तवास करने को मन करता है।” (23 अक्टूबर, 1934)।
इसी बात को रबीन्द्रनाथ 12 मार्च, सन् 1938 को विलियम रोटेन्सटाइन को लिखे पत्र में भी दोहराते हैं, “….और यह चित्रकला, मेरे मन की नियमित क्रीड़ा-साथी बन मुझे साहित्यिक वाचालता (talkativeness) या मुखरता से ज़रूरी विकर्षण प्रदान कर रही है। यह मानो एक सपना हो…!”

रबीन्द्रनाथ ठाकुर कितनी गहराई से चित्रकला से जुड़ते चले गए थे, इसका प्रमाण हमें इन टिप्पणियों से मिलता ज़रूर है, पर प्रतिभा के उस विस्फोट का हम शायद ही अनुमान लगा सकते हैं। विश्व के अनेक ऐसे रचनाकार हैं, जिन्होंने सत्तर की उम्र के बाद भी अपनी रचनात्मक सक्रियता को कम नहीं होने दिया, किन्तु एक नितान्त नई विधा में, बिना किसी व्यवस्थित कला-शिक्षा के, रबीन्द्रनाथ ठाकुर का अपनी बढ़ती उम्र में चित्रकला के क्षेत्र में आगमन और अपने जीवन के अन्त तक उत्तरोत्तर बढ़ती उनकी सक्रियता हमें अचम्भित करती है। शायद पैशन, आवेश, अनुराग या जुनून शब्द इसकी ठीक-ठीक व्याख्या नहीं कर सकते।
विख्यात फिल्म निर्देशक और कथाकार सत्यजीत राय ने रबीन्द्रनाथ ठाकुर के चित्रों के विषय में कहा है, “रबीन्द्रनाथ ठाकुर के चित्रों और रेखाचित्रों की संख्या दो हज़ार से कहीं ज़्यादा है। चूँकि उन्होंने (चित्र-रचना का कार्य) देर से शुरू किया था, यह एक चकित करने वाली उर्वरता है। यहाँ इस बात का विशेष उल्लेख ज़रूरी है कि वे किसी देशी या विदेशी चित्रकार से प्रभावित नहीं थे। उनके चित्र किसी परम्परा से विकसित नहीं हुए। वे निस्संदेह मौलिक हैं। कोई उनके चित्रों को पसन्द करे या न करे, पर ये तो मानना ही पड़ेगा कि वे अनूठे हैं।”

रबीन्द्रनाथ ठाकुर के चित्रकला सम्बन्धी विचार उनके चित्रों जैसे ही मौलिक और अनूठे हैं, किन्तु दुर्भाग्य से भारतीय चित्रकारों ने न तो उन्हें जाना और न ही समझने की कोशिश की। हम परम्परा के नाम पर कथाओं के चित्रण को ही चित्रकला मानते रहे और एक बहुभाषी देश की निरक्षर जनता के बीच देवी-देवताओं, राजा-रानियों की लीला-कथाओं के प्रचार के सबसे प्रभावी माध्यम के रूप में इसे विकसित करने का दायित्व निभाते रहे। इस प्रकार भारतीय चित्रकला में हम या तो परिचित कथाओं और कथा नायकों को पहचानने के आदी हो गए या किसी नए दर्शन की व्याख्या को कला मान लिया गया। इस प्रक्रिया में हमने अपने चित्रों को कथाओं और सन्दर्भों का वाहक मान लिया ।
1931 से 1941 के दशक को इस मायने में भारतीय कला के लिए एक बेहद महत्वपूर्ण दशक के रूप में चिन्हित कर सकते हैं। सन् 1931 में जहाँ रबीन्द्रनाथ ठाकुर की कला यात्रा पूरी गति पकड़ती हुई दिखती है, वहीं अमृता शेरगिल के लिए भी यह एक नई यात्रा की शुरूआत का समय था। दुर्भाग्य से, 1941 में ही, मात्र 28 वर्ष की आयु में अमृता शेरगिल का निधन हो गया और उसी वर्ष अस्सी वर्ष की उम्र में रबीन्द्रनाथ ठाकुर ने भी अपनी देह त्याग दी! इन दोनों प्रतिभाओं ने आने वाले समय के कलाकारों के लिए चित्रकला के एक ऐसे युग का सूत्रपात किया, जिसके चलते भारतीय चित्रकारों का एक बड़ा वर्ग अपने चित्रों में 1943 के बंगाल के महा-अकाल से लेकर 1947 के विभाजन और विस्थापन की त्रासदियों तक को एक जीवन्त दस्तावेज़ के रूप में दर्ज़ कर सका।
वस्तुतः हज़ारों सालों से चली आ रही भारतीय कला अवधारणा को, पहली बार रबीन्द्रनाथ ठाकुर के साथ ही अमृता शेरगिल ने भी चुनौती दी और अपने चित्रों को कथाओं और सन्दर्भों से मुक्त किया। इन दोनों चित्रकारों ने अपने चित्रों में अपने-अपने ढंग से भारतीय चित्रकला को देवताओं और राजपुरुषों की उबाऊ उपस्थिति से मुक्त किया और आम जन के लिए जगह बनाई। इन दोनों चित्रकारों के लिए यह समय कितना कठिन रहा होगा, इसका अनुमान हम सहज ही लगा सकते हैं। इसी दौर में, एक ओर जहाँ राजा रवि वर्मा के चित्रों में भारतीय बुद्धिजीवी समाज का बड़ा हिस्सा भारतीय चित्रकला परम्परा को विकसित होते देख रहा था, वहीं दूसरी ओर बंगाल स्कूल के विकास के दौर में कला परिसर के चित्रों में स्वर्ग से सद्यः अवतरित भिन्न-भिन्न देवी देवताओं ने स्थान बना लिया था।
रबीन्द्रनाथ ठाकुर केवल राजा रवि वर्मा से ही नहीं, बल्कि कई बार के विदेश भ्रमण के दौरान यूरोप, जापान आदि की चित्रकला गतिविधि से भी परिचित हुए। तत्कालीन विदेशी चित्रकारों के कला-कर्म से भी उनका भलीभाँति परिचय हुआ। उन्होंने अपने बहुत करीब, नव-बंगाल चित्रकला को जन्म लेते और समूचे देश में अपने प्रभाव का विस्तार करते देखा। रबीन्द्रनाथ ठाकुर, चित्रकला की इस अवधारणा से सहमत नहीं थे, जिसमें तत्कालीन सामन्तों और बुद्धिजीवियों का एक बड़ा तबका कला में ‘भारतीयता’ को पुनर्स्थापित करने का दावा कर रहा था। बंगाल के अभिजात वर्ग के एक बड़े हिस्से के लिए यह विशेष आत्मसुख का कारण था, क्योंकि चित्रकला की यह धारा ‘भारतीयता’ के साथ-साथ अनिवार्य रूप से ‘हिन्दू’ कला थी।
सुप्रसिद्ध समाजशास्त्री धुर्जटी प्रसाद मुख़र्जी (सन् 1894-1961 ई.) बंगाल स्कूल की चित्रकला के इस दौर के बारे में लिखते हैं, “इतिहास का जो कुछ अवदान था, वह चित्रों के विषय तक ही सीमित था। पुराणकथाएँ ही इनकी लीलाभूमि बनीं। देखकर लगता है कि प्रमुख देवताओं और देवियों का दल कुछ समय के लिए बंगभूमि में छुट्टी बिताने आया हो। चित्रकारों ने इनमें से अपनी पसन्द के मुताबिक (देवताओं को) चुन लिया- किसी ने शिव को चुना तो किसी की पसन्द विष्णु बने या फिर उनके अवतार, किन्तु सर्वत्र कोमल और मधुर भाव ही केन्द्र में रहा। …चित्रों में बुद्ध, बोधिसत्त्व, अशोक या उनके जैसे राजा दिखे। शकुंतला, मेघदूत, रामायण, महाभारत के साथ-साथ ऐसा प्रचुर भारतीय काव्य-साहित्य, जिन्हें पर्याप्त प्राचीन मान लिया गया हो; उन सबों का व्यापक ढंग से प्रयोग किया गया। पुराणों के प्रति यकायक इस आकर्षण का क्या कारण था? यह सवाल किसी ने नहीं पूछा।” (न्यू इंडियन लिटरेचर, वॉल्यूम 1 संख्या 1, 1938)।

रबीन्द्रनाथ ठाकुर इस पूरी प्रक्रिया के मूक दर्शक बनकर चित्रकला को मनुष्य की एक ऐसी अभिनव अभिव्यक्ति के रूप में पहचानने की कोशिश करते हैं, जहाँ इसे किसी प्रान्त, प्रदेश या देश के दायरे में नहीं बाँधा जा सकता है। चित्रकला के बारे में रबीन्द्रनाथ ठाकुर के विचार उनके ‘मानवतावाद’ के विचारों के बहुत करीब लगते हैं। रबीन्द्रनाथ ठाकुर देशप्रेम के ऊपर मानवतावाद को स्थापित करते हैं और इसलिए वे चित्रकला को अन्य सभी कलाओं से भिन्न मानते हुए यहाँ तक कहते हैं कि– ” चित्र चित्र ही होते हैं, इससे ज़्यादा कुछ नहीं और इससे कम भी नहीं। भारतीय, अभारतीय जैसे भेद अर्थहीन हैं।”
चित्र-रचना ने रबीन्द्रनाथ ठाकुर को निश्चय ही एक नवीन दृष्टि दी थी। जिस बांग्ला भाषा में उन्होंने सत्तर वर्ष की उम्र तक पूरी तन्मयता और सृजनशीलता के साथ साहित्य रचना की थी, उसी भाषा की प्रादेशिकता की सीमाओं को तोड़ने की सामर्थ्य उन्हें चित्रकला में दिखी। चित्र-रचना के साथ रचनाकार की प्रादेशिकता या भाषा का कोई रिश्ता चित्रकला के क्षेत्र में
नहीं हो सकता है, ऐसा उनका मानना था और ऐसा कहते हुए वे अपने चित्रों का नाता यूरोप से जोड़ने की हिम्मत भी दिखाते हैं। इस परिप्रेक्ष्य में यदि हम ‘भारतीय चित्रकला’ जैसी अवधारणा पर विचार करें तो हम अपने कई पूर्वाग्रहों को ध्वस्त होते पाते हैं।
निर्मल कुमारी महलानबीश को लिखे एक ख़त में 18 अगस्त, 1930 ई. को उन्होंने लिखा था, “मैं जब लिखता हूँ, बांग्ला की वाणी (भाषा) के साथ, मेरे भाव का रिश्ता अपने आप बन जाता है। जब चित्र बनाता हूँ, तब रेखाएँ हों या रंग हों, किसी प्रदेश के परिचय के साथ नहीं आते। लिहाज़ा ये (चित्र) केवल उनके लिए हैं, जो इन्हें पसन्द करते हैं। मैं बंगाली हूँ, इसलिए अपने-आप में यह (मेरे चित्र) बंगालियों की चीज़ नहीं हैं। इसीलिए मैंने खुद ही अपने चित्रों को पश्चिम को दान किया है। मेरे देश के लोग शायद एक बात समझ सकते हैं कि मैं किसी जाति (भाषा, धर्म, प्रान्त आदि) विशेष का नहीं हूँ- इसीलिए वे अन्दर ही अन्दर मुझे इतना नापसन्द करते हैं और मुझे बुरा-भला कहने से नहीं थकते। मैं शत प्रतिशत बंगाली नहीं हूँ- मैं समान रूप से यूरोप का भी हूँ, मैं चाहता हूँ कि यह बात मेरे चित्रों के ज़रिये प्रमाणित हो!”

चित्रकला को किसी प्रान्त या देश की सीमा में बाँधने के पक्षधर रबीन्द्रनाथ ठाकुर कभी नहीं रहे। हालाँकि चित्रकला में भी हज़ारों वर्षों से अन्य सभी कलाओं की ही तरह विभाजन का चलन रहा है। वास्तव में प्रान्त, भाषा और काल के आधार पर विभिन्न कलाओं का विभाजन, अन्ततः एक जातीय अस्मिता के आधार पर उन्हें खण्डित करता है। चित्रकला चूँकि किसी भाषा पर आधारित कला नहीं है, इसलिए रबीन्द्रनाथ एक तरफ़ जहाँ साहित्यकार के रूप में स्वयं को बांग्ला भाषा के साथ जोड़ते हैं, और ऐसा करते हुए वे बांग्ला भाषा, इतिहास और बंगाल के परिवेश से स्वयं को सहज रूप से जुड़ा पाते हैं, वहीं चित्रकला के उस ख़ास उदार स्वरूप को समझते हुए वे चित्रकला में स्वयं को वैश्विक मानते हैं और इस प्रकार चित्रकला
को अपनी ‘मानवतावाद’ की अवधारणा के सबसे करीब पाते हैं।
इसी बात को रबीन्द्रनाथ ‘रूस की चिट्ठी’ (1931) में स्पष्ट करते हुए अपने चित्रों के बारे में साफ़-साफ़ लिखते हैं–
“मॉस्को शहर में मेरे चित्रों की प्रदर्शनी हुई थी। ये चित्र आवारा या बेघर हैं, इसे अलग से कहने की ज़रूरत नहीं। इन्हें केवल विदेशी कहना भी गलत होगा। ये किसी मुल्क के हैं ही नहीं।”