समकालीन मित्रों की बात करूँ तो जिन मित्रों ने अपनी लेखनी से हमेशा प्रभावित किया है उनमें से एक हैं जयन्त सिंह तोमर जी I क्योंकि कला, साहित्य, रंगमंच और संगीत से लेकर लोक और राजनीति के विभिन्न पक्षों पर उनकी गहरी नज़र तो रहती ही है I इन विषयों पर उनकी गहरी समझ का भी बेहद कायल हूँ I अक्सर इन विषयों पर अपनी टिप्पणियों के साथ-साथ उससे जुड़े संस्मरण और प्रतिक्रियाएं भी वे शालीनता पूर्वक किन्तु बेबाकी एवं भरपूर आत्मीयता से व्यक्त करते हैं I उस्ताद जाकिर हुसेन का जाना निःसंदेह इस भूभाग के संगीत की एक अपूरणीय क्षति तो है ही, उस गंगा-जमुनी तहज़ीब के मज़बूत स्तंभों में से एक का ढह जाना भी है; जिसकी आज सबसे ज्यादा जरुरत है I प्रस्तुत है उस्ताद के निधन पर जयन्त जी की वह प्रतिक्रिया जिसे उनके फेसबुक पोस्ट से लिया गया है I
: सुमन कुमार सिंह (सम्पादक, आलेखन डॉट इन)
तबला के किंवदंती – व्यक्तित्व उस्ताद ज़ाकिर हुसेन को तबले का पहला पाठ उनके पिता उस्ताद अल्लारख्खा ने गणेश – परन के साथ पढ़ाया था, जिसके बोल थे –
‘गणानाम गणपति गणेश
लम्बोदर सोहे भुजा चार
इकदंत चंद्रमा ललाट राजै
ब्रह्मा विष्णु महेश ताल देत ध्रुपद गावैं
अति- विचित्र गणनाथ आज मृदंग बजावैं।।’
तबले का कोई मंदिर बने तो उसके चार प्रमुख स्तंभ होंगे पंडित किशन महाराज, उस्ताद अल्लारख्खा, पंडित कंठे महाराज, पंडित सामता प्रसाद (गुदई महाराज) और मंदिर के आमलक पर विराजमान चमकता कलश होंगे उस्ताद ज़ाकिर हुसेन।
उस्ताद ज़ाकिर हुसेन के इस फ़ानी दुनिया से विदा लेने के बाद जैसे मंदिर का वह कलश ढह गया है। स्तम्भों पर रखा आमलक फिर किसी नवीन कलश की प्रतीक्षा में है।
उस्ताद ज़ाकिर हुसेन ने विनम्रता के साथ यह कहा भी था कि उनसे श्रेष्ठ तबला वादक मौजूद भी हैं और भविष्य में आयेंगे भी। लेकिन अभी तो उन जैसा सितारा दूर दूर तक कहीं दिखाई नहीं देता जो तबले जैसे घनवाद्य को संगत की परिधि से उठाकर केन्द्र में ले आये। उस्ताद ज़ाकिर हुसेन के तबले के बोलों में ब्रह्मांड थिरकता था। कवि मंगलेश डबराल उनकी प्रस्तुति के बाद अगर ‘ संगतकार ‘ कविता लिखते तो जरूर उसमें कुछ रद्दोबदल करते। वह कविता कुछ इस तरह है-
‘मुख्य गायक के चट्टान जैसे भारी स्वर का साथ देती
वह आवाज़ सुंदर कमज़ोर काँपती हुई
वह मुख्य गायक का छोटा भाई है
या उसका शिष्य
या पैदल चलकर सीखने आने वाला दूर का कोई रिश्तेदार
मुख्य गायक की गरज में
वह अपनी गूँज मिलाता आया है प्राचीन काल से।
गायक जब अंतरे की जटिल तानों के जंगल में
खो चुका होता है
या अपने ही सरगम को लाँघकर
चला जाता है भटकता हुआ एक अनहद में
तब संगतकार ही स्थाई को सँभाले रहता है
जैसे समेटता हो मुख्य गायक का पीछे छूटा हुआ सामान
जैसे उसे याद दिलाता हो उसका बचपन
जब वह नौसिखिया था
तारसप्तक में जब बैठने लगता है उसका गला
प्रेरणा साथ छोड़ती हुई उत्साह अस्त होता हुआ
आवाज़ से राख जैसा कुछ गिरता हुआ
तभी मुख्य गायक को ढाढ़स बंधाता
कहीं से चला आता है संगतकार का स्वर
कभी-कभी वह यों ही दे देता है उसका साथ
यह बताने के लिए कि वह अकेला नहीं है
और यह कि फिर से गाया जा सकता है
गाया जा चुका राग
और उसकी आवाज़ में जो एक हिचक साफ़ सुनाई देती है
यों अपने स्वर को ऊँचा न उठाने की जो कोशिश है
उसे विफलता नहीं
उसकी मनुष्यता समझा जाना चाहिए। ‘
आखरी चार पंक्तियों को फिर से पढ़ने का मन होता है तब उस्ताद ज़ाकिर हुसेन की याद आ ही जाती है –
‘यों अपने स्वर को
ऊंचा न उठाने की जो कोशिश है
उसे विफलता नहीं
उसकी मनुष्यता समझा जाना चाहिए।’
संगत करते हुए उस्ताद ज़ाकिर हुसेन के जीवन में जाने ऐसे कितने क्षण आये होंगे जब श्रोताओं ने परिधि पर बैठे कलाकार की पंचमुख से प्रशंसा की होगी, तालियां बजाई होंगी।
मुम्बई में सितारवादक पंडित रविशंकर के साथ संगत करते हुए एक बार ऐसा हुआ कि श्रोताओं द्वारा उस्ताद ज़ाकिर हुसैन की प्रशंसा से पंडितजी क्षुब्ध हो गये। पंडितजी चाहते थे कि सितार की तुलना में तबले पर लगे माइक की आवाज़ बीस फीसदी कम रहे।
उस्ताद ज़ाकिर हुसेन तबले के प्रमुख छह घरानों में से एक पंजाब घराने के प्रतिनिधि कलाकार की छवि से सन् 1973 के बाद निरंतर ऊपर उठते गये I जब हिन्दुस्तानी, कर्नाटकी व पश्चिमी संगीत के फ्यूजन से एक के बाद एक बड़ी संगीत परियोजनाओं को सफल बनाया और ग्रैमी अवॉर्ड हासिल किए। गिटार – वादक जौन मैकलाफ्लिन, वायलिन वादक एल. शंकर, आयरिश गायक मौरीसन, जियोवानी हिडाल्को, जेरी गार्सिया, संतूर वादक पंडित शिवकुमार शर्मा, बांसुरी वादक पंडित हरिप्रसाद चौरसिया, राकेश चौरसिया, नीलाद्री कुमार से लेकर मिक्की हार्ट तक अनेक नाम शामिल हैं जिनके सहयोग से संगीत की ये वैश्विक परियोजनायें पूरी हो सकीं। भारत में उस्ताद ज़ाकिर हुसैन को पद्मविभूषण, मध्यप्रदेश के राष्ट्रीय कालिदास सम्मान और संगीत नाटक अकादमी के रत्न सदस्य सम्मान से विभूषित किया गया। तमाम उपलब्धियों के बाद भी बनारस के कबीर चौरा की संगीत- गोष्ठियों और वहां के कलाकारों को वे बहुत आदर और आत्मीयता से याद करते रहे। उस्ताद अमीर खान और किशोरी अमोनकर को वे पिछली शताब्दी के महानतम संगीतज्ञों में मानते थे।
इन पंक्तियों के लेखक को उस्ताद ज़ाकिर हुसेन के साथ एक फ्रेम में आने का अवसर भी मिला और नसरीन मुन्नी कबीर की उन पर लिखी किताब पर हस्ताक्षर लेने का भी। उस्ताद ज़ाकिर हुसेन के चित्र की पृष्ठभूमि में चित्रकार मनीष पुष्कले की कलाकृति है ‘एक पत्थर की बावड़ी’ जो ग्वालियर के आईटीएम विश्वविद्यालय के चांसलर रेजीडेन्स की बैठक की शोभा बढ़ा रही है। छायाचित्र खींचा था रुचि सिंह ने। एक छायाचित्र प्रसिद्ध शायर मदनमोहन मिश्र दानिश ने भी खींचा था।
उस्ताद ज़ाकिर हुसेन ने अंग्रेजी में लिखी अपनी जीवनी पर अंग्रेजी में और हिन्दी में अनूदित जीवनी पर हिन्दी में लिखा था। मुश्किल तब खड़ी हुई थी जब उस्ताद ज़ाकिर हुसेन के हाथों में दिया गया पेन ठीक से चल नहीं रहा था। तब मदनमोहन मिश्र दानिश जी से पेन लेना पड़ा।