पद्मश्री से सम्मानित बिहार के कलाकारोंके जीवन और कला कर्म को संकलित करने का सफल प्रयास है बिहार म्यूजियम के अपर निदेशक अशोक कुमार सिन्हा द्वारा लिखी गयी पुस्तक‘बिहार के पद्मश्री कलाकार’में I पुस्तक में क्या है और इस तरह के किसी पुस्तक की महत्ता बता रहे हैं कला समीक्षक अनीश अंकुर I वैसे तो यह बेहद गर्व की बात है कि आज़ादी के बाद से बिहार की माटी से जुड़े पंद्रह कलाकारों ने पद्मश्री सम्मान हासिल किया है I जो संभवतः किसी अन्य राज्य या प्रदेश की तुलना में विशेष उल्लेखनीय है I प्रस्तुत है पुस्तक समीक्षा का तीसरा भाग ……
Anish Ankur
गंगा देवी :
कर्ण कायस्थ परिवार में जन्म लेने वाली गंगा देवी मिथिला पेंटिंग में कचनी शैली के लिए जानी जाती हैं। इसमें रंगों के बजाए रेखाओं से अधिक काम किया जाता है। ‘कचनी’ का अर्थ होता है डिजाइन की रूपरेखा या डिजाइन के क्षेत्र को रेखाओं से भरना। रेखाओं की मोटाई और संरचना कलाकर तय करता है। कचनी शैली अधिक अलंकरण वाली होती है इस कारण इसमें अधिक वक्त लगता है।
गंगा देवी देवी-देवताओं के साथ आम जन जीवन के चित्र भी खींचा करती थी। यह बात उन्हें बाकी चित्रकारों से अलग बनाती है। अशोक कुमार सिन्हा लिखते हैं ” गंगा देवी ने अपनी स्वतः स्फूर्त कला से मिथिला पेंटिंग में देवी-देवताओं के चित्रण के साथ-साथ मानव जीवन की श्रृंखला का चित्रण किया। यह उनकी अभूतपूर्व सूझ थी। आध्यात्मिकता, धर्म, संस्कार, आस्था की अमूर्तता का अपना सौन्दर्य होता है। यह मिथिला पेंटिंग का परम्परागत सौन्दर्य भी है। लेकिन यह सौन्दर्य समाज और जीवन का सामाजिक जीवन-मूल्य नहीं गढ़ सकता। गंगा देवी ने अपनी व्यथा-आवृत्ति से समाज और जीवन के सामाजिक जीवन मूल्य का सृजन किया। ”
गंगा देवी को 1984 में पद्दश्री प्राप्त हुआ था। इनका ससुराल रशीदपुर था। गंगा देवी भी भास्कर कुलकर्णी की खोज थीं। गंगा देवी की काम की विशेषता के बारे में भास्कर कुलकर्णी की बारीक निगाह को लेखक ने उद्धृत किया है ” गंगा देवी के चित्रों को देखो, किसी भी रेखा की पुनरावृत्ति नहीं की गई है। उन्होंने एक सीधी रेखा कितने अलग-अलग तरीकों से खींची है। ”
गंगा देवी का भी निजी जीवन त्रासद था। पति ने दूसरी शादी कर ली, एकमात्र पुत्री का असमय निधन हो गया। ऐसे वक्त में उनकी सहेली ( स्थानीय भाषा में ‘प्रीतम’) कही जाने वाली महासुंदरी देवी का सहारा मिला। गंगा देवी दो लोगों को अपना पुत्र मानती ही एक जापान में मिथिला म्यूजियम स्थापित करने वाले हाशिगावा को था दूसरा उनकी जीवनी लिखने वाले ज्योतिंद्र जैन को।
अशोक कुमार सिन्हा ने हासेगावा से जुड़ी कई दिलचस्प कहानियों को पाठकों के लिए साझा किया है। गंगा देवी की चर्चित कृति ‘ बाघ और चांद’ देखकर कैसे हासेगावा गंगा देवी से मिलने के लिए बेचैन हो गए थे। चित्र में बाघ ने कैसे चांद को खा कैसे खा लिया ? इस प्रश्न का उत्तर उन्हें गंगा देवी से मिलकर जानना था।
हासेगावा के साथ गंगा देवी जापान गईं। उसके बाद कई देशों की यात्रा की। हर जगह उनके चित्रों की मांग होती। गंगा देवी की अन्य कृतियों में प्रमुख है ‘ सीताजन्म’, ‘सूरजमुखी का पेड़’, ‘रावण वध’, ‘ राम केवट’, ‘प्रसंग’, ‘दशावतार’ , ‘रासलीला’, ‘ कृष्णलीला’ आदि।
अशोक कुमार सिन्हा ने गंगा देवी पर बहुत मनोयोग लिखा है। कैसे माथा रहस्यमय ढंग से फटा फिर लाल कृष्ण आडवाणी जी खूनी रथ यात्रा के कारण उन्हें दिल्ली जाने में विलंब होने से लेकर उनकी मृत्यु तक का वर्णन लेखक ने संवेदना के साथ किया है। पढ़ने पर उनके संघर्षपूर्ण और त्रासद जीवन के बारे में पाठक को परिचित होने का मौका मिलता है। गंगा देवी के काम का मूल्यांकन करते हुए अशोक कुमार सिन्हा कहते हैं ” कुल मिलाकर एक प्रोग्रेसिव आर्ट रचना गंगा देवी की प्रशास्ति है। वे हमेशा अमूर्तन से भी रही। जीवन को प्रतीकात्मक बना दिया। उनकी मानवी मुस्कुराहट में इसका पुट था। उनका विजन ( परिकल्पना) ग्रामीण कला में आज भी अकेला है जिसमें आधुनिक विचार संपन्न आध्यात्मिकता है। इसी से हर समय के कलाकारों की अजस्र प्रेरणा है। उनके सारे कला प्रयत्न कभी अचेत नहीं , हमेशा सचेत हैं। उन्होंने चित्रकला में भाव स्थितियों को बराबर महत्व दिया। अन्वेषण किया अभिव्यक्ति का। केवल लेकर पर नहीं चलीं उन्होंने हर मानव स्थिति को बिंब बना दिया। ”
अशोक कुमार सिन्हा ने गंगा देवी पर अपने आलेख का अंत महासुंदरी देवी की उस टिप्पणी से किया है
” गंगा देवी का जाना औरों के जाने से सर्वथा भिन्न है क्योंकि कुर्सियों पर बैठे लोग या महलों में बंद लोग जब उठते हैं तो उनकी खानापूर्ति होती है। लेकिन गंगा देवी की पूर्ति तो शायद कई शताब्दियों में भी नहीं होगी। “
महासुंदरी देवी :
मिथिला चित्रकला में सर्वाधिक चर्चित नामों में से एक महासुंदरी देवी का ससुराल मधुबनी के रांटी गांव में था। महासुंदरी देवी को 2011 में जाकर पद्दश्री मिला जब वे लगभग 89 साल की थीं। मिथिला चित्रकला के लिए पद्मश्री पाने वाली वे चौथी कलाकार थीं ।
अशोक कुमार सिन्हा द्वारा मिथिला चित्रकला के कलाकारों की जीवनी में कुछ बातें समान है। जैसे 1962 मिथिलांचल में का भीषण अकाल, हैंडीक्राफ्ट बोर्ड के तत्कालीन डिजायनर भास्कर कुलकर्णी का मधुबनी आकर अकाल पीड़ित क्षेत्र में मधुबनी कलाकारों के लिए रोजगार संबंधी कुछ संभवाना की तलाश। इसमें उत्प्रेरक की भूमिका निभाई ललित नारायण मिश्रा ने जो मिथिला वासी होने के कारण इस कला परंपरा से परिचित थे। भास्कर कुलकर्णी द्वारा कुछ चुनिंदा मिथिला चित्रकारों को जमीन और दीवारों के बदले हैंडमैड कागज पर चित्रांकन के लिए प्रेरित करना। भास्कर कुलकर्णी ने महासुंदरी देवी की भी कुछ कृतियों को दिल्ली में पहली बार प्रदर्शित किया था जिसे व्यापक सराहना मिली थी।
उनकी कृतियों को देखकर चर्चित लेखिका कमलादेवी चटोपाध्याय भी बहुत प्रभावित हुई थीं। इन्होंने उन्हें अपने आसपास की महिलाओं को भी सिखाने के लिए प्रेरित किया था। पर्दा प्रथा की कठिनाइयों के बावजूद महासुंदरी देवी ने इस काम का बीड़ा उठाया।
महासुंदरी की विशेषता बकौल अशोक कुमार सिन्हा ” चित्रांकन में धार्मिक विषयों की प्रधानता थी। परिणामस्वरूप इस कला में ठहराव की स्थिति उत्पन्न हो रही थी। उसकी निरंतरता हेतु उसमें नए विषयों का समावेश आवश्यक था। इस दौरान जिन महिलाओं ने परंपरा और मौलकिता को अक्षुण्ण रखते हुए उसमें नवीनता का समन्वय कर उसे नई ऊंचाई दी उनमें महासुंदरी प्रमुख हैं। महासुंदरी देवी ने कागज के साथ-साथ बोर्ड, कपड़ा, प्लाईबोर्ड, आदि पर भी मिथिला पेंटिंग की शुरुआत की जिसे बाजार ने हाथों हाथ लिया। इसलिए आज अगर मिथिला पेंटिंग विश्व बाजार में रोजगार का सबसे बड़ा कला माध्यम है तो उसका श्रेय महासुंदरी को भी है। इसकी अधिष्ठात्री देवियों में है महासुंदरी देवी। ”
महासुंदरी देवी 15 साल की उम्र में ही मिथिला पेंटिंग के साथ-साथ सिक्की, सुजनी, गुड़िया तथा पेपरमेशी शिल्प के कच्ची जानकार हो गईं थीं। मुल्तानी मिट्टी, तीसी , तथा मोटा कागज का दस्ती बनाकर और फिर उसमें प्राकृतिक रंग मिलाकर मूर्तियां और खिलौने तैयार किया करती थीं।
अशोक कुमार सिन्हा के अनुसार “महासुंदरी देवी ने हैंडमेड कागज से आगे बढ़कर साड़ी पर चित्रकारी शुरू कर दी। उन्होंने समकालीन चित्रकला की तरह प्लाईबोर्ड और लकड़ी पर लंबे-लंबे पैनल बनाए जिनमें दशावतार, सीताजन्म कथा, राम-सीता विवाह, ‘कृष्ण-जन्म कथा’, ‘रासलीला’ और ‘शिव-पार्वती’ जैसे धार्मिक विषयों को शामिल किया। सिल्क और सूती कपड़े और सनमाइका और प्लाई बोर्ड पर मिथिला पेंटिंग की शुरुआत करने वाली वे पहली महिला कलाकार थी। मिथिला चित्र परंपरा में यह बिल्कुल ही नई चीज थी। उन्होंने समय के प्रवाह को पहचानकर इस तरह के और भी कई नई और मौलिक प्रयोग किए जिससे मिथिला पेंटिंग का दायरा बढ़ा। ”
महासुंदरी देवी सिर्फ कचनी ( रेखा प्रधान) ही नहीं बल्कि भरनी शैली ( रंग प्रधान) में भी पेंटिंग किया करती थी। महासुंदरी देवी अपने बनाए चित्र ‘रामायण प्रसंग’, ‘जयमाल’, ‘ राधा कृष्ण लीला’, ‘ अरिपन ‘और ‘डोली ‘ के लिए काफी ख्याति मिली । सामान्य तौर पर एक कलाकार 18 से 20 किस्म के अरिपन का निर्माण किया करता है पर पश्चिमी जर्मनी की एरिका मोजर स्मिथ के अनुरोध पर महासुंदरी देवी द्वारा बनाई गई 85 तरह के अरिपन का निर्माण किया गया जो आज जर्मनी के राष्ट्रीय संग्रहालय में है।
महासुंदरी देवी पर फ्रांस के लेखक इव्स बिको के अनुरोध पर मिथिलांचल के जीवन पर आधारित 50 सुंदर चित्रावलियों का सृजन किया था जो यूरोप के कई देशों में प्रदर्शित किया गया था। इव्स बिको ने इन चित्रों को अपनी पुस्तक ‘ दि आर्ट ऑफ मिथिला” में भी स्थान दिया और “दी मिथिला” नामक डॉक्यूमेंट्री भी बनाई।
लेखक ने इस दिलचस्प प्रसंग का वर्णन किया है जब महासुन्दरी देवी के चित्रों को फ्रांस में रह रहे महान स्पैनिश चित्रकार पाब्लो पिकासो को दिखाया गया। तक उनकी प्रतिक्रिया जैसा कि अशोक कुमार सिन्हा लिखते हैं ” पाब्लो पिकासो उन चित्रों को देखकर इतने मुग्ध हो गए कि महासुन्दरी देवी से मिलकर इसे दाद देने के लिए आतुर हो उठे। लेकिन पिकासो ने इस दौरान जो कहा था वह ज्यादा महत्वपूर्ण है। पिकासो ने महासुंदरी देवी की कला की अभ्यर्थना में कहा था – लोग मुझे बड़ा कलाकर बताते हैं। लेकिन जब मैं आपकी कला को देखता हूं तो पाता हूं कि आप मुझसे भी बड़ी कलाकार हैं। ”