वर्त्तमान कला- साहित्य: एक विमर्श

कला-साहित्य से जुड़े होने की वजह से प्रायः इन विषयों पर मेरा ध्यान केंद्रित हो जाता है, एक कलाकार और देश की नागरिक के रूप में अपने कुछ अनुभव और विचारगत अभिव्यक्तियाँ आपसभी से साझा कर रही हूँ I

: आभा भारती

1. क्या आप भी मानते हैं कि अंग्रेज़ी भाषा संभ्रांत (Elitist) वर्ग की भाषा है ?

 

मैंने जब स्नातक (Graduation) और स्नातकोत्तर (Post-Graduation) में अपना चुनिन्दा और प्रिय विषय अंग्रेजी लिया तो हमेशा की तरह हम बच्चों के मार्गदर्शक मेरे पिताजी ने मेरी काउन्सलिंग की थी, मुझे आज भी याद है जब उन्होंने कहा था कि अंग्रेजी साहित्य पढ़ना और उस विषय में अच्छे अंक लाना कठिनतम होगा तुम्हारे लिए I लेकिन मैंने ठान लिया था जो पसंद है उससे मुँह नहीं मोड़ना, बहुत सोच समझ कर चुना था मैंने अपना विषय I

बहरहाल अंग्रेजी उपन्यास पढ़ने और अंग्रेजी साहित्यकारों से रूबरू होने का सुअवसर मैंने प्राप्त कर ही लिया I जमशेदपुर वीमेन’स कॉलेज जो एक प्रतिष्ठित महाविद्यालय है वहां दिग्गज छात्रों के बीच मैं हिंदी माध्यमसे पढ़ने वाली मेहनतकश छात्रा, अंत में सात सेमेस्टर (सात समंदर) अच्छे अंकों के साथ पास कर ही गयी I हमारा परिवार हिंदी साहित्यकारों की छवि से पहचाना जाता है I जहाँ मेरे परदादा श्री विश्वनाथ कवि “पिंगल काव्य” के ज्ञाता और राजकवि हुआ करते थे, दादाजी श्री रामबृक्ष महाराज मगही और हिंदी के प्रकाण्ड कवि और विद्वान् रहे, पिताजी डॉ अरुण सज्जन हिंदी के प्रख्यात लेखक और साहित्यकार , साथ मेरी बड़ी बहन श्रीमती अर्चना रॉय को भी साहित्यधर्मी कुल के यश को बढ़ने का सौभाग्य मिला I मेरी रूचि हिंदी, अंग्रेजी और चित्रकला के प्रति मेरे परिवार से ही मिली, मेरे दादा जी और मेरी माँ को चित्रकला में अभिरुचि रही शायद इसलिए भी मैं तन्मयता से अपना वक़्त बिता सकती थी और कला साहित्य के लिए माता सरस्वती को नमन करती आयी I ये तो रही मेरी रूचि की बात, आगे चलकर शिक्षण संस्थानों से जुडी तो शेष बातें समझ आने लगी जैसे सामाजिक परिवेश, बच्चो पर अंग्रेजी का दवाब, हिंदी से बेरुखी ,एक स्टेटस सिंबल बनाये रखना…आखिर क्यों ?? कहते हैं जब हम ही अपने बच्चों की बुराई पूरे समाज के सामने करने लगते हैं तब समाज खुद आपके बच्चे को बुरा भला कहने का दम रखता है I लोगों के मन में यह धारणा घर कर गई है कि अंग्रेज़ी भाषा अधिक बुद्धि की परिचायक है। लोग ये नहीं सोचते कि हमने ही इस विदेश की भाषा को अपनाया है और उसे और विकसित करते जा रहे हैं, कितना हास्यास्पद है ये !!

2. साहित्य (Any) के प्रति समाज और सरकार की उदासीनता क्यों है?

दो दिन पहले ही मैं अपने बेटे (वर्ग-1) की हिंदी की किताब (CBSC) देख रही थी जिसमे कुछ अच्छी कविताओं पर नज़र टिकी I मैंने प्रशंसित भाव से उनके कवियों का नाम ढूंढने का प्रयत्न किया, कविता के अंत में नहीं था I तो क्रमांक सूची में संभावित होगा, सोचकर पलटा लेकिन आश्चर्य वहां भी नहीं था I ये इंग्लिश की कविताओं में भी दिखा मुझे, कवियों के नाम के साथ साथ चित्रकारो के भी नाम नहीं थे, कितना सस्ता है सबकुछ ? तब से एक विमुखता महसूस की मैंने आधुनिक साहित्यकारों और चित्रकारों के प्रति हमारे शिक्षा प्रबंधकों के द्वारा I आपको याद जरूर होगा जब बचपन में सुभद्रा कुमारी चौहान, दिनकर, हजारी प्रसाद द्विवेदी, महादेवी वर्मा, निराला जैसे कई कवि -कवयित्रियों को पढ़ गर्व का अनुभव करते थे, परीक्षा में पूछा भी जाता था उसके रचयिता के सम्बन्ध में I आज ऐसी परिस्थिति में छात्र छात्राओं से क्या उम्मीद करेंगे वो आज के समसामयिक कवि- साहित्यकारों के एक दो नाम भी बता दें, क्या यह साहित्य से सामाजिक दुराव नहीं, ऐसे शिक्षा व्यवस्थापकों से क्या ही उम्मीद की जा सकती है; जो भविष्य की कमज़ोर नींव रख रहे हैं I जहाँ समाज के पथ प्रदर्शकों की गिनती नहीं, जहाँ कथनी और करनी में भेद रखने वाले मठाधीश साहित्य और साहित्यकारों के प्रति उदासीन हो I

जहाँ दिनकर व् निराला की पंक्तियाँ ओज और तेज़ से मन को दृढ बनाती थी, निश्छल भाव से युक्त सुभद्रा कुमारी चौहान की कविताएं भाव- विभोर करती थी , प्रेमचंद की संवेदनशील कहानियां समाज को प्रेरित करती थी ? क्या वैसी अभिव्यक्ति और उनके प्रति आस्था आज के बच्चो में है ? उनके बाद कितने ही कहानीकारों और कवियों को वैसा दर्ज़ा नहीं मिला I आज पत्रिकाओं में प्रकाशित हो रहे लेखों, कलाकृतियों का महत्त्व एक विज्ञापन से भी कम है I समाज में इन् प्रतिभाओं का मान और मूल्य कम से कमतर है, ये समाज और सरकार की ऐसी व्यवस्था है जो शुरू से बनायीं जा रही है I विदेशी रंग में रंगने वाले हम उन्हें देखकर सीखते क्यों नहीं जो कला को हमसे ज्यादा महत्त्व देते हैं, लेकिन हम तो बस उन्हें अपना आइडियल बना खुद ही बुद्धू बन बैठे हैं I

3. जब कलाकारों और साहित्यकारों की बात चली हो तो अंत में एक सवाल और-

‘क्या कोई भी व्यक्ति साहित्यकार ,चित्रकार या कलाकार हो सकता है?’

“नरत्वं दुर्लभं लोके विद्या तत्र सुदुर्लभा।
कवित्वं दुर्लभं तत्र शक्ति स्तत्र सुदुर्लभा।।”

अर्थात इस पृथ्वी पर मनुष्य योनि दुर्लभ है, मनुष्य में भी विद्या अत्यधिक दुर्लभ है, कविता करना उससे भी कठिन और दुर्लभ और कविता में स्वभाविक उपस्थिति और शक्ति होना नितांत दुर्लभ और दुष्कर भी है। ये अगर मिले तो ईश्वर की कृपा है।

ईश्वर का दिया हुआ विशेष आशीर्वाद ही होता है जब किसी को इन् विधाओं में रूचि, लगन और प्रतिष्ठा मिलती है I कोई भी कलाकृतियों को गढ़ नहीं सकता, आलेखन नहीं कर सकता, न ही अन्य विधाओं में पारंगत हो सकता है, ये सब निचली मानसिकता वाले लोग ही हैं जो सोचते हैं कि लेखक या कलाकार कोई भी बन सकता है I जबकि ऐसा कतई नहीं हो सकता है और हाँ उनके मानने या न मानने से किसी लेखक या कलाकार का महत्त्व कम भी नहीं होगा I किसी विचार की उत्पत्ति, विचारों को तुकान्त अथवा अतुकांत पंक्तियों में पिरोकर उत्कृष्टता से प्रस्तुत करने का हुनर ये सब किसी साहित्यकार को ही प्राप्त है, रेखाओं से विचारो का ताना बाना जो बुन् सकता है वो कोई कलाकार ही हो सकता है, कोई भी व्यक्ति ऐसी कला में महारथ नहीं हासिल कर सकता I इस तरह अन्य विधाओं में निहित ऐसी विद्वता को नमन करना और उसकी विशेषता समझनी होगी समाज को I ईश्वर को न मानने या पूजा न करने से उनकी महत्ता नहीं घटती, ईश्वर तो ईश्वर ही होता है I

समाज में सबसे सस्ता विषयों का चुनाव हो तो हिंदी, कला, नाट्य आदि निचले स्तर के माने जाते हैं I ऐसा बिलकुल नहीं है कि ये सब जानते हैं I हिंदी तो कोई भी पढ़ लेगा, हम हिंदी का tution कैसे ले सकते हैं ? लड़के ड्राइंग सीखने जाएँ तो आस पास के लोग क्या कहेंगे, टाइम पास का सब्जेक्ट ले रखा है, ये सारी मानसिकता के लोग हममें से ही हैं I

समाज में चित्रकारों, लेखकों और कलाकारों का महत्व घटता जा रहा है, उन्हें विशेष दर्ज़ा मिलना चाहिए, सिर्फ पैसे से ही उनकी सेवा व साधना का मूल्य न चुकाएँ उन्हें आदर और प्रतिष्ठा का मूल्य भी दें, तभी हमें अपने विकसित समाज पर गर्व हो सकेगाI

-©आभा भारती,
महिला कलाकार एवं कला समीक्षक
नई दिल्ली

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