मैं पटना यूनिवर्सिटी के सामने से गुजर रहा था कि देखा, एक घर के ऊपर साइनबोर्ड लगा है “कलाकार रजत घोष”। सोचा क्यों न चलकर देखें इस कलाकार को? मैं घर के दरवाजे को धीरे से खोला। अन्दर से पकी हुई मिट्टी की खुशबू महसूस हुई और देखा सामने चारपाई पर धारीदार लुंगी पहने एक व्यक्ति लेटा हुआ था। यह देख समझते देर नहीं लगी कि यही कलाकार होगा रजत घोष। मैं भी वहाँ पड़ी कुर्सी पर बैठ पूरे कमरे को धीरे-धीरे पढ़ने का प्रयास करने लगा। चारो तरफ बिखरी हुई टेराकोटा की छोटी-बड़ी मूर्तियां, चारपाई के नीचे, अलमारी के ऊपर, कोने में पड़ी ढेर, जमीन पर इधर-उधर फैली हुई और उस फैलाव के बीच मेरी कुर्सी। मैं सोच कर परेशान था कि, इतनी सारी मूर्तियाँ और बीच में अकेला एक कलाकार रजत घोष ? मैंने दीवाल की ओर देखा, जहाँ कुछ पुराने कागज फ्रेम के साथ लटके हुए थे। उसपर लिखा हुआ था राष्ट्रीय पुरस्कार, नई दिल्ली, बिहार सम्मान, यह सम्मान, वह सम्मान और न जाने कितने सम्मानों के नीचे चरमराती हुई रजत घोष की चारपाई।
मैं अपने आस-पास फैले टेराकोटा को बड़े ध्यान से देखने लगा जो पौराणिक विषयों पर आधारित बड़े ही प्रभावशाली थे। ऐसा लगा जैसे हम लोककला और समकालीनता के बीच देख रहे हैं। बीच में देखने का अर्थ लोककला और समकालीन कला के बीच की यात्रा, दोनों का एक दूसरे पर प्रभाव, जो रजत घोष के टेराकोटा में दिखलाई पड़ता है। इनका काम लोककला का आधुनिक रूप है, जो समकालीनता की पृष्ठभूमि पर आधारित है। इन टेराकोटा की सतहों का खुरदरापन, अंगुलियों के संवेदनशील दबाव व घुमाव मनोवैज्ञानिक प्रभाव छोड़ते हुए परा विद्या की ओर संकेत करते हैं। जब हम उड़ीसा, बंगाल या किसी अन्य राज्यों में बने टेराकोटा को देखते हैं तो उनके बनावट में बहुत समानता मिलती है। इसका कारण है कि ये टेराकोटा अध्यात्म, आस्था और विश्वास पर निर्भर हैं। इसे हम मूर्ति नहीं कह सकते, ये प्रतीक हैं। प्रतीक है उस परा विद्या का जो आदमी के अन्दर आस्था के रूप में छिपा है। यही कारण है कि यहाँ पर शारीरिक संरचना या उसके सौंदर्य का महत्व न देकर आकृति के प्रारंभिक संरचना को महत्व दिया गया है, ताकि आस्था या विश्वास का भाव पैदा होता रहे।
रजत घोष का कार्यक्षेत्र इन्हीं विचार धाराओं से प्रभावित हैं। इनके सभी कामों में इन प्रतीकों की झलक मिलती है। रजत घोष के सृजनात्मक समय को हम दो भागों में विभाजित कर सकते हैं। 1977 से 1990 तक इनके कामों में आदिवासी, बंजारन तथा अफ्रीकन झलक मिलती है (चित्र-11,12,13)। 1990 के बाद इनके कामों में बदलाव आने लगे। कुछ ऐसा बदलाव जो देश, काल और समय की परिधि में घूमती है। अर्थात पूर्णरूप से स्वदेशी आधुनिक कला। इस समय के टेराकोटा में (चित्र-7,8,9) अनुपात से अधिक बड़े गोल चिकने चेहरे, बड़ी-बड़ी नुकीली आँखें और ओठ कलकत्ता में बनने वाली दुर्गा प्रतिमा की याद दिलाती है। इनका एक सुंदर संरचना (टेराकोटा) (चित्र-10) में दो शक्तियों (दुर्गा, काली) को एक साथ दिखलाने का प्रयास है। शेर के ऊपर लेटी आकृति (शिव) और उसपर खड़ी दूसरी आकृति प्रतिरूप है काली की। शेर को खूंखार नहीं दिखलाकर जटा के द्वारा ज्ञानी दिखलाया गया है, जो अध्यात्म की पराकाष्ठा है।
मुख्य रूप से इनके काम भाव प्रधान हैं, वह भाव जो अलौकिक शक्ति की ओर संकेत करती है। दक्षिण भारत के मूर्तिकार पौराणिक विषयों और प्रतीकों से अधिक प्रभावित हो कर अपनी रचना करते हैं, जो उत्तर भारत के मूर्तिकारों में बहुत कम दिखती है। भारत की आधुनिक मूर्तिकला में अपनी परम्परा को आधुनिक पृष्ठभूमि पर लाने का श्रेय दक्षिण भारतीय मूर्तिकारों को जाता है और यहीं से Linear Sculpture की शुरुआत होती है, जो उनकी परम्परा थी (चित्र सं-3) । इसका सुंदर प्रयोग हम एस-नन्दगोपाल और पी-भी-जानकीराम के कामों में देख सकते हैं। कुछ इसी प्रकार का प्रभाव रजत घोष की मूर्ति (चित्र-4,5,6 ) में दिखलाई देती है।
इनके सारे कामों को देखने से लगता है कि, रजत घोष की कला यात्रा जीवित परम्परा का नवीनीकरण है। अर्थात जीवित परम्परा को आधुनिक परिवेश में रखने का एक अच्छा प्रयास है।
-अजितानन्द