गाँधी की कलादृष्टि और मूसोलिनी

झीलों की नगरी उदयपुर में पैदा हुए चेतन औदिच्य का रंग रेखाओं से जुड़ाव और चित्र रचने की शुरुआत स्कूली दिनों से ही हो चली थी। किशोर वय तक आते आते कविता से जुड़े और फिर तरुणाई में दोस्तों के संग रंगमंच तक भी पहुँच गए। अब हालात यह हैं कि इन तीनों विधाओं से एक अटूट सा रिश्ता बना चुके हैं। कला की विधिवत शिक्षा श्री डॉ ओमदत्त उपाध्याय जैसे कलागुरु से पायीं साथ ही विद्याभवन कला संस्थान से औपचारिक शिक्षा दीक्षा भी ली। अपनी इस सांस्कृतिक सक्रियता के क्रम में जहाँ कई एकल और समूह कला प्रदर्शनियों में भागीदारी निभाई तो वहीँ  ‘सघन बांस वन में’ शीर्षक से काव्य संग्रह भी रचा। उधर नाटकों से अपने संबंधों को निभाते हुए राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय सहित देश के अनेक भागों में नाटक भी किए। इन दिनों अपने को खास तौर पर केंद्रित कर रखा है कलाकृतियों के सृजन से लेकर कला लेखन तक। भारतीय संस्कृति के गहरे तत्वों को कला में मुखरित करने के हिमायती हैं। यहाँ प्रस्तुत है महात्मा गाँधी की कलादृष्टि पर उनका यह आलेख …

♦चेतन औदिच्य


समीचीन यही है कि, उन दो ‘विराट’ के साथ बात आरम्भ की जाए जिनमें समग्र जीवन का सारभूत दर्शन एकाग्र है। इनमें प्रथम है – गाँधीजी के व्यक्तित्व का वैराट्य और दूसरा है – चराचर जगत में छितराई कला का वैराट्य। ये दोनों ही प्रकार की विराटता एक-दूसरे से अन्योन्याश्रित सम्बद्ध हैं। गाँधीजी का कलाओं से सीधा सम्बन्ध नहीं था, यह बात किंचित अर्थों में ठीक हो सकती है – जहाँ हम कला को विशिष्ट शैली, तकनीक, माध्यम व्यवहार आदि के तल पर देखते हैं। परन्तु कला के सीमित अर्थों, परिभाषाओं अथवा सिद्धान्तों के साथ गाँधीजी के कला सम्बन्धों को नहीं समझा जा सकता। उनकी कला-अवधारणा अत्यन्त व्यापक थी ; जिसका सम्बन्ध शाश्वत-सत्य से था।

गाँधीजी और कला के सम्बन्ध को ‘असीम-आत्म’ तथा ‘सत्य’ की अवधारणा के सन्दर्भ में ही समझा जा सकता है। इसका कारण यह भी है कि, गांधीजी की अनुभूति का दायरा अत्यन्त विशाल, गहन तथा महीन था। उनकी व्यापक दृष्टि में सौन्दर्यबोध ‘चाक्षुष अनुभूति’ तक ही सीमित नहीं था। आत्मोत्थान के तल पर वे कला को, आत्म-दर्शन की शिक्षा प्रदान करने वाली बताते हैं। उनके इस विचार से ‘कला’ द्वारा अनुभूति के वे द्वार खुलते हैं, जो आत्म-दर्शन के पथ पर ले जाते हैं। उनकी दृष्टि से कला, आत्मा के उत्थान का साधन बन कर सामने आती है। कला और सत्य के सम्बन्ध में गाँधी जी बताते हैं कि सत्य के साथ जिस कला का सम्बन्ध नहीं है, वह कला ही नहीं है। कला को मैं सत्य से अलग करके न देखूंगा- ‘कला, कला के लिए’ मै इस कथन का विरोधी हूँ….. जब मैं कला में सत्य की बात कहता हूँ तो, उसका यह अभिप्राय नहीं होता कि, वह सत्य बाह्र पदार्थों का अविकल प्रतिबिम्ब होगा। जीवन्त पदार्थ ही चित्त को जीवन्त आनन्द दे सकता है। उसे चित्त को ऊँचा भी उठाना होगा। वह जो रस-सृष्टि न कर सकेगा उसकी हमें जरूरत नहीं है।

राजनीति, धर्म, अर्थव्यवस्था, शिक्षा, श्रम इत्यादि-जीवन के बाह्य भौतिक पक्ष हो अथवा आन्तरिक मनोमय कोश, गाँधीजी का वहाँ प्रबल वैचारिक दखल था। इन पक्षों की गतिविधियों को सम्पन्न करने का उनका एक विशिष्ट ढंग था। वे जिस तरह से जीवन व्यतीत करते थे, उनमें एक कलात्मक लय थी। आश्रम की गतिविधियाँ हो अथवा आंदोलन की ; सभी में गाँधीजी के उच्च कलाबोध को देखा जा सकता है। अमेरिकन दार्शनिक हेनरी डेविड थोरे का जीवन्त कथन है, सबसे महान कलाकार वह है जो अपने जीवन को ही कला का विषय बना दे। इस कथन के परिप्रेक्ष्य में देखें तो गाँधीजी का जीवन ही कला का विषय था। हम बाह्य प्रमाणों के रूप में भी देखते हैं कि पूरी दुनिया में कलाकारों द्वारा गाँधीजी के जीवन को केन्द्र में रख कर मूर्तियां बनाई गई हैं। चितराम खींचे गए हैं। संगीत गुंजायित किया गया है। काव्य निबद्ध हुए हैं। वस्तुत: गाँधीजी और कलाएं एकमेव स्थिति में ही समझे जा सकते हैं। उन्हें अलग-अलग रूप में समझना दुष्कर जान पड़ता है। सम्भवत: यही कारण रहा कि दोनों को अलग-अगल समझने की चेष्टा में यह बात सामने आई कि गाँधीजी का कलाओं से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं था। जबकि बात इसके उलट है।

महादेव देसाई ने अपनी डायरी में संगीतकार दिलीप कुमार राय की गाँधीजी से भेंट का वर्णन किया है। दिलीप कुमार जी कहते हैं, विद्यालयों में संगीत की बड़ी अवहेलना हुई है। जिस पर गाँधीजी बोले कि, मेरी भी तो यही शिकायत है। यह सुनकर दिलीप कुमार जी आश्चर्य में पड़ गए और बोले कि, बापू, मैं तो अब तक यही मानता था कि आप संगीत जैसी सभी ललित कलाओं के विरूद्ध होंगें, परंतु आज आपकी राय सुन कर मुझे खुशी हुई है। गाँधीजी ने कहा संगीत के विरूद्ध मैं? जैसे उनके साथ अन्याय हो रहा हो। हाँ, मुझे मालूम है कि मेरे बारे में लोग कई तरह की गप्पे हाँकते हैं, जिनकोे रोकना मेरे लिए असम्भव हो रहा है।

गाँधीजी कहते हैं, मैं अपने को कला कोविद कहता हूँ तो सबको हँसी आती है। उक्त घटना को वरिष्ठ कवि एवं कला समीक्षक प्रयाग शुक्ल इस दलील के रूप में व्याख्यायित करते हैं कि, कलाओं से गाँधीजी का कितना गहरा वास्ता रहा था। नोबल पुरस्कार विजेता, विश्व प्रसिद्ध लेखक रोमां रोला बताते हैं, गाँधीजी ने कहा था – संगीत की उपेक्षा ही हमारी सबसे बड़ी भूल है, क्योंकि लय और व्यवस्था का प्रतीक संगीत है। दुख की बात है कि भारत में वह एक छोटे-से वर्ग विशेष की मिल्कियत बन कर रह गया है, हम उसे सारे राष्ट्र की सम्पत्ति नहीं बना सके। सम्मिलित रूप से राष्ट्रीय गीत का गायन सिखाना आवश्यक है। हमारे बड़े-बड़े संगीतज्ञ कांग्रेस में भाग लें, जनता को गीत गाना सिखावें। जिसमें सुचिंतित इच्छा-शक्ति का अभाव है, ऐसी जनता को श्रृंखलाबद्ध करने के लिए इससे सहज उपाय नहीं हो सकता।

वस्तुत: गाँधीजी की सौन्दर्य दृष्टि प्रकृति – आदृत थी। ‘सत्य’, ‘कला’ और ‘आनन्द’ पर उनकी रोमा रोला से इुई बातचीत एक उल्लेखनीय अध्याय है। प्रकृति से कलात्मक एकात्म में मीरा बेन का यह कथन महत्वपूर्ण है कि, गाँधीजी के आश्रम में चिडि़यों का निर्भय यथेच्छ व्यवहार – वे हर वक्त गाँधीजी के (अथवा मीरा के) कंधों पर बैठती हैं, कंधे से उड़ कर माथे पर जा बैठती है, चिडि़या भी एक से एक सुन्दर हैं। गाँधीजी मनुष्य निर्मित कलाओं में भी गहरा आनन्द अनुभव करते थे। अपनी रोम यात्रा के समय उन्होंने वैटीकन म्यूजि़यम देखा था। उन्होंने सिस्टाईन चैपेल की वह धनुषाकार छत भी देखी जहाँ महान चित्रकार माइकेल एंजेलो द्वारा बनाए भित्ती चित्र थे। गाँधीजी का सौन्दर्य बोध कला की किसी एक ही विधा तक सीमित नहीं था। वे द्रवित करने वाली हर कला-वस्तु के प्रति संवेदनशील थे। तभी तो वे अपनी आत्मकथा में श्रवण भक्ति नाटक में आए छन्द के बारे में कह पाते हैं कि उस ललित छन्द को मैंने बाजे पर बजाना सीख लिया था। अर्थात् संगीत कला को आत्मसात कर लिया था।

गाँधीजी स्वयं कहते हैं, मुझे बाजा सीखने का शौक था। पिताजी ने मुझे बाजा दिला भी दिया था। हरीशचन्द्र नाटक के बारे में बताते हैं कि उस नाटक को देखते मैं, थकता न था ; उसे बार-बार देखने कि इच्छा होती थी…….. मैंने अपने मन में सैंकड़ों बार इस नाटक को खेला होगा, मुझे हरिश्चन्द्र के सपने आते……. हरिश्चन्द्र का दु:ख देख कर मन में खूब रोया हूँ……..। ह्रदय आप्लावित करने वाले इस वर्णन से हम गाँधीजी के उस उदार चित्त को देख सकते हैं जो नितान्त कलामय था। रोम में वेटिकन सिटी की आर्ट गैलरी में क्रॉस पर चढ़े ईसा का चित्र देखकर ऐसे अभिभूत हुए कि, कहते हैं उनकी आँखों से आँसू निकल पड़े- बाद में यह बात उन्होंने खुद भी स्वीकारी थी। इस तरह गाँधीजी की कला दृष्टि आग्रह – दुराग्रह से परे, निरी एक भावक की कला-दृष्टि रही थी। तभी तो यूरोप के विलनवे बालिका विद्यालय की छात्राएं जब उन्हें स्विस चरवाहों का गीत सुनाती हैं तो वे मुग्ध हो उठते हैं, लगता है मानों वे गायिकाएं भी चरवाहों की कन्याए हैं। चरवाहे, श्रीकृष्ण से उनका तादात्म्य हो उठता है।

गाँधीजी अपनी पुत्र वधु को पत्र में लिखते हैं, – हम विचार करें कि कला किसे कहना चाहिए, जो कुछ भी हमारी आँखों को रूचे, वह कला नहीं है। अनेक विशेषज्ञों द्वारा स्वीकृत कला भी, कला नहीं हो सकती। अनेक चित्रों तथा प्रतिमाओं के बारे में भी मुझे विख्यात कला समीक्षकों के अलग-अलग विचार पढ़ने को मिले हैं….. अत: हमें विचार करना चाहिए कि कला क्या है? गाँधीजी के इस कथन से हमें, कला के प्रति उनकी गंभीरता स्पष्ट पता चलती है। वे इसी सन्दर्भ में रूसी लेखक टाल्स्टाय की पुस्तक ‘कला क्या है’ का भी जि़क्र करते हैं। इसी तरह से एक महत्वपूर्ण बात के रूप में रोमां रोला द्वारा दिया गया वर्णन यहाँ प्रस्तुत करना समीचीन होगा। रोमां रोला, काउंटेस अंतोनियों द्वारा लिखे गए एक पत्र का हवाला देते हैं। इसमें दो भारतीय संगीतज्ञों को उनकी यूरोप यात्रा से पूर्व, गाँधीजी द्वारा उन्हें दिए गए सुझाव अंकित हैं।

इन दोनों संगीतज्ञों में से एक बम्बई (मुम्बई) की प्रसिद्ध म्यूजि़क अकादमी के संचालक-संगीतकार ओंकारनाथ ठाकुर थे। पत्र के अनुसार, गाँधीजी उनसे कहते हैं – यूरोप में तुम दो आदमियों से मिलना, एक मुसोलिनी और दूसरे रोमां रोला से। मूसोलिनी को सभी जानते हैं। राह के जरा से बच्चों ने भी उनकी बाबत सुना है। और संस्कृति से आलोकित व्यक्ति मात्र रोमां रोला को यूरोप पहचानेगा…… संगीतज्ञ अपने यूरोप प्रवास के दौरान, गाँधीजी के सुझाव अनुसार मूसोलिनी से मिलते हैं। गाँधीजी द्वारा कही गई बात भी मूसोलिनी को बताते हैं। मूसोलिनी ने एक से अधिक बार उन संगीतज्ञों का गाना सुना। कहा जाता है गाना सुनकर मूसोलिनी का ह्रदय तृप्त हुआ था। इस दस्तावेजी वर्णन से प्रश्न उठता है कि गाँधीजी ने संगीतज्ञों को मूसालिनी जैसे तानाशाह से मिलने के लिए क्यों कहा? वस्तुत: इसका उत्तर गाँधीजी के गहन दर्शन को समझने पर मिलता है।

गाँधीजी कला की आन्तरिक शक्ति को अच्छी तरह समझते थे। वे जानते थे कि किसी भी तरह की तानाशाही और कठोरता का प्रत्युत्तर कलाएं और कोमलता है। उन्होंने गहराई से अनुभव किया होगा कि संगीत के माध्यम से अधिनायक के ह्मदय में एक स्पन्दन तो उत्पन्न किया ही जा सकता है। गाँधीजी का चरम आदर्श ‘ह्रदय परिवर्तन’ रहा है। ऐसे में उन्होंने मूसोलिनी के ह्रदय की थाह समझ ली थी। वे मूसोलिनी से मिल भी चुके थे। गाँधीजी ने एक पत्र में लिखा है – यद्यपि बाहर से मूसोलिनी का रूप बड़ा दुर्दम्य है, लेकिन भीतर से वे अपने देशवासियों की सेवा करना चाहते हैं, इसी बात ने मुझे विस्मित किया है। यहाँ तक कि उनकी मेज पर लदे भाषणों में भी अपने देशवासियों के लिए हार्दिकता का एक भाव और प्रेम की एक आग छिपी रहती है। इस तरह गाँधीजी ने मूसोलिनी के ह्रदय को तो समझा ही, संगीत तथा उसकी शक्ति को भी गहरे तक अनुभूत किया था। सम्भवत: इसी अनुभूति के बरक्स उन्होंने संगीतज्ञों को मूसालिनी से मिलने का सुझाव दिया होगा। सारत: गाँधीजी का कलाओं से सम्बन्ध केवल बाह्र स्वरूपों तक ही सीमित नहीं था, वरन् वे कलाओं की आंतरिक शक्ति से भी एकमेव रहे थे। यद्यपि उनके जीवन में कलाओं के लिए, अलग से अवकाश नहीं था ; तथापि कलाओं की आंतरिक शक्ति की पहचान तथा उसका उक्त घटना के रूप में प्रयोग उनके ‘सत्य के प्रयोगों’ में एक स्वर्णिम अध्याय है, जिसे कला के बरक्स अब तक देखा नहीं गया है।

 

49-सी, जनता मार्ग,

सूरजपोल अन्दर, उदयपुर, 313001

राजस्थान

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *