मुहम्मद मजीद मंसूरी की चाक्षुष अभिव्यंजना

अगर आप लखनऊ के कला जगत से परिचित हैं, तो निःसंदेह आप शहंशाह हुसैन यानि अपने हुसैन साहब को जरूर जानते होंगे। क्योंकि हुसैन साहब ने लगभग तीन दशक से अधिक समय तक ललित कला अकादेमी, नई दिल्ली के अलीगंज स्थित राष्ट्रीय ललित कला केंद्र में अपनी सेवाएं दी है। ऐसे में इस केंद्र से अगर आपका किसी भी तरह का जुड़ाव रहा हो, तो आपको इनका सान्निध्य भी अवश्य मिला होगा। साथ ही इनके व्यक्तित्व के विशिष्ट लखनवी अंदाज़ से प्रभावित हुए बिना आप भी नहीं रह पाए होंगे। हालाँकि शायराना अंदाज़ वाले इस बेहद खास व्यक्तित्व से अपनी पहचान के लगभग तीसेक बरस बीत चुके हैं। नौकरी के लिहाज़ से प्रशासनिक ज़िम्मेदारियों को निभाते हुए इनकी कला लेखक वाली एक खास प्रतिभा कहीं दब सी गयी थी, ऐसा अपना मानना है। यह अलग बात है कि पहले भी अक्सर कलाकारों से बातचीत में उनका यह पक्ष रह -रहकर उभर आता था, किन्तु उस दौर में उनका कला लेखन काफी अनियमित सा ही था। लेकिन ख़ुशी की बात है कि सेवानिवृति के बाद उनकी रचनात्मक प्रतिभा निरंतर मुखर होती चली जा रही है, ऐसे में उनके अंदर का शायर और कला लेखक दोनों इन दिनों हमारे सामने है। बहरहाल हमारे अनुरोध पर आलेखन पेज के लिए नियमित तौर पर लिखने की सहमति के साथ साथ उनका सुझाव आया कि क्यों न नवोदित कला प्रतिभाओं को प्राथमिकता दी जाये। ऐसे में प्रस्तुत है युवा कलाकार मुहम्मद मजीद मंसूरी के कला सृजन के विभिन्न पक्षों पर प्रकाश डालता उनका यह आलेख….

मुहम्मद मजीद मंसूरी

यदि आप दृश्य- अदृश्य अर्थात अमूर्त की भाषा समक्षते हैं, व्यक्त में अव्यक्त को देख सकते हैं, क्योंकि अमूर्त में जो दर्शाया जाता है उससे इतर बहुत कुछ ऐसा होता है जो दृश्य होते हुए भी अदृश्य रहता है, तो यदि आप इस अदृश्य को देख सकने में सक्षम हैं, तो आपको मंसूरी के अमूर्त चित्र अवश्य आकर्षित करेंगे।

साधरणतया अमूर्त चित्रण दो प्रकार के होते हैं। प्रथम, अव्यक्त को व्यक्त करना और द्वतीय, व्यक्त को अव्यक्त के रूप में अभिव्यंजित करना. चाक्षुष कलाकार प्रायः द्वतीय प्रकार को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाते हैं। मजीद भी इसी द्वतीय प्रकार का चुनाव करते प्रतीत होते हैं। उनके अमूर्त चित्र दृश्य अनुभवों पर आधारित अभिव्यंजना हैं।निरपेक्ष सत्ता से इतर जितने भी प्रत्यक्ष प्रत्यय ऐसे हैं, जो उनकी सहज चेतना एवं ज्ञान को उपलब्ध हैं, वो सब उनकी अमूर्त अभिव्यक्ति का विषय हैं।

मंसूरी सामान्य दर्शक के इस मनोविज्ञान को सम्भवतः अत्यंत गहराई से समझते हैं । क्योंकि अपनी अभिव्यक्ति के आयाम में वो मूर्त को अमूर्त में इस प्रकार रूपायित करते हैं कि दर्शक को वो रूप जाना – जाना सा, पहचाना – पहचाना सा लगता है । और दर्शक उसमें अपनी सहज कल्पना के रूपाकारों को खोजना अथवा देखना आरम्भ कर देता है और बहुधा वो, अर्थात दर्शक उन कलाकृतियों में उन रूपाकारों को भी देख रहा होता है। जो स्वयं कलाकार की कल्पना से भिन्न होते हुए भी उसकी अपनी कल्पना को साकार करते हैं और इसी बिंदु पर, दर्शक, कलाकार और कलाकृति एकमेव हो जाते हैं और इस प्रकार उनमें एक संवाद स्थापित हो जाता है।

अमूर्त चित्रण का यही वह जादुई और निराला संसार है। जिसमें अभिव्यंजनात्मक कल्पना की अपार संभावनाएं हैं और यदि कलाकार इन सम्भावनाओं को, अपनी रचना प्रक्रिया में इस प्रकार प्रयोग करने में समर्थ है कि वो अपनी कल्पना के साथ- साथ एक दर्शक के मनोविज्ञान को भी दृष्टिगत रखता है तो वह अपनी रचना के साथ दर्शक से तादात्म्य स्थापित करने में सफ़ल होता है।.मंसूरी में यह गुण स्वभाविक रूप से विद्यमान है. क्योंकि मंसूरी जिन व्यक्त भावों को अव्यक्त रूप से अभिव्यंजित करते हैं, प्रायः वे समस्त रूपाकार दर्शक की कल्पना में कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में पहले से ही विद्यमान होते हैं ।

मजीद मंसूरी यद्यपि आज विशाल कैनवास का प्रयोग करते देखे जाते हैं, लेकिन मैंने A4 साईज़ के पेपर से लेकर फ़ुल शीट तक पर उनके ढेरों काम देखे हैं । यद्यपि बड़े कैनवास अब उनकी उसी कल्पना का विस्तार हैं।

आरम्भिक दौर में मैंने मंसूरी के उन चित्रों को भी देखा है, जो कैज़ुअल फ़ार्म शीर्षक के अन्तर्गत ही सृजित किए जाते थे, जिनमें जलरंग माध्यम में, कुछ ऐसी आकृतियों के रूपाकार होते थे जो पंतिगे के परों के सदृश्य हुआ करते थे और जिनकी संरचना अत्यंत पारदर्शी होती थी। रंगों का प्रयोग भी इतना मद्धिम और हल्का होता था कि उसका सौंदर्य बस देखते ही बनता था और वह आकृति, प्राकृतिक स्वभाव और सौंदर्य के सदृश्य ही दिखाई देती थी ।

यद्यपि आज मंसूरी पूर्व के विपरीत गहरे और गाढ़े रंगों, चाहे जलरंग हों अथवा मिक्स मीडिया, का प्रयोग करते देखे जाते हैं और प्रायः वो अपने रूपाकारों को चित्रित करने में रंगों की गति, लय और बहाव का सहारा लेते हुए रंगों के घनत्व का आनुपातिक प्रयोग, अपने चित्रों में टेक्सचर और आकृति के रूप निर्माण के हेतु अत्यंत सुंदरता एवं कुशलता पूर्वक करते हैं ।

कैज़ुअल फ़ार्म शीर्षक ही अपने आप में इसका प्रमाण है कि कलाकार के मन- मस्तिष्क में सब कुछ दृश्य और व्यवस्थित होते हुए भी, बहुत कुछ अंजाना है और जो सृजन प्रक्रिया के दौरान चुपके से अंजाने रूप में कैनवास पर चित्रित होता जाता है। उसमें स्थाई भाव का अभाव है। इसमें बहुत कुछ ऐसा भी होता जिससे कलाकार भी आरम्भिक रूप से भिज्ञ नहीं होता। मुझे स्मरण आता है कि एक बार, वार्ता के दौरान, प्रसिद्ध चित्रकार दिलीप दास गुप्ता ने अपनी चित्र निर्माण शैली के बारे बताते हुए कहा था कि उनकी कलाकृति उनके अनुसार नहीं चलती है वरन् वे कलाकृति के अनुसार चलते हैं। इसीलिए अमूर्त चित्रण को भिज्ञ – अभिज्ञ का शास्त्र कहा जाता है जो अपने आप में एक अद्भुत चित्रण संसार का सृजन करता है, जिसमें अपार सम्भावनायें उपलब्ध होती हैं।

मुहम्मद मजीद मंसूरी का चित्रण वास्तव में उनकी आत्मिक बौद्धिकता का चित्रण भी है। वे अपने चित्रों से एक दार्शनिक सम्वाद स्थापित करते हैं लेकिन ऐसा करते समय, उनकी रचना अपने सौंदर्य तत्व को प्रभावी रूप से बनाये रखती है। रचना में स्वतंत्र आकार के साथ – साथ, रचना की बुनावट में प्रयुक्त रेखाओं के लघु, दीर्घ और बिंदुत्तामक स्वरूप जहाँ एक ओर रचना की सघनता को चाक्षुष रूप से अलंकृत कर उसे समृद्ध करते हैं, तो वहीं दूसरी ओर रचना के तार्किक रूप को भी सारगर्भित अर्थ प्रदान करते हैं । इसलिए मंसूरी के चित्रण में टेक्सचर की अपनी अलग ही एक महत्ता है जो सम्पूर्ण कलाकृति के रंग संयोजन के पारस्परिक समन्वय से कलाकृति को अनेक प्रकार के भावों से सुसज्जित करती है। आकृति के साथ ही, टेक्सचर मंसूरी के चित्रण का केंद्र बिंदु है। ये टेक्सचर चाहे रेखाओं और बिंदु के सामंजस्य से निर्मित किये जायें अथवा रंग बिंबों या गुल्मों के द्वारा चित्रित किये जायें, टेक्सचर की प्रधानता हर अवस्था में बनी रहती है।

यद्यपि इस प्रक्रिया के अन्तर्गत, कलाकृति संयोजन में,कभी- कभी ज्यामितीय आकृतियों का प्रक्षेपण औचित्य से परे प्रतीत होता है । परन्तु हो सकता है कि मंसूरी ऐसे प्रयोग के द्वारा, उपस्थित और अनुपस्थित के मध्य किसी ज्यामितीय कोण को देखते हों क्योंकि मंसूरी उपस्थित और अनुपस्थित के मध्य, आकार की सम्भावनाओं को खोजते प्रतीत होते हैं। मंसूरी कभी कभार मानव और जन्तु आकृतियों के अंगों का प्रयोग आकृति संयोजन के निहितार्थ भी करते हैं । वास्तव में मंसूरी उपलब्ध आकारों को अपनी कल्पना के द्वारा उसे एक नवीन रूप प्रदान कर उसे पुनः परिभाषित कर, सृजन का एक प्रयोगधर्मी संसार निर्मित करते हैं। इस दृष्टिकोण से मंसूरी को एक प्रयोगधर्मी अमूर्त वादी कलाकार की संज्ञा दी जा सकती है।

-शहंशाह हुसैन
सम्पर्क: 6388730266

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