अंग्रेजी में प्रकाशित होनेवाली कला पत्रिका “क्रिएटिव माइंड” के प्रबंध संपादक मनोज त्रिपाठी ने वरिष्ठ कला समीक्षक, कला इतिहासकार और क्यूरेटर, जोनी एमएल से बातचीत की। प्रस्तुत है साक्षात्कार के सम्पादित अंश का हिंदी अनुवाद :
मनोज त्रिपाठी : आप लगभग तीन दशकों से एक कला समीक्षक, कला इतिहासकार और एक अद्भुत क्यूरेटर हैं। आप अपने करियर के विकास की तुलना में कला परिदृश्य के विकास को कैसे देखते हैं?
जोनी एमएल : यह प्रश्न मुझे आत्मावलोकन की स्थिति में डाल देता है। मैंने हमेशा विभिन्न क्षमताओं में कला के साथ अपने जुड़ाव का समय-समय पर मूल्यांकन किया है; एक कला समीक्षक, इतिहासकार, लेखक, टिप्पणीकार, क्यूरेटर, अरेंजर, सलाहकार आदि के रूप में। भूमिकाएँ विविध रही हैं और मुझे उन्हें करने में आनंद आया है, जिससे मुझे कला, कलाकारों, कला दीर्घाओं और कला बाज़ार के कामकाज के तरीकों के बारे में बहुत स्पष्टता मिली है। मुझे लगता है कि अधिकांश कला समीक्षक या कला इतिहासकार, जो किसी एकांत में नहीं रह रहे हैं, वे नियमित अंतराल में, मेरे द्वारा उल्लिखित भूमिकाएं निभाने के लिए बाध्य हैं। हालांकि उनमें से कुछ इस तथ्य को स्वीकार नहीं कर सकते हैं कि वे अपने संबंधित शैक्षणिक और पेशेवर हित से परे चले गए हैं।
मैंने नब्बे के दशक के मध्य में एक कला समीक्षक के रूप में अपने करियर की शुरुआत की। वैश्वीकरण की पहल के दौरान जैसे दावे किये गए थे, वैसी संभावनाएं दिख नहीं रही थी। दिल्ली जैसा महानगर भी तब एक अति विकसित गाँव जैसा ही लगता था। कला समीक्षक जानकारियों के लिए पुस्तकालयों और पुस्तकों पर निर्भर थे। कोई इंटरनेट उपलब्ध नहीं था, न ही कोई मोबाइल टेलीफोन था। कम्प्यूटरीकरण को सभी लोग संदेह की दृष्टि से देखते थे। कलाकार कला में मनुष्यों की नकल करने की कंप्यूटर की अनुमानित क्षमताओं के बारे में चिंतित थे। कोई भी डिजिटल आर्ट या आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के बारे में बात नहीं कर रहा था। मल्टी-मीडिया जैसी चीज़ें भारतीय कलाकारों की कल्पना की सीमा से परे थीं। इस माध्यम को अपनाने वाले कुछ चुनिंदा कलाकारों को बेवकूफ माना जाता था और कोई भी कला और नई तकनीक को नहीं समझता था या समझना चाहता था।
इसी माहौल में मेरा करियर आगे बढ़ा। मैं कला इतिहास विषय से अपनी शिक्षा के बाद बड़ौदा से दिल्ली आया था और मैं एक पूर्णकालिक कला समीक्षक बनना चाहता था। उन दिनों जिस तरह की कला आलोचना मैंने एकमात्र उपलब्ध माध्यम, प्रिंट मीडिया, में देखी और पढ़ी, जो बतौर आलोचना, महज एक प्रकार की भविष्यवाणियाँ पेश करती थी। उस समय के जाने-माने कला समीक्षकों ने कभी भी युवा और उभरते कलाकारों के काम को निष्पक्ष नज़र से देखकर और उन्हें कुछ अप्रिय राय देकर कोई दिशा देने का विकल्प नहीं चुना। वे उन वरिष्ठ कलाकारों के बारे में लिखना पसंद करते थे जिन्हें शैली या विषय वस्तु में खुद को सही करने के लिए कला समीक्षकों से किसी सलाह की आवश्यकता नहीं होती थी। मुझे याद है स्वर्गीय सुनीत चोपड़ा एक ऐसे कला समीक्षक थे, जिन्होंने तीव्र आलोचनात्मक विचारों वाले युवा कलाकारों के बारे में लिखा था, लेकिन वह भी अपने राजनीतिक जुड़ाव के कारण पक्षपाती थे। एम.रामचंद्रन ने स्टेट्समैन में अपने कॉलम, “द कल्चर वल्चर” में कला आलोचना में एक अलग और युवा ऊर्जा का समावेश किया, किन्तु जल्द ही उन्होंने सरकारी पद संभालने के चक्कर में इसे पीछे छोड़ दिया। अधिकांश अन्य मुख्यधारा के कला समीक्षक वरिष्ठ कलाकारों के बारे में ‘गहन’ और ‘गंभीर’ होने की कोशिश कर रहे थे और नई सहस्राब्दी तक वे सभी समकालीन कला पर अपने उथले विचारों के बावजूद डिफ़ॉल्ट रूप से क्यूरेटर बन गए।
उन दिनों मैं खुद को कला की मुख्यधारा में एक प्रवासी या शरणार्थी मानता था। लंबे समय तक मैंने खुद को कला के क्षेत्र में एक प्रवासी मजदूर के रूप में ही माना। अपने को प्रवासी मानने की यह स्थिति मेरे लिए कोई फैंसी खेल नहीं था; मैं इसके निहितार्थों, दुनिया के किसी भी हिस्से में विस्थापित हो चुके प्रवासियों की दोयम दर्जे की स्थिति से पूरी तरह वाकिफ था। अपने देश में, मैं ग्रामीण आबादी को उनकी पुश्तैनी जमीन से शहर के निर्माण क्षेत्रों की ओर जाते हुए देख रहा था, जहां वे प्रवासी बन रहे थे और अपने जीवन और अपनी संतानों के भविष्य को खतरे में डालकर घुमन्तु जीवन जीने के लिए मजबूर थे। उन दिनों दिल्ली में निर्माण कार्य जोरों पर था और हर जगह आपको प्रवासी मजदूर दिख ही जाते थे। आप इसे वैश्वीकरण के परिणाम के तौर पर देख सकते हैं! ग्रामीण इलाकों से लोगों को उजड़ना और उनका प्रवासी मजदूर बनाना एक अजीब कीमियागिरी थी, जो मुझे लगा कि मेरे जीवन में भी हो रहा है।
जहां तक मेरा विचार था, यह एक वैचारिक स्थिति थी। केरल में जन्मे और पले-बढ़े, कला के प्रति मेरा जुनून मुझे बड़ौदा और फिर दिल्ली ले आया और एक बार दिल्ली में मैंने खुद को युवा और संघर्षरत कलाकारों के साथ पाया, जो सफल और स्थापित कलाकारों की तुलना में एक प्रकार का आत्म-प्रक्षेपण हो सकता है। अगर मैं बिना किसी पछतावे के अतीत पर गौर करूं तो यह एक अच्छा करियर विकल्प नहीं था। लेकिन मैं युवा कलाकारों के साथ बड़ा हुआ और एक क्यूरेटर के रूप में उनकी सौंदर्य संबंधी आकांक्षाओं को दृश्यता दी, जो तत्कालीन स्थापित कला बाजार के अनुरूप नहीं थे, क्योंकि तत्कालीन कला बाजार कलाकृतियों के मामले में किसी अन्य माध्यम की तुलना में सिर्फ तैल माध्यम से बने चित्रों को प्राथमिकता देता था। मैं एक प्रकार का आर्ट पोवेरा (जिसके तहत अपरंपरागत सामग्री और शैली की कला से कॉर्पोरेट मानसिकता का विरोध) क्यूरेटोरियल अभ्यास कर रहा था; यानी न्यूनतम, प्रयोगात्मक, बाजार के नियमों को धता बताने वाला, वस्तु के तौर पर अल्पकालिक लेकिन वैचारिक सामग्री के रूप में टिकाऊ। मृणाल कुलकर्णी के साथ मैंने जो शो क्यूरेट किया था उनमें से एक का शीर्षक था ‘ड्रीम्स : द प्रोजेक्ट अनरियलाइज़्ड’। शीर्षक अपने आप में ही स्पष्ट है। लेकिन इसका एक दूसरा पहलू भी था । कला क्षेत्र के लोगों ने सोचा कि मैं एक बहुत गरीब परिवार से आया हूं और मेरे साथ ‘सहानुभूतिपूर्वक व्यवहार’ करने की जरूरत है। एक व्यक्ति ने इस आशय का लेख भी लिखा। मुझे अपने करियर के पहले दो दशकों के दौरान उस तरह का क्यूरेटर और कला समीक्षक होने का बिल्कुल भी अफसोस नहीं है। मुझे इस पर बहुत गर्व है क्योंकि आज के कई सफल कलाकारों को या तो मेरे द्वारा चुना गया था या मेरे पहली बार द्वारा उनके बारे में लिखा गया था, जो बाद में मुख्यधारा की निजी दीर्घाओं के प्रिय बन गए।
मनोज : क्या आपको लगता है कि हमारे देश के कला संस्थान युवाओं को उचित कला शिक्षा प्रदान कर रहे हैं ताकि वे वास्तव में अद्वितीय रचनाकार बन सकें?
जोनी एमएल: मैं तो इस विचार का पक्षधर हूं कि बच्चों को कम उम्र में अच्छी कला से अवश्य परिचित कराया जाना चाहिए। इसके अलावा, मैं अच्छी कला शिक्षा का भी दृढ़ता से समर्थन करता हूँ। लेकिन साथ ही मेरे मन में अलग-अलग विचार भी हैं। जैसे सिखाने योग्य अच्छी कला क्या है? ऐसी कौन सी स्थितियाँ हैं जिनमें अच्छी कला सिखाई जानी चाहिए? उस अच्छी कला को सिखाने में कौन लोग सक्षम हैं? जैसे-जैसे प्रश्नों की संख्या बढ़ती है, कला शिक्षा के विचार की जटिलता भी बढ़ती जाती है। इन सभी प्रश्नों का औसत और तार्किक उत्तर यही है कि कला कोई सिखा नहीं सकता। विद्यार्थियों को केवल कुछ दिशा-निर्देश ही दिये जा सकते हैं। स्कूल में सिखाई जाने वाली कला और विचारों तथा कॉलेज में पढ़ाई जाने वाली कला और विचारों के बीच स्पष्ट अंतर हैं। साथ ही कला सिखाने में उम्र और वातावरण भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
जब मैं क्रिएटिव क्यूरेटिंग में मास्टर डिग्री करने के लिए लंदन गया तो कला सीखने -सिखाने के बारे में मेरे विचार काफी बदल गए। चार्ल्स वालेस इंडिया ट्रस्ट के समर्थन से मैं लंदन विश्वविद्यालय के गोल्डस्मिथ्स कॉलेज में अपनी स्नातकोत्तर की पढ़ाई पूरी कर सका। दरअसल, हमें वहां कुछ भी नहीं सिखाया गया! उस पाठ्यक्रम ने हमें प्रस्तुतियों और प्रदर्शनियों की तैयारियों को प्रोत्साहित किया। यह पूरी तरह से तकनीकी था और हम (सभी अठारह परिपक्व छात्र जिनमें सोलह महिलाएं और मेरे सहित दो लड़के थे) को प्रिंटमेकिंग, फोटोग्राफी और किसी अन्य माध्यम को भी अपनाना था जिसके साथ हम प्रयोग करना चाहते थे। कॉलेज में हमें सप्ताह में दो या तीन व्याख्यान दिया जाता था और बाकी समय हम जो चाहें करने के लिए स्वतंत्र थे। मैंने अपने अधिकांश दिन और रातें गोल्डस्मिथ्स कॉलेज की शानदार लाइब्रेरी में बिताईं। इतना कि वहां के कर्मी भी यह मानने लगे थे कि मैं भी वहां का एक स्टाफ ही हूँ! मैं लाइब्रेरी में पहुंचने वाला पहला और निकलने वाला अंतिम व्यक्ति होता था।
इस अनुभव ने मुझे अपने लिए एक कार्यप्रणाली बनाने और अपनी सोच को बदलने में भरपूर मदद की। भारत में कला शिक्षा के क्षेत्र में मेरे गहन शोधों ने मुझे अवगत कराया कि भारत जैसे विशाल देश में कला सिखाने का कोई एक तरीका नहीं हो सकता। अधिकांश सरकारी स्कूलों और धनाढ्य निजी स्कूलों के बीच पहले से ही भारी असमानता मौजूद है। ज्यादातर निजी स्कूलों में वे दृश्य कला में मास्टर डिग्री वाले कला शिक्षकों को नियुक्त करते हैं और ये युवा शिक्षक अपनी शिक्षण विधियों में बहुत प्रभावी और नवीन हैं। जब बच्चे दसवीं या बारहवीं कक्षा तक पहुंचते हैं तो वे कला इतिहास, प्रमुख कलाकारों और शैलियों के बारे में काफी हद तक जागरूक हो जाते हैं। दुर्भाग्य से हमारे यहाँ, वे बच्चे कला में अपना करियर नहीं चुन सकते, भले ही वे कला में कितने ही प्रतिभाशाली क्यों न हों। सरकारी स्कूल कला शिक्षकों को इतनी खुली छूट नहीं देते; वे शिक्षाशास्त्र की ‘जाति व्यवस्था’ में सबसे निचले स्तर पर हैं। फिर भी अधिकांश छात्रों के दिलों में कला के प्रति कुछ जुनून पैदा करने की पूरी कोशिश करते हैं। दिलचस्प बात यह है कि आज के ज्यादातर कलाकार अब भी इसी पृष्ठभूमि से आते हैं।
मुझे याद है कि सुबोध गुप्ता ने कभी कहा था, जब वह कला महाविद्यालय,पटना में छात्र थे, तो उन्होंने कभी उस कमरे के दरवाजे को खुलते नहीं देखा जिस पर ‘लाइब्रेरी’ लिखा हुआ था। तो, कोई कल्पना कर सकता है कि इस तरह के छात्रों ने कॉलेज से कला इतिहास के संदर्भ में किस प्रकार की शिक्षा प्राप्त की थी। लेकिन चमत्कार यह है कि वे छात्र आज भारतीय कला के अगुआ बन गए! मेरा मानना है कि हाईस्पीड इंटरनेट कनेक्टिविटी, मीडिया लैब, अत्याधुनिक स्टूडियो, जाने-माने शिक्षकों आदि के साथ एक शानदार कॉलेज में कला शिक्षा स्वाभाविक रूप से एक छात्र को कलात्मक प्रतिभा से लैस नहीं करती है। जबकि ग्रामीण केरल, ओडिशा, बिहार, झारखंड, खैरागढ़ के कॉलेज अभी भी बड़ौदा, दिल्ली, शांतिनिकेतन या जामिया के कला संकायों में उच्चतर शिक्षा के लिए छात्रों को तैयार कर रहे हैं। अलबत्ता तथाकथित शहरी (निजी) कला संस्थान अभी भी कला जगत को कोई उत्कृष्ट कलाकार नहीं दे पाए हैं।
मनोज : क्या आप इस कहावत पर विश्वास करते हैं कि कलाकार जो देखते और महसूस करते हैं कला उसका रिफ़्लेक्सन (प्रतिबिंब) है? क्या वे अब भी अस्तित्ववाद में विश्वास रखते हैं?
जोनी एमएल: कला हमेशा जीवन का प्रतिबिंब होती है। यह अन्यथा नहीं हो सकता। लेकिन सवाल यह है कि एक कलाकार क्या देखता है और क्या महसूस करता है? ठीक यही सवाल दर्शकों पर भी लागू होते हैं। कलाकार और कला प्रेमी बस जीवन और समय पर चिंतन के बारे में बात करते हैं। यहां हमें ‘प्रतिबिंब’ शब्द का अर्थ स्पष्ट करना होगा; एक ओर यह शब्द ‘प्रतिबिंबित करना’ यानी दर्पण की भूमिका निभाना दर्शाता है और दूसरी ओर, रिफ़्लेक्सन (प्रतिबिंब) का एक अर्थ विचार करना भी है। कला के मामले में अधिकांश लोग आज भी दर्पण वाले भाग में विश्वास करते हैं। कला तभी प्रिय होती है जब वह प्रकृतिवादी हो। कलाकार की सराहना तब की जाती है जब वह प्रकृतिवाद में अपनी कला दिखा पाता है। वे कहते हैं, देखो, उन्होंने इसे रवि वर्मा की तरह चित्रित किया है या उनका यह काम एक फोटोग्राफ की तरह है। यह प्रतिबिंब के पहले अर्थ को बहुत गंभीरता से लेने की समस्या है।
जीवन पर विचार करना कोई परियोजना या अभ्यास मात्र नहीं है; यह स्वयं एक कलाकार का जीवन है। एक कलाकार उस कार के बारे में सोच रहा है जिसे वह अगले सप्ताह खरीदने जा रहा है और एक ऐसी पेंटिंग बना रहा है जो सिल्वान (वन्य) परिदृश्य दिखाती हो और जहां किसी सड़क का कोई नामोनिशान भी नहीं है, तो वह एक पाखंडी है। सोचना, विश्लेषण करना, समझना, दर्शन और सृजन महज़ मापने योग्य या वर्गीकृत करने योग्य इकाइयां नहीं हैं। ये सभी गुण कलाकारों के स्वाभाविक गुण होने चाहियें। अधिकांश कलाकारों के पास यह नहीं है। ऐसे कलाकार जो सफल शैलियों या प्रवृत्तियों की सिर्फ नकल करते हैं, वे केवल सतही लोग हैं जिनके पास वे स्वाभाविक गुण नहीं है। क्योंकि यह नहीं हो सकता है कि आप पहले यह कहें कि मैं सांस ले रहा हूं और फिर उसके बाद सांस लें !
एक दार्शनिक मोड़ के रूप में अस्तित्ववाद एक गहन अंतर्मुखी और दार्शनिक आंदोलन था। यह द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यूरोप और अन्य जगहों की सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक-सांस्कृतिक वास्तविकताओं का परिणाम था। लेकिन इसके सार में देखा जाए तो अस्तित्ववाद पृथ्वी पर पहले मनुष्य के समय से ही मौजूद है। हर सदी में समय-समय पर जो प्रश्न उठता है (हम कौन हैं, हम कहाँ से आए हैं और कहाँ जा रहे हैं) एक अस्तित्वगत विस्फोट है। कलाकारों को अंतर्मुखी व्यक्ति माना जाता है। आज अधिकांश लोग एक-दो फेसबुक या इंस्टाग्राम पोस्ट में ही अस्तित्ववाद की अपनी खुजली मिटा लेते हैं। मैं यह नहीं मानता कि हर कलाकार को अस्तित्ववादी होना चाहिए, लेकिन मेरा मानना है कि केवल छिछले दर्ज़े के कलाकार ही अस्तित्ववादी हुए बिना आगे बढ़ सकते हैं।
मनोज : कई लोग कहते हैं कि कला में रेखांकन (स्केचिंग) सबसे महत्वपूर्ण है जबकि किताबें या पत्रिकाएँ पढ़ना जरुरी नहीं है। आपका क्या विचार है?
जोनी एमएल: कलाकारों से अपेक्षा की जाती है कि वे अपनी आँख, दिमाग और हाथों को प्रशिक्षित करें। इस देश में कई संस्थान हैं जो छात्रों को ऑन-द-स्पॉट स्केचिंग के लिए प्रोत्साहित करते हैं। दिल्ली के मेट्रो स्टेशनों पर बैठे आसपास के कला महाविद्यालयों के छात्रों को स्केच बनाते हुए देखना सुखद है। मुझे वह अनुभव बहुत पसंद है क्योंकि मैं उस तरह के कलाकारों के बीच बड़ा हुआ हूं जो दोस्तों के साथ बात करते समय भी सिगरेट के कवर सहित किसी भी उपलब्ध सतह पर स्केच बनाते रहते थे। रेखाचित्र बनाने से हाथ परिपूर्ण होते हैं। लेकिन कुछ कलाकार उसे पूर्ण करने पर ही रुक जाते हैं। वे रेखाचित्र बनाते रहते हैं, उनके रेखाचित्रों की गुणवत्ता में सुधार होता है लेकिन समस्या केवल यह है कि उनका मस्तिष्क विचारों के बिना स्थिर बना रहता है। के.जी.सुब्रमण्यन राम किंकर बैज के बारे में लिखते हुए शांति निकेतन के कोपई नदी के पास उनके द्वारा नियमित स्केचिंग का ज़िक्र प्रमुखता से करते हैं। प्रत्येक स्केचिंग सत्र अलग था, हालांकि स्थान एक ही था क्योंकि नंदलाल बोस, बिनोद बिहारी मुखर्जी और बैज जैसे महान कलाकारों ने उन्हें हर दिन ‘प्रकृति’ को नए नज़रिये से देखना सिखाया। उनकी कलाकृतियां उनके इस दर्शन के प्रमाण हैं।
मुझे आश्चर्य होता है जब मैं आज भी कुछ कलाकारों को किताबें पढ़ने और न पढ़ने के लिए बहस करते हुए सुनता हूं। वे कहते हैं, यह कला इतिहासकारों और आलोचकों का काम है, हमारा काम सिर्फ कलाकृतियां बनाना है। मैं उनके खिलाफ कुछ नहीं कहता क्योंकि कलाकारों का एक और समूह है जो इसके बिल्कुल उलट है; कोई हुनर नहीं, सिर्फ किताबी ज्ञान। जहां पहले का संबंध शिल्प संवर्धन के औपनिवेशिक विचार से है वहीं बाद का संबंध वैचारिक कला के नाम पर अंतरराष्ट्रीय साजिश से है। कोई भी व्यक्ति कौशल समेत या उसके बिना भी कलाकार हो सकता है, लेकिन आपके पास इसके बारे में बात करने के लिए बहुत कुछ होना चाहिए। ये दोनों श्रेणियां अपने-अपने तरीके से दोषपूर्ण हैं। मैं जो प्रचारित करता हूं वह बुद्धिमत्तापूर्ण कला का विचार है; बुद्धिमान लोग ही बुद्धिमत्तापूर्ण कला रच सकते हैं। बुद्धिमत्ता दरअसल कौशल और ज्ञान का एक संयोजन है, खासकर कला के संदर्भ में।
मनोज : कला इतिहास कितना महत्वपूर्ण है? क्या कला अभ्यास करने वाले कलाकारों को इससे कोई लाभ मिलता है, खासकर जब आज कला क्षेत्र में अर्थशास्त्र महत्वपूर्ण हो चला है?
जोनी एमएल: इतिहास के बिना गूंगी है कला। किसी को यह थोड़ा आपत्तिजनक लग सकता है और वह कह सकता है कि इतिहास के पहले से कला थी। मैं कहूंगा कि जिस दिन पहली कलाकृति रची गयी (माध्यम, स्थान और छवि जो भी हो) इतिहास भी उसके साथ ही जुड़वां के रूप में सामने आया। कला और कला का इतिहास साथ-साथ चलते हैं और उनमें लगभग एक ही तरह की जटिलताएँ हैं, सिवाय इसके कि बाद वाला पहले की तुलना में थोड़ा अधिक स्तरीय है। कला इतिहास सबसे महत्वपूर्ण अमूर्त संरचनाओं में से एक है जो कला को कायम रखती है। हो सकता है कि कलाकार इस बात को नहीं समझते हों। इसीलिए उनमें से कई लोग कहते हैं कि कला इतिहास आवश्यक नहीं है।
कला के लिए एक बाज़ार की कल्पना करें, बिना यह जाने कि वह क्या खरीदता है और क्या बेचता है! ऐसा परिदृश्य कभी मौजूद नहीं होता। कोई कलाकृति जिसका कोई इतिहास न हो, सबसे पहले तो उसका अस्तित्व ही नहीं हो सकता, और यदि अस्तित्व में है तो उसे कला नहीं कहा जा सकता, इतिहास में न होने के साधारण कारण से वह बाजार से बहुत अधिक मौद्रिक लाभ नहीं प्राप्त कर सकेगी। कला का इतिहास केवल एक छवि या कलाकृति का इतिहास नहीं है, बल्कि इसमें इसके प्रक्षेप पथ, स्वामित्व और अन्य उत्पत्तियाँ भी शामिल हैं। लेकिन ध्यान रखें, इतिहास कभी भी बाज़ार की सहायता के लिए नहीं लिखा जाता। बाज़ार के लिए लिखा गया कला इतिहास एक कृत्रिम रचना है क्योंकि बाज़ार को इतिहास की ज़रूरत है। कला इतिहास एक दीर्घकालिक निवेश है और इसका लाभ भविष्य में ही मिलेगा।
मनोज : एक कलाकार के लिए सफल होने के चलन (ट्रेंड) का पालन कितना महत्वपूर्ण है?
जोनी एमएल: ट्रेंड एक ऐसा शब्द है जो सुझाव देता है कि कौन सी चीज प्रचलन में है, अत्यधिक मांग में है और लोकप्रिय रूप से सराहा जा रहा है। नई इंटरनेट भाषा में ‘ट्रेंडिंग’ शब्द बहुत ही आकर्षक है। एक कहावत है, आज का फैशन कल की शर्मिंदगी है। आज का हर चलन कल के लिए शर्मिंदगी पैदा करने वाला है। मैं आपको हमारे हालिया कला इतिहास से एक उदाहरण देता हूँ। 1990 के दशक के अंत तक फोटोयथार्थवाद या मध्यस्थ यथार्थवाद भारत में एक बड़ा चलन बन गया। यदि आपके पास फोटोरियलिस्टिक पेंटिंग बनाने का हुनर नहीं था तो आपको असफल माना जाता था। फिर अत्यधिक कुशल ग्रामीण कलाकारों को स्टूडियो सहायक के रूप में नियुक्त करने के दिन आए। अधिकांश फ़ोटोयथार्थवादी कलाकृतियां इसी तरह से काम पर रखे गए सहायकों द्वारा बनाई गई थीं। फ़ोटोरियलिज़्म ने भारतीय कला परिदृश्य पर पंद्रह वर्षों से अधिक समय तक शासन किया। लेकिन आज यह शर्मिंदगी की बात है। यदि कोई कलाकार तात्कालिकता के लिए किसी प्रवृत्ति का अनुसरण कर रहा है, तो यह ठीक है। लेकिन अगर वह योगदान देने और इसे एक अलग स्तर पर ले जाने के लिए कुछ नहीं करता है तो यह उसे एक अच्छा कलाकार नहीं बना देगा।
मनोज : अधिकांश कलाकार अपने निजी स्थानों या स्टूडियो में बहुत सहज होते हैं। कैंपों में काम करने में उन्हें बहुत असुविधा होती है। यह असुविधा शिविरों में सृजित कलाकृतियों की गुणवत्ता को बहुत प्रभावित करती है। ऐसा क्यों है?
जोनी एमएल: यह सिर्फ अल्हड़ता है। कुछ लोग अपने स्टूडियो में सहज रहते हैं। लेकिन किसी को यह कल्पना नहीं करनी चाहिए कि स्टूडियो वे पुराने ज़माने के आश्रय स्थल और आश्रम हैं जहां मूक और विचारशील कलाकार एकांत में बैठते हैं और कला की अनूठी कृतियों का निर्माण करते हैं। यह एक रोमांटिक विचार है। आज स्टूडियो सहायकों, प्रशासकों, एजेंटों और डीलरों आदि के साथ एक व्यस्त स्थान हैं। कलाकार अपनी कृतियों के प्रबंधक बन गए हैं। अधिकांश सफल कलाकार निर्माता की बजाय कला के निर्देशक बन गए हैं। कला शिविर आज की उस दुनिया में एक पुरानी बात हो चली है जहां संचार सुविधाएं कलाकारों को एक-दूसरे के संपर्क में रखती हैं, उनकी शैलियों और वर्तमान कार्यों को सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म आदि पर सभी के लिए प्रदर्शित किया जाता है। कला शिविरों ने अपना अर्थ और आकर्षण खो दिया है।सार्वजनिक क्षेत्र में आज के कला शिविर कलाकारों को महज़ वित्तीय सहायता प्रदान करने के लिए आयोजित हैं, और निजी क्षेत्र में धनिक वर्ग का मनोरंजन करने और बदले में काम पाने के लिए हैं। क्योंकि कला परिदृश्य में कोई चीज मुफ्त की नहीं मिलती है।
(समाप्त)