व्यक्त और अव्यक्त के बीच कला का अपना एक रहस्यमयी संसार है। कला व्यक्त होती है निर्मित नहीं होती और यह एकमात्र दृष्टि ही कला के समष्टिगत रुप को जीवन की अन्य कलात्मक क्रियाओँ से बिल्कुल अलग कर देती है। और रहस्यमयी इसलिए क्योंकि कला की सारी यथार्थवादी अभिव्यक्तियों में भी कला के अंदर निहित स्वप्न का अलौकिक और जादुई संसार पूरा का पूरा कभी बाहर नहीं आ पाता। सबकुछ होने में भी सदैव कुछ शेष रह जाता है। और यह जो कुछ शेष रह जाता है कला के रूप में, रंग में, लय में, विचार में, भाव के विस्तार में, आकृतियों के सौंदर्य में वही अनंत काल तक कला के अनूठे सौन्दर्य के जादुई तिलिस्म को लोगों के अनुभव, उनकी सतत जिज्ञासा और उनके संवेदन चित् से जोड़े रखता है।
भारतीय समकालीन कला के प्रख्यात और मूर्धन्य कलाकार प्रभाकर कोल्टे के रंगों के अमूर्त संसार में सहजता से उपस्थित हो पाना, उनसे विचार के एक अलग तल पर जुड़ पाना, उनको देर तक बस सुनना और उनसे कुछ बातें करना कहीं न कहीं कला की आंतरिक और बाह्य संभावनाओं को दृष्टि के किसी सर्वथा नये कोण से सहसा एकसाथ देख लेने जैसा है । जैसे अंधेरे में कोई बिजली अचानक चमके और कोई स्याह लैंडस्केप बहुत दूर तक एकदम से प्रकाशित हो जाए । कोल्टे सर से उनके घर पर एक बेहद आत्मिक मुलाकात मेरी इस मुम्बई यात्रा का निश्चित ही एक सुंदर और महत्वपूर्ण अनुभव रहा । भारतीय कला की दिशा और नये अकादमी कलाकारों के संभावित कार्यों को लेकर उनकी चिंता अविश्वसनीय थी। उनका आग्रह चित्र बनाने से कहीं ज्यादा कलाकारों में एक ऐसी दृष्टि के निर्माण पर थी जिसकी परिधि में कलाकार कला के व्यक्तिगत और समष्टिगत रूपों के वैचारिकी के साथ नैसर्गिक सौंदर्य के रस को (निर्माण प्रक्रिया से बिल्कुल अलग) अभिव्यक्ति के सहज पलों में आकंठ आत्मसात कर सकें। आधुनिक और समकालीन विश्व कला के महत्त्व और परिदृश्य के नये विचारों के बारे में हमारी विशेष चर्चा हुई। विलक्षण कलाकारों की चर्चा के क्रम में उन्होंने अनेक कलाकारों की चर्चा की जिसमें मार्क रोथको, शंकर पलसीकर और गायतोंडे प्रमुख थे। गायतोंडे और हुसैन की आपसी संबंधों की अनेक रोचक कहानियों से हमलोग पहली बार अवगत हुए। गायतोंडे से दिल्ली के निजामुद्दीन में उनकी अपनी पहली मुलाकात का वाकया सुनना एक अद्भुत अनुभव रहा। प्रभाकर कोल्टे सर ने बरसों पहले एक शॉर्ट फिल्म का निर्माण भी किया था जो गायतोंडे के आध्यात्मिक कलात्मक व्यक्तिव और उनके वृहद कला संसार पर केन्द्रित थी। और जिसे बाद में कई महत्वपूर्ण “इंटरनेशनल इवेन्ट्स” में सम्मिलित भी किया गया।
सारी कलाएं दरअसल अपने शुद्धतम रुप में अमूर्त है और यही कला का रहस्य भी है और तिलिस्म भी। अमूर्त का सौंदर्य इस जीवन का अनंत विस्तार है । इस जीवन में ईश्वर का होना या नहीं होना उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना यह बोध कि हमलोग अपने मनुष्य होने के गौरव पलों में इस जीवन के उत्कृष्टतम सौन्दर्य को अंततः प्रकृति की किन असीम शक्तियों के सापेक्ष समझ पाने और वरण करने में सक्षम हो पाते है !
कला उसी एक अनादि खोजी दृष्टि का संतुलन बिन्दु है !
-अरविन्द ओझा
आर्टिस्ट / कवि / कल्चरल एक्टिविस्ट
सभी चित्र: अरविन्द ओझा