कलाकार के लिए जरूरी है वैचारिक संघर्ष: कृष्ण खन्ना

जीवन के 90 बसंत देख चुके अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्यातिलब्ध चित्रकार कृष्ण खन्ना आज एक साथ कई भूमिकाओं में अति-सक्रिय हैं। ऐसे में उन्हें सिर्फ चित्रकार कहना न्यायोचित नहीं होगा। वह आज भी गुड़गांव स्थित अपने कारखाने’ में कला-साधना में रत और अपने कला-कर्म के विस्तार से उपजे कला-तंतुओं को व्यवस्थित करते दिखते हैं। लगभग तिरासी वर्ष की अपनी आधुनिक कला-यात्रा के दौरान कृष्ण खन्ना ने जीवन के कई उतार-चढ़ावों को देखा है। भारतीय आधुनिक कला के उन्हीं उतार चढ़ावों और कला-कर्म के दौरान उनके अनुभवों पर सुनील कुमार ने विस्तार से बातचीत की है। प्रस्तुत है उसी बातचीत के कुछ अंश:

एक चित्रकार, एक फोटोग्राफर, एक कला चिंतक, एक लेखक, कृष्ण खन्ना खुद अपना परिचय किस प्रकार देंगे?

वस्तुतमैं एक चित्रकार हूं और सिर्फ चित्रकला में अपना ध्यान लगाता हूं। मेरी कला साधना अनंत काल के लिए है और यह अनवरत चलती रहेगी, जबतक मालिक’ मोहलत देता रहेगा। रही बात फोटोग्राफी या लेखन की, तो ये मेरी कला-साधना के तत्व हैं जिनसे मैं अपनी कला-साधना संयोजित करता हूं। समय-समय पर इन तत्वों का परिमार्जन आवश्यक है, इसलिए मैं उनके साथ प्रयोग करता हूं और उन प्रयोगों का असर मेरी कला पर दिखता है। कला-मर्मज्ञ या कला-प्रेमी अगर उन्हें मेरी कला के विविध आयाम के रूप में देखते हैं और यह उनका बड़प्पन है।

देश-विदेश में आप भारतीय आधुनिक कला के चितेरे के रूप में जाने जाते हैं। भारत में आधुनिक कला के उद्भव और उसके विकास को आप किस रूप में देखते हैं?

यह एक मुश्किल सवाल है, लेकिन मेरी समझ में भारत में आधुनिक कला अंग्रेजों की देन है, जो भारतीय कला में अंग्रेजों के द्वारा किये गये तकनीकी प्रयोगों से उपजी थी। 1930 के दशक के आसपास मुंबई में भारतीय कलाकारों की एक नयी पीढ़ी सामने आती है, जिसने प्रोग्रिसव आर्ट मूवमेंट शुरू किया। इनमें सिलू भरूचा, रेणु खन्ना, के.एच. आरा, बाल छब्दा, एम.एफ हुसैन, सदानंद बक्रे, डी.जी. कुलकर्णी, वी.एस. गायतोंडे, तैयब मेहता, ए.ए. एमलेकर और कीकू गांधी समेत कई अन्य कलाकार शामिल थे। इन्होंने पश्चिमी दुनिया के कला प्रभावों को बखूबी समझा और वहां की तकनीक के साथ अपनी कला में नवीन प्रयोग शुरू किये। उनके प्रयोगों ने तब ब्रिटिश प्रभावों की गिरफ्त में फंसी भारतीय कला के समक्ष चुनौती पैदा की। यह अंग्रेजों की कलाभूमि पर एक बड़ी देशज चुनौती थी जो राजनीतिक स्तर पर उन्हें मिल रही चुनौती से कम नहीं थी। यहीं से आधुनिक भारतीय कला की शुरुआत भी होती है।

इसका मतलब भारतीय आधुनिक कला राजनीतिक प्रभावों के बीच पली-बढ़ी।

हां, निश्चित तौर पर। जब मुंबई में प्रोग्रेसिव आर्ट मूवमेंट शुरू हुआ तब वहां के मुंबई की सोसाइटी ने उनके कला-कर्म को एक तरह से खारिज कर दिया। मेरा मानना है कि उनके इस फैसले के पीछे की वजह राजनीतिक थी। सोसायटी पर गवर्नर का प्रभाव था। तब प्रोग्रेसिव आर्ट ग्रुप शुरू करने वाले कलाकारों ने गवर्नर के खिलाफ शहर की दीवारों पर पोस्टर चिपकाने शुरू किये। स्वतंत्रता आंदोलनों के समानांतर मुंबई में कलाकारों के लिए आजादी का यह एक आंदोलन था। सुज़ा और रज़ा इस आंदोलन का एक तरह से नेतृत्व कर रहे थे और उनके नेतृत्व में जाने कितने कलाकार आजादी के उस आंदोलन का हिस्सा थे, जो अपने कला को न सिर्फ जीवन-यापन के साधन के रूप में देखते थे, बल्कि भारतीय समकालीन कला को एक नई दिशा देना चाहते थे।

भारतीय आधुनिक कला में चल रहे नवीन प्रयोगों को पश्चिम में किस तरह से देखा गया?

यहां दो बातें हैं। पहला यह, कि हम पश्चिम की तरफ ताक नहीं रहे थे, बल्कि वहां से तकनीक सीखकर हमने वहां अपनी कला को विस्तार दिया। हमने देशज विषयों में प्रयोग नयी तकनीक के साथ प्रयोग किया और अपनी नयी कला-दृष्टि विकसित की। हमारी इन कोशिशों को पश्चिम में जबर्दस्त सराहना मिली क्योंकि तब पश्चिमी देश जिन कला-आंदोलनों के प्रभाव में थे, हमारे प्रयोग उनसे कहीं आगे थे। हमरी कला किसी यांत्रिकी के प्रभाव में नहीं थी, वह सीधे-सीधे दिल को छूती थी और इसी वजह से पश्चिम में हमें जबर्दस्त सफलता भी मिली, बावजूद इसके कि यूरोप में पिकासो, मातीस, बराक जैसे आधुनिक कलाकार मौजूद थे।

क्या पश्चिम के कला बाजार ने भी भारत के कलाकारों का स्वागत किया?

भारतीय आधुनिक कला के प्रति तब पश्चिम के कला-बाजार का रूख क्या था, मैं इसका एक उदाहरण देता हूं। विदेश में भारतीय कलाकारों की पहली महत्वपूर्ण प्रदर्शनी पेरिस में लगी। ए.पदमसी, सुज़ा और रज़ा इसमें शामिल थे। जब पेरिस के कला-मर्मज्ञों ने उनकी कलाकृतियों को देखा, तब वे चकित रह गये। उनकी कलाकृतियां न केवल सराही गयीं, बल्कि हाथों-हाथ बिक गयीं। आश्चर्य की बात तो ये थी कि कलेक्टर्स ने उन्हें किसी वैल्यू-शैल्यू के लिए नहीं खरीदा था क्योंकि तब वैल्यू-शैल्यू’ जैसी चीज नहीं थी। उन्होंने उन्हें इसलिए खरीदा क्योंकि उन कलाकृतियों ने सीधे-सीधे उनसे संवाद स्थापित किया। यह पश्चिम में भारतीय कला की स्थापना की शुरुआत थी। इसके बाद कई भारतीय आधुनिक कलाकार टोक्यो, वेनिस, साओ-पाउलो समेत दुनिया भर आयोजित हो रहे बिनाले-त्रिनाले और कला मेलों का हिस्सा बने। आज अमेरिका और यूरोप की कई नामी गैलरियों के पास भारतीय कलाकारों की कलाकृतियों का संग्रह है और क्रिस्टी और सोदबी के ऑक्शन में भारतीय कलाकृतियां अव्वल रहती हैं।

आधुनिक और समकालीन कलाकारों की कला-दृष्टि में आप क्या अंतर पाते हैं?

आधुनिक कलाकारों की कलादृष्टि जिस समय विकसित हो रही थी, उसे सरल शब्दों में कहें तो वह भारतीय आधुनिक कला को वैश्विक पटल पर स्थापित करने की जद्दोजहद का समय था। पश्चिम से कला की तकनीक को सीखकर हमने अपनी कला में रूपाकारों के साथ प्रयोग करते हुए कला को लेकर पश्चिम के बनाये मानकों को ध्वस्त करते हुए वहां आधुनिक भारतीय कला को मजबूती से स्थापित किया। समकालीन कलाकारों के सामने अपनी कला चेतना को गढ़ने की चुनौती है, क्योंकि उनकी कला में स्थायित्व का भाव कम दिखता है। आज कई माध्यमों से दुनिया के अलग-अलग हिस्सों तक पहुंचना आसान हो गया है। ऐसे में हमारे यहां असंख्य कलाकार ऐसे हैं जो पश्चिम की नकल कर रहे हैं। जाहिर है, उस नकल का असर चिरस्थायी नहीं होगा और फिर कलाकार पहचान का संकट झेलेंगे।

 ए फार आफ्टरनून’ के बारे में कुछ बताएं।

यह एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म है जिसका मुख्य किरदार मैं खुद हूं। यह फिल्म परिमल आर्ट फाउंडेशन के सौजन्य से बनी है। दरअसल किसी तरह फाउंडेशन के डायरेक्टर अश्विन राजगोपालन को यह पता चला कि मैं एक बहुत बड़े कैनवस पर काम कर रहा हूं, तब उन्होंने उस पेंटिंग के बनने की पूरी प्रक्रिया को रिकॉर्ड करना चाहा। मैंने भी एक फिल्म की स्क्रिप्ट तैयार की थी और फिर बात बन गयी। इस फिल्म से कला-प्रेमियों को यह समझने में मदद मिलेगी कि एक कलाकृति के पूर्ण होने की प्रक्रिया क्या होती है और उस पूरी प्रक्रिया के दौरान एक कलाकार का मनोभाव किस प्रकार अलग-अलग माध्यमों और विचारों में विचरण करता है।

 

सुनील कुमार
C – 91-9818 018 999
R – 91-120-277 1798

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