जयकृष्ण अग्रवाल सर की पहचान एक कलाविद, भूतपूर्व प्राचार्य, छायाकार एवं देश के शुरुआती और शीर्षस्थ प्रिंटमेकर वाली है। किन्तु जितनी बार भी उनसे मिला, मुझे वे इन सबसे इतर एक अभिभावक के रूप में नज़र आये, समकालीन कला के किसी भी अध्याय पर जब चर्चा की नौबत आयी तो उनकी स्पष्ट राय सामने आयी। दूसरी तरफ हिंदी में कला लेखन की बात करें तो वरिष्ठ कलाकार और लेखक अशोक भौमिक ने अपनी कलम से कला लेखन को एक नयी दिशा दी है। कलाकारों की जीवनी और प्रदर्शनियों की समीक्षा से अलग हटकर उन्होंने कला के वैचारिक पक्ष को तरजीह दी है। ऐसे में जयकृष्ण अग्रवाल द्वारा अशोक भौमिक की पुस्तक “चित्तप्रसाद और उनकी चित्रकला” की समीक्षा महत्वपूर्ण हो जाती है। प्रस्तुत है जय सर के शब्दों में उक्त पुस्तक की समीक्षा ….
Prof. Jaikrishna Agarwal
जानेमाने चित्रकार ,लेखक और मेरे मित्र अशोक भौमिक द्वारा लिखित पुस्तक ‘चित्तप्रसाद और उनकी चित्रकला’ की एक प्रति आज प्रातः उन्ही के सौजन्य से प्राप्त हुई। एक सरसरी दृष्टि से अवलोकन करने के उपरांत मेरी जो अवधारणा बनी है उसे अपने फेसबुक मित्रों से साझा कर रहा हूं-
कला समय और समाज विचार गोष्ठियों का प्रचलित विषय रहा है किन्तु जब भी किसी भारतीय कलाकार के व्यक्तित्व और कृतित्व पर चर्चा की जाती है तो अधिकतर कलाकार के बायोग्रैफिकल नोट्, कलाजगत की गतिविधियों में भागीदारी, अर्जित मान सम्मान आदि और अन्य तकनीकी उपलब्धियों के साथ समीक्षक की कलाकृतियों के बारे में व्यक्तिगत अवधारणा तक ही सीमित हो कर रह जाती है। सबसे महत्वपूर्ण प्रकाशन की चमकदमक जिसपर अधिक बल दिया जाता है। वास्तव में किसी भी कलाकार का समीक्षात्मक विश्लेषण करने के लिये कलाकार के सृजन काल की सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और आर्थिक परिस्थितियों का परिचय प्राप्त करना आवश्यक होता है। विशेष रूप से जब एक अतिसंवेदनशील कलाकार परम्पराओं से हटकर अपने इर्द-गिर्द के वातावरण से सृजनात्मक ऊर्जा लेकर उसे अपने सृजन का आधार बनाता है।
अशोक भौमिक की लेखनी से हमें एक ऐसे ही कलाकार का परिचय प्राप्त होता है जो केवल संवेदनशील ही नहीं बल्कि मानसिक और शारीरिक रूप से अपने समय की उथल-पुथल भरी गतिविधियों में सक्रिय था। अपनी इस सक्रियता को ही मुख्यरूप से बीसवीं सदी के पूर्वार्ध के भारत विशेषरूप से बंगाल की सामाजिक और राजनैतिक झंझावात से प्रेरित हो अपने सृजन का आधार बनाता है।
चित्तप्रसाद कलाजगत में अनजाना नाम नहीं है विशेष रूप से छापा चित्रकारों के बीच, किन्तु अभीतक उन्हें उनके रेखाकंनो, वुडकट और लीनोकट की तकनीकी दक्षता के आधार पर ही पहचाना गया। अक्सर उन्हें एक इलस्ट्रेटर की संज्ञा भी दी गई जो सम्भवतः उनके सृजन का सामयिक संदर्भ पर आधारित होना हो सकता है, किन्तु जिसप्रकार अशोक भौमिक अपनी पुस्तक ‘चित्तप्रसाद और उनकी चित्रकला’ में पाठक को बीते हुए समय में ले जाते हैं और समय से जोड़ते हुए चित्तप्रसाद की कला से परिचित कराते है वह वास्तव में कलाकार की सृजनात्मक संवेदनशीलता को दर्शाता है।
चित्तप्रसाद और उनकी चित्रकला एक ऐसा दस्तावेज है जिसे बहुत पहले लिखा जाना चाहिए था। मैं स्वयं एक छापा कलाकार हूँ और चित्तप्रसाद के समकालीन और छात्र रहे सोमनाथ होर से प्रशिक्षण ले चुका हूँ। इस पुस्तक को पढ़कर मुझे लग रहा है कि सदी के इस श्रेष्ठ कलाकार और मेरे बीच इतनी दूरी न होती तो संभवतः चित्तप्रसाद की संवेदनशीलता मुझे भी प्रभावित करती। जो कहीं न कहीं सोमनाथ होर की कला में झलकती है। अशोक भौमिक निसंदेह इस महती कार्य के लिये बधाई के पात्र है और मैं व्यक्तिगत रूप से इसके लिये और पुस्तक की काॅम्प्लीमेन्ट्री प्रति के लिये उनका आभार प्रकट करता हूं।
पुस्तक : चित्तप्रसाद और उनकी चित्रकला
लेखक : अशोक भौमिक
प्रकाशक : नवारुण
E mail :navarun.publication@gmail.com
कीमत : 550 /Rs