जय कृष्ण अग्रवाल सर की पहचान एक कलाविद, भूतपूर्व प्राचार्य, छायाकार एवं देश के शुरुआती और शीर्षस्थ प्रिंट मेकर वाली है। किन्तु जितनी बार भी उनसे मिला, मुझे वे इन सबसे इतर एक अभिभावक के रूप में नज़र आये, समकालीन कला के किसी भी अध्याय पर जब चर्चा की नौबत आयी तो उनकी स्पष्ट राय सामने आयी। प्रस्तुत हैं उनके निजी संग्रह की एक महत्वपूर्ण यादगार की चर्चा ..
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अंक 33 – 18 अगस्त 1974
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सम्पादक: रघुवीरसहाय एवं श्रीकांत वर्मा, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, प्रयाग शुक्ल और विनोद भारद्वाज आदि…
आज अनायास एक और खोज, कभी सर्वाधिक चर्चा में रही पत्रिका दिनमान का यह पुराना अंक अब लगभग अपने अंत के निकट पहुंच चुका है। कागज टूटने लगा है बड़ी सावधानी से यह दो प्रष्ट स्कैन कर पाया जिनमें मेरी प्रारम्भिका दिनों की कलाजगत से जुड़ी स्मृतियाँ सुरक्षित है। मुखपृष्ठ पर मेरी कृति है और अन्दर के पृष्ठों में अनेक विशिष्ट कलाकारों के लेखों के साथ मेरे लेख को भी स्थान दिया गया है। सच कहा जाय तो उन दिनों दिनमान में छपने का अपना एक अलग महत्व था और इस अंक में तो मुझे बहुत महत्व दिया गया था। मुझे आज भी स्मरण है कि इस अंक को देखते ही मैने कितनी ही प्रतियां खरीद डाली थीं।
आज सामने इस क्षत-विक्षत अंक को देखकर सातवें और आठवें दशक में दिल्ली के कलाजगत में मेरी सक्रियता की यादें ताज़ा हो गई। उन दिनों दिल्ली अक्सर जाना होता था और दिनमान के कार्यालय न जाऊं ऐसा कैसे हो सकता था। वहां लखनऊ का मेरा साथी विनोद भारद्वाज जो था। साथ ही रघुवीर सहाय जी, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी और प्रयाग जी का कलाकारों के प्रति स्नेह बरबस उनके निकट आने के लिये आकर्षित करता रहा था। श्रीकांत जी से मेरी अधिक नज़दीकी नहीं हो पाई थी फिर भी वह एक ऐसा दौर था जब कला और साहित्य में नज़दीकियां झलकने लगी थी और कहीं न कहीं वह भारतीय आधुनिक कला आंदोलन की आवश्यकता भी थी। इन सभी साहित्यकारों ने दिनमान के माध्यम से एक खुले संवाद की शुरुआत की। जहां तक मेरा अनुमान है इससे अनेक कलाकार लाभान्वित भी हुए कम से कम मैं अपने बारे में तो कह सकता हूं कि दिनमान और उससे जुड़े साहित्यकारों ने मेरी सोच को अवश्य प्रभावित किया था। विशेष रूप से लेखन की और मेरा रुझान दिनमान से मिले प्रोत्साहन से ही बढ़ा।
दिनमान का प्रकाशन बंद हुए एक अर्सा हो गया किन्तु उस समय के लोग आज भी इस हिन्दी के न्यूज़ वीक को याद करते हैं। मेरी तो बहुत सी यादें जुड़ी हैं दिनमान के कार्यालय में गुज़ारे हुए पलों की, विशेष रूप से विनोद के साथ पास की कैन्टीन में चाय पीने का आनंद कुछ अलग ही हुआ करता था जो आज भी याद करता हूं। और भी बहुत कुछ याद आने लगता है। इस फटे हुए अंक को हाथ में लेते ही लगता है जैसे मैं उस समय में ही पहुंच गया हूं …