स्मृतियां लौट लौट कर आती हैं विशेष रूप से जब जीवन धारा की गति धीमी होने लगे। आज अनायास गोपाल का स्मरण हो आया। हमारे सम्बन्धों में बड़ी विविधता रही थी। एक छात्र, मित्र और सहकर्मी के अतिरिक्त भी एक जुड़ाव हमारे बीच रहा था।
वास्तव में मेरे साथ एक विचित्र संयोग रहा। लखनऊ के कला महाविद्यालय के अध्यापन काल में मुझे अनेक हमउम्र छात्रों के साथ कार्य करना पड़ा। गोपाल उनमें से एक था जिसने प्रिंटमेकिंग में रुचि रखते हुए भी सेरामिक का विकल्प चुना। छात्रों की उम्र से न मुझे और न छात्रों को कभी समस्या हुई। मुझे गुरुजी और सर आदि सम्बोधन कभी भी रुचिकर नहीं लगे। मैं सदैव अपने नाम से ही सम्बोधित किया जाना पसंद करता था। मेरा मानना था कि कला प्रशिक्षण के लिये अध्यापक और छात्रों के बीच एक खुलापन आवश्यक है और प्रचिलित सम्बोधनों से सदैव एक दूरी का आभास होता था। मैने चाहा तो था कि मेरे छात्र मुझे मेरे नाम से ही सम्बोधित करें किन्तु शायद उनके संस्कार उन्हें इसकी अनुमति नहीं देते थे I अतः उन्होंने मेरे नाम का वह भाग जिससे उन्हें निकटता प्रतीत होती थी, उसे स्वीकार कर लिया और मैं एक लम्बे नाम जय कृष्ण अग्रवाल के अग्रवाल सर अथवा अग्रवाल साहब के स्थान पर जैसाब ( जय,साहब ) में सिमट गया। इससे गोपाल जैसे हम उम्र छात्रों को बड़ी सुविधा हुई उन्हें साहब लगाने की बाध्यता नहीं थी।
लखनऊ कला मंहाविद्यालय में चित्रकला के छात्रों को प्रिंटमेकिंग अथवा सेरामिक वैकल्पिक विषयों में से एक का चयन करना होता था। सेरामिक मूलरूप से मूर्ति कला विभाग से सम्बद्ध विषय है किन्तु यहां स्थित भिन्न थी। गोपाल ने सेरामिक का चयन तो कर लिया किन्तु प्रिंटमेकिगं में उनकी रुचि दिन प्रतिदिन बढती गई। वह जब समय मिलता मेरी कक्षा ( प्रिंट मेकिंग विभाग) में चले आते। सन् 1970 में मुझे उत्तर प्रदेश राज्य ललित कला अकादमी के लिये ग्राफिक कार्यशाला की स्थापना का दायित्व सौंपा गया। गोपाल की बढती रुचि को देखते हुए मेरी अनुशंसा पर उन्हें पहली छात्रवृति प्रदान की गई। गोपाल ने इस सुविधा का समुचित लाभ लिया और छात्रवृत्ति काल की समाप्ति के उपरांत कार्यशाला के संचालन का दायित्व भी सम्हाला। तदुपरांत केन्द्रीय ललित कला अकादेमी के क्षेत्रीय केन्द्र की स्थापना के उपरांत उन्होंने वहां प्रिंटमेकिगं में नियमित रूप से कार्य करना प्रारम्भ कर दिया और अपने अंत समय तक सृजनरत रहे।
गोपाल एक सहज व्यक्तित्व के कलाकार थे। वह कभी भी अत्यंत महत्वाकांक्षी नहीं रहे। कलाजगत के द्वंद्वों से भी वह दूर ही रहते थे। विवादों से उनकी दूरी स्वाभाविक थी और सम्भवतः यही उनकी लोकप्रियता का बड़ा कारण रहा था। उनके व्यवहार और लम्बी चौडी कद-काठी को देखते हुए उन्हें ताऊ कहकर सम्बोधित किया जाने लगा और धीरे-धीरे वह जगत ताऊ बन गये। बड़ा कठिन है यह कह पाना कि कलाजगत के इतिहास में किस-किस के हस्ताक्षर स्थान पायेंगे,यह तो समय ही बताएगा किन्तु यह निश्चित है कि जो भी गोपाल के सम्पर्क में आया था वह उन्हें कभी भुला नहीं सकेगा भले ही उनसे सम्पर्क क्षणिक रहा हो।
गोपाल दत्त शर्मा लखनऊ कला मंहाविद्यालय के भूतपूर्व छात्र, प्रिंटमेकर और इसी महाविद्यालय में कार्यरत रहते हुए विभागाध्यक्ष ललित कला के पद से सेवानिवृत्त हुए थे।
-जय कृष्ण अग्रवाल