सोमनाथ होर की स्मृति में

जय सर जब अपनी स्मृतियों को साझा करते हैं तो हम जैसों के लिए यह सब भारतीय आधुनिक कला इतिहास का स्वर्णिम अध्याय बन जाता है I हालांकि आवश्यकता तो इस बात की है कि इन स्मृतियों को संगृहीत कर इसे पुस्तक का रूप-स्वरुप दिया जाए I किन्तु जब तक ऐसा कुछ नहीं हो पा रहा है, तब तक के लिए उनके फेसबुक पोस्ट से साभार यह संस्मरण …..
प्रो. जय कृष्ण अग्रवाल
आज अपनी कलाकृतियों के संग्रह का पुनर्वलोकन कर रहा था। प्रत्येक कलाकृति के साथ कुछ न कुछ यादें जुड़ी हुई थीं। उद्देश्य संग्रह का रखरखाव व्यवस्थित करना था किन्तु स्मृतियाँ पीछा ही नहीं छोड़ रहीं थीं। अनायास सुप्रसिद्ध प्रिंटमेकर श्री सोमनाथ होर के कुछ प्रिंट सामने आते ही लगभग साठ वर्ष पीछे चला गया।  प्रिंटमेकिंग की दुनियां में मैने प्रवेश ही किया था। आधुनिक प्रिंटमेकिंग के भारत में एक प्रकार से वह प्रारम्भिक  दिन ही थे जब कृष्णा रेड्डी, कवंल कृष्णा और सोमनाथ होर आदि कलाकारों ने प्रिंटमेकिंग के लिये अपने आप को पूर्ण रूप से समर्पित कर इस विधा को नये आयाम दिये और अभिव्यक्ति के सशक्त माध्यम के रूप में स्थापित किया।
उन दिनों कृष्णा रेड्डी पेरिस में कार्यरत थे, कंवल कृष्णा और सोमनाथ होर दिल्ली में रहकर इस कला का विस्तार कर रहे थे। मैं स्वयं लीथोग्राफी और वुडकट आदि में ही कार्य कर पा रहा था। मैटेल प्लेट एचिंग (इटैग्लियो प्रौसेस) की जानकारी के लिये मैं भटक रहा था। उनदिनों तकनीकी जानकारी को लेकर कलाकारों का व्यवहार थोडा संकुचित था। तकनीकी जानकारी साझा करने में सकुचाते थे। मैं स्वयं सन् 1963 से अध्यापन कार्य में संलग्न था अतः किसी विद्यालय में प्रवेश लेकर अपनी जानकारी का विस्तार नहीं कर पा रहा था। उन दिनों सृजनात्मक प्रिंटमेकिंग के प्रशिक्षण की सुविधा कुछ कला महाविद्यालयों तक ही सीमित थी। यह मेरा भाग्य ही था कि नियति ने मुझे श्री सोमनाथ होर से मिलवा दिया। उनदिनों श्री माखन दत्ता गुप्ता दिल्ली कला महाविद्यालय में प्रधानाचार्य के पद पर आसीन थे। जब उन्हें पता चला कि मैं आचार्य सुधीर रंजन ख़ास्तगीर का कृपापात्र हूं, उन्होंने मुझे ढाई माह के लिये विशेषरूप से वोकेशनल स्टूडेंट के रूप में होर साहब के निर्देशन में कार्य करने के लिये प्रवेश दे दिया।
दिल्ली मेरे लिये अजूबा थी। सन् 1964 में वहां मेरा कोई सगा सम्बन्धी भी नहीं था जिसके यहां मैं अपना डेरा जमा पाता । आर्थिक सीमाएं भी थी और फिर अपरिचितों के बीच बडा अकेलापन लग रहा था। आखिरकार लखनऊ के एक सुपरिचित पत्रकार नजमुल हसन जो उन दिनों दिल्ली के दरियागंज में रिवर होटल में रह रहे थे, काम आये। उन्होंने उसी होटल में मेरे ठहरने की व्यवस्था करवा दी। वहां से कश्मीरी गेट जहां उन दिनों आर्ट कालेज हुआ करता था पास ही था। होर साहब की कार्यशाला में पहले दिन से ही काम शुरू हो गया। उन दिनों जगमोहन चोपड़ा भी अक्सर काम करने वहां आ जाते थे। बडे मिलनसार व्यक्ति थे।जल्दी ही उनसे घनिष्टता हो गई। होर साहब ने एक बात स्पष्ट कर दी थी कि मेरे पास समय कम है और मुझे अधिक से अधिक तकनीकी जानकारी प्राप्त करनी है, अतः मैं उसपर ही अधिक ध्यान दूं। बस मैं भी पूरी लगन से जुट गया। इतना ही नही शीघ्र ही होर साहब का कृपा पात्र भी बन गया और इसके प्रमाण उनके हस्ताक्षर किये प्रिंट हैं जो उन्होंने मुझसे अपने आशीर्वाद स्वरूप भेंट किये थे।
उन ढाई महीनों की अनेक स्मृतियाँ हैं। इसी बीच लखनऊ और दिल्ली के बीच की दूरी कम होती चली गई। बहुत से मित्र बने बहुत कुछ घटित हुआ और मेरे सोच में भी बड़ा परिवर्तन आया। कभी विस्तार से उन्हें साझा करूंगा। अभी फिलहाल भारतीय आधुनिक प्रिंटमेकिंग के अग्रणी कलाकार श्री सोमनाथ होर की स्मृतियों को नमन् करते हुये उनके भेंट किये हुए एक प्रिंट को साझा कर रहा हूं। यह शुगर लिफ्ट और डीप एच तकनीक का एक सुन्दर उदाहरण है ।

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