बीते दिनों की कुछ यादें: लखनऊ सन् 1957-58.

 मेरे फोटो एलबम से…
प्रो. जयकृष्ण अग्रवाल जी उन वरिष्ठ कलाकारों में से हैं, जो लगभग नियमित तौर पर सोशल मिडिया पर सक्रिय रहते हैं। उनके लेखन का दायरा विस्तृत कहा जा सकता है। फोटोग्राफी, बागवानी जैसे विषयों से लेकर कला की दुनिया से जुड़े अनुभवों एवं संस्मरणों को सार्वजानिक तौर पर वे साझा करते रहते हैं। इस आलेख में प्रस्तुत है छात्र जीवन से जुड़ा उनका एक संमरण …
Prof. Jaikrishna Agarwal
सन् 1957 में प्रथम बार कला एवं शिल्प महाविद्यालय, लखनऊ में आयोजित किये गये ओपन एयर फेयर और स्पोर्ट्स के समय लिये गये इस फोटोग्राफ से बीते दिनों की यादें ताज़ा हो गई। इसमें बाएं हाथ पर मैं हूं और साथ में मेरी सीनियर सरला कपूर और शाहिदा आपा खड़ी हैं जिन्होंने फेयर में लगाई अपनी सामूहिक स्टाल में मुझे भी शामिल कर लिया था। हम सभी के लिये यह पहला अनुभव था अतः स्टाल की साजसज्जा पर अधिक ध्यान नहीं दे पाये किन्तु हम सभी की बनाई गई कलात्मक वस्तुएं बहुत सराही गई। फेयर में बेची जाने वाली सभी वस्तुओं की कीमत दस रुपये के अंदर ही रक्खी गई थीं। आगंतुकों को दस रुपये के अंदर वाटर कलर लैडस्केप टैराकोटा, मूर्ति शिल्प,पाटरी आदि के साथ अनेक आकर्षक वस्तुओं को खरीदने की होड़ लग गई थी। छात्रों द्वारा खाने-पीने की स्टाल भी लगाई गईं थीं जिससे फेयर की रही सही कमी भी पूरी हो गई थी। दो दिन के इस मेले में हमारी बिक्री बहुत उत्साहवर्धक रही। इस आयोजन के पीछे आचार्य सुधीर रंजन ख़ास्तगीर की सोच और पहल रही थी।
ख़ास्तगीर साहब का मानना था कि युवा वर्ग में अत्यधिक ऊर्जा होती है जिसके सदुपयोग के लिये सकारात्मक गतिविधियों में उन्हें व्यस्त रखना आवश्यक होता है। खास्तगीर साहब सुप्रसिद्ध दून स्कूल में अध्यापक रहे थे जहां शिक्षा के साथ छात्रों के सर्वांगीण विकास पर विशेष ध्यान दिया जाता था। उन्होंने लखनऊ के कला महाविद्यालय में भी इस बात पर बल दिया कि छात्रों को विषयानुसार ज्ञानार्जन के साथ उनके व्यक्तित्व और बहुमुखी विकास को भी बढावा दिया जाय। इस आशय से उन्होंने छात्रों की विभिन्न समितियों का गठन किया जिनके माध्यम से कला, साहित्य, संगीत, नाटक, फोटोग्राफी आदि विभिन्न क्षेत्रों में छात्र अपनी अभिरुचियों को विस्तार दे सकें। साथ ही शैक्षणिक भ्रमण और खेलकूद,कला प्रदर्शनी आदि के साथ अनेक उत्सवों और मांगलिक पर्वों के आयोजनों को भी बढावा दिया गया।
मैने सन् 1957 में लखनऊ के कला महाविद्यालय में प्रवेश लिया था। याद आते हैं वह दिन जब सुबह होते ही विद्यालय पहुंचने की जल्दी हुआ करती थी। लौटने के समय का तो ध्यान ही नहीं रहता था। कक्षा कार्य के अतिरिक्त भी इतना अधिक सृजनात्मक और रुचिकर घटित होता रहता था कि हम अपनी भागीदारी के लिये सदैव ही तत्पर रहते थे। आज अपने जीवन के अस्सी वर्षों की यात्रा का लेखा जोखा लेता हूं तो प्रतीत होता है कि मेरे जीवन में इतनी अधिक व्यस्तता शायद ही रही हो जितनी लखनऊ कला मंहाविद्यालय के प्रशिक्षण काल में रही थी। उस काल में किये गये बचे-खुचे जो कार्य आज भी मेरे पास शेष हैं उन्हें देखकर कभी-कभी विश्वास नहीं होता कि इतना सब करने के उपरांत भी हम अपने गुरुओं की प्रसंशा से वंचित ही रहते थे किन्तु फिर भी प्रयत्नशील रहते थे इसमें हमारे सीनियर बड़ा उत्साह वर्धन करते थे। सरला मुझे अक्सर दृश्य चित्रण के लिये अपने साथ ले जाती थीं। उसकी जलरंगों पर अच्छी पकड़ थी। शाहिदा आपा मेरी हरकतों से बहुत परेशान रहतीं थीं। फिर भी उन्होंने आपा की भूमिका अदा करते हुए अनेक अवसरों पर मेरा बचाव किया था। उस समय के सीनियर छात्र बेगार तो टलवाते ही थे साथ ही मार्ग दर्शन भी करते थे। श्री मुनी सिंह, डी.एन.जोशी, राम जायसवाल, मुसले अहमद, आदि अनेक वरिष्ठ छात्र थे जिन्हें याद करते हुऐ अनायास उन सम्बन्धों का स्मरण हो आता है जिन्हें बहुत पीछे छोड़ आया हूं, जो वास्तव में किसी पारिवारिक सम्बन्ध से कम नहीं थे। शाहिदा आपा के बारे में कभी विस्तार से लिखूंगा। वह विलक्षण प्रतिभा की धनी तो थी ही एक बहुत ही स्नेही और शानदार शख्सियत भी थीं…
बहरहाल ओपन एयर फेयर और स्पोर्ट्स सन् 1975 तक ही पूर्ण समग्रता से आयोजित किये जा सके।विश्वविद्यालय में कला महाविद्यालय के विलीनीकरण के समय आर्किटेक्चर अलग हो गया और विद्यालय प्रांगण का विभाजन करना पड़ा। विभाजन में खेल का मैदान आर्किटेक्चर के पाले में चला गया, साथ ही लखनऊ का आकर्षण ओपन एयर फेयर भी जो मधुर स्मृतियों में आज भी शेष है।

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