संस्मरण : फोटोग्राफी की शुरुआत और अफगान बाक्स कैमरा

Afghan Box Camera ( kamra-e-faoree ) was a handmade wooden camera an ‘instant camera used by street photographers was my initial source of inspiration.

एक शताब्दी से भी अधिक समय से अफगानिस्तान और भारत में स्ट्रीट फोटोग्राफर द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले अधिकतर झटपट फोटो कैमरे बनाने में काबुल के बढई माहिर थे। इसीलिए इसे अफगान बाक्स कैमरा कहा जाने लगा। इस बड़े लकड़ी के बक्सानुमा कैमरे के अंदर ही डार्करूम भी बना होता था। इसमें निगेटिव और प्रिंट दोनो ही फोटो सैन्सटिव पेपर के होते थे और आमतौर से पहचान के लिये पासपोर्ट साइज़ फोटो खींचने के लिये इस्तेमाल किये जाते थे। कभी अफगानिस्तान और साथ में लगे भारतीय इलाकों में बड़े आकर्षक रंगीन डिजाइनदार नक्काशी किये कैमरे ग्राहको को आकर्षित करने के लिए प्रचलन में थे। तालिबानी सोच ने फोटोग्राफी विरोधी होने के कारण इनके बनाने और इस्तेमाल पर रोक लगा दी थी और यहीं से यह लोकप्रिय और आकर्षक कैमरे इतिहास की तहों में बंद होते चले गये। भारत में भी अनेक स्थानों पर यह कैमरे बनाए जाते थे। लखनऊ में सन् 2005 तक इन कैमरों को कचहरी, हाईकोर्ट और पासपोर्ट आफिस आदि के पास इस्तेमाल करते हुए देखा जा सकता था किन्तु इसके प्रचलन पर सबसे से बड़ा असर डिजिटल फोटोग्राफी के आविष्कार से पड़ा और अबतक तो यह लकड़ी के कैमरे दीमकों के निवाले बन चुके होंगे। वैसे जयपुर में हवामहल के पास आज भी टूरिस्ट इस कैमरे से फोटो खिचवाने आते हैं।

मेरा फोटोग्राफी की दुनियां मे प्रवेश सन् 1954 के आसपास इस अफगान बाक्स कैमरे के प्रति उत्पन्न आकर्षण से ही हुआ था। उन दिनों मेरी जन्मस्थली अमरोहा में एक ही फोटोग्राफर की दुकान हुआ करती थी। भारत के विभाजन के उपरान्त पाकिस्तान से निष्कासित सरदार प्यारे सिंह जी अमरोहा आ बसे। अपना सभी कुछ पीछे छोड़ आये थे बस एक बड़ा सा लकड़ी का बक्से नुमा कैमरा किसी तरह अपने कंधों पर लाद कर ले आये। उनकी रोजी-रोटी का वही सहारा था। चलते समय उन्होंने सोचा यह साथ रहेगा तो फिर से जमीन जायदाद खड़ी कर लूंगा। उनका अपने कैमरे पर विश्वास काम आया और अमरोहा में पुरानी मुंसिफी और डाकखाने के पास बाऊड्री वाल से सटा सरदार प्यारे सिंह फोटोग्राफर का ठीया लग गया। पहचान के लिये पासपोर्ट साइज़ के फोटोग्राफ की जरूरत मुंसिफी में आनेवाले लोगों को पड़ती रहती थी। उन दिनों कोट चौराहे पर अबूमुहम्मद साहब का वीनस स्टूडियो थोड़ा दूर पड़ता था फिर सरदार जी हाथों हाथ फोटो निकाल कर दे देते थे। देखते-देखते काम चल निकला। सरदार जी के पास कुछ हाथ से पेंट किये परदे भी थे जो वह बैक ड्राप की तरह इस्तेमाल करते थे। एक परदे में एक कार बनी थी और एक छेद से शरीर का आधा हिस्सा निकाल कर फोटो खिचवाने पर लगता जैसे कार चला रहे हों। नौजवानों को यह परदा बहुत पसंद था। सीनरी वाले परदे के सामने अधिकतर जोड़े फोटो खिंचवाने आते। मैं जब भी उधर से गुजरता थोड़ी देर खड़े हो कर देखते रहना मुझे बड़ा भाता। सरदार जी की नज़र से मै छिपा नही रहा। एक दिन उन्होंने मुझे पास बुला ही लिया और पूछा कि मैं किसका बेटा हूं। जब मैने बताया कि मैं मुहल्ला कोट में लखनऊ वालों के घर से हूं तो वह झट बोले अच्छा तो तुम उस बुरजियों वाली बड़ी हवेली से हो। बस फिर क्या था सरदार जी ने बड़े प्यार से मुझे अपना कैमरा दिखाया और मेरी एक फोटो खींच कर उसके इस्तेमाल का तरीका भी बताया। घर लौट कर मैं बड़ा खुश था। सरदार जी ने जितनी बारीकियों से मुझे पहला सबक सिखाया था उसने मेरे दिमाग में एक हलचल मचा दी। आखिर मैने एक दिन जूते के डिब्बे का कैमरा बना ही डाला। घर में पड़े मैगनीफाइंग ग्लास को लेन्स की जगह लगा कर पीछे ट्रेसिगं पेपर पर फोकस किया तो बस मज़ा आ गया मैं दौड़ा दौड़ा सरदार जी के पास गया और उन्हें सब बताया। उन्होंने मुझे काले कागज़ मे लपेट कर एक फोटोग्राफिक पेपर दिया और बताया कि अंधेरे में या लाल रोशनी मे इस कागज़ की चिकनी साइड लेन्स की तरफ करके ट्रेसिगं पेपर की जगह लगा देना और पीछे से बंद कर देना। फिर बाद में लेन्स के आगे के ढक्कन को हटाकर चार तक गिनती गिनना और फिर बंद कर देना। बाद में पेपर को फिर काले कागज़ मे लपेट कर मेरे पास ले आना। सरदार जी ने अपने कैमरे के अंदर बने डार्करूम में कागज़ को डेवलप किया और फिर निगेटिव को दुबारा अपने कैमरे से कापी कर पाजिटिव तैयार कर दिया। इमेज धुंधली थी पर किसी इन्सान की शक्ल होने का आभास अवश्य दे रही थी। बहरहाल मेरे अपने हाथ से बने कैमरे से खींचा पहला पोर्ट्रेट तैयार था। मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था और मैं अपने पहले गुरु सरदार प्यारे सिंह जी की तरफ हसरत भरी निगाहों से देख रहा था।

आज अड़सठ वर्ष बाद वह दिन याद आ रहे हैं जब सरदार प्यारे सिंह जी के सड़क के किनारे फुटपाथ पर रोज़ लगने सिमटने वाले झटपट फोटो स्टूडियो से इस श्रृंखला की शुरुआत हुई थी। अमरोहा छोड़ने के बाद फिर मैं सरदार जी से कभी नहीं मिला। अब वह हमारे बीच नहीं हैं। काश मैं उन्हें अपने बाद में लिये फोटोग्राफ दिखा पाता। कभी कभी मुझे उनकी मौजूदगी का एहसास होता है और मेरे कानों मे उनकी आवाज़ आती है। लगता है जैसे मेरे लिये फोटोग्राफ देखकर कह रहे हों, जियो पुत्तर, शाबास…

अपने प्रेरणा स्रोत और पहले गुरु अमरोहा के स्ट्रीट फोटोग्राफर सरदार प्यारे सिंह जी की स्मृतियों को नमन् करते हुऐ अपने शुरुआती दिनों में खींचे गये फोटोग्राफ साझा कर रहा हूं …

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