लेखक,समीक्षक और सांस्कृतिक कर्मी : कृष्ण नारायण कक्कड़

अपने आदरणीय जयकृष्ण अग्रवाल हमारे बीच एक ऐसे कलाविद हैं, जिन्होंने अपनी पीढ़ी से लेकर आजतक के कला जगत के अद्भुत संस्मरण अपनी यादों में संजो रखे हैं। विगत कुछ वर्षों से वह इन संस्मरणों को सोशल मीडिया पर साझा भी करते रहते हैं। जो मेरी समझ से समकालीन कला की अनमोल धरोहर हैं। प्रस्तुत है कला समीक्षक कृष्ण नारायण कक्कड़ से जुड़ा उनका संस्मरण …

प्रो. जयकृष्ण अग्रवाल

स्मृति शेष …

आपसे उम्र में और अनुभवों में बड़ा कोई व्यक्ति जिससे आप खुलकर अपनी असहमति जता सकें और आपके सम्बन्धों में कोई अंतर नहीं आये। ऐसे ही थे कृष्ण नारायण कक्कड़ (1929-2005) जिन्हें हर उम्र के लोग कक्कड़ साहब कह कर ही सम्बोधित करते थे। कक्कड़ साहब वैसे तो लखनऊ के कान्यकुब्ज कालेज में अंग्रेजी के अध्यापक थे किन्तु उनकी साहित्य, कला, संगीत, नाटक आदि पर बहुत अच्छी पकड़ थी। एक अच्छे समीक्षक, लेखक और धाराप्रवाह बोलने की अद्भुत क्षमता रखने वाले कक्कड़ साहब लखनऊ के कलाजगत में एक प्रकार से छाये रहते थे। कक्कड़ साहब जीवन भर अविवाहित रहे। उनका लगभग सारा दिन घर के बाहर ही व्यतीत होता था। अध्यापन से सेवानिवृति के उपरांत भी वह प्रातः ही रिक्शे पर सवार होकर निकल जाते। उन्होंने अपना स्वयं का वाहन कभी भी नहीं रखा। वह जैसे ही प्रथम तल के मकान से नीचे उतरते कोई न कोई रिक्शा उनके लिये तैयार मिलता। उस पर सवार हो कर वे अपने गन्तव्य को निकल पड़ते। आमतौर पर लखनऊ के कलासंस्थान, काफी हाउस, कलाकार, रंगकर्मी, पत्रकार और साहित्यकार मित्रों आदि से सम्पर्क बनाए रखना ही उनकी प्राथमिकता होती थी। शायद ही कोई सांस्कृतिक कार्यक्रम हो जो उनकी उपस्थिति से वंचित रहता हो। वह एक संवेदनशील व्यक्ति थे। कला और संस्कृति जगत से जुड़ी हर घटना के प्रति उनकी तीखी प्रतिक्रियाओं से हम सभी परिचित रहे थे। अनेक अवसरों पर भले ही उनसे सहमति नहीं होती थी फिर भी एक सकारात्मक ऊर्जा अवश्य मिलती थी जिसकी कमी आज भी प्रतीत होती है।

कक्कड़ साहब के सम्पर्क में मैं छठे दशक में आ गया था। कलाजगत में प्रवेश ही किया था और उन दिनों लखनऊ के बुद्धिजीवी वर्ग से सम्पर्क और अपनी पहचान को लेकर थोड़ा उतावलापन था। जो उस उम्र में स्वाभाविक ही था। बस लखनऊ काफी हाउस के चक्कर लगने शुरू हो गए। वहीं कक्कड़ साहब से परिचय हुआ या कहा जाय कि कक्कड़ साहब ने मुझे खोज निकाला। कक्कड़ साहब की यह विशेषता थी कि वह किसी भी क्षेत्र में उभरती हुई प्रतिभाओं को चिन्हित कर लेते थे। उनमें से एक मैं भी उभरता हुआ कलाकार था जो उनके बहुत नजदीक आ गया। इसका एक कारण और भी रहा हमदोनों के घर कैसबाग़ चौराहे के पास ही थे जिससे हमलोगों का मिलना-जुलना आसान हो गया। मैं अकसर उनके घर चला जाता था। मुझे उनकी बहन सरला दीदी के हाथ की चाय बहुत अच्छी लगती थी…

छठे दशक से उत्तर प्रदेश के कला और संस्कृति के क्षेत्र में अभूतपूर्व परिवर्तन आये। सभी क्षेत्रों में सक्रियता अपनी चरमसीमा पर रही थी जिसमें उस समय के दिग्गजों के साथ कक्कड़ साहब का भी महत्वपूर्ण योगदान रहता था। सृजनात्मक ऊर्जा से ओतप्रोत वातावरण में वैचारिक स्तर पर मतभेद होना भी स्वाभाविक ही था। वैसे भी वैचारिक भिन्नताओं के बीच से ही सृजनात्मक् संभावनाएं अपना रास्ता बनाती रही हैं। मुझे अक्सर वह दिन याद आते हैं जब कक्कड़ साहब के साथ विचार विमर्श में उत्साही युवा कलाकार अपनी बात पर इस हद तक अड़ जाते थे कि टकराव की स्थिति तक उत्पन्न हो जाती थी। ऐसी परिस्थितियों से उबरना कक्कड़ साहब को खूब आता था। वह विवाद की दिशा को ही पलटने की क्षमता रखते थे। एक दिन मैने उनसे पूछ ही लिया कि क्या हमलोगों की हठधर्मी से उन्हें गुस्सा नहीं आता। उनका सीधा सा उत्तर था कि मैं अध्यापक रहा हूं और मुझे वह छात्र कभी भी पसंद नहीं आये जो किताबी ज्ञान को रटकर परीक्षा पास कर लेते थे…

आज के कलाजगत में जबकि विभिन्न विचारधाराओं ने अपने रास्ते अलग-अलग कर लिये हैं, संवाद के रास्ते संकरे हो गये हैं, ऐसी परिस्थिति में आज कक्कड़ साहब का अनायास स्मरण हो आया, यदि वह होते तो क्या कलाजगत के इस संवादहीन वातावरण को स्वीकार कर लेते …

चित्र में- कक्कड़ साहब अपनी शाही सवारी साइकिल-रिक्शा पर सवार हजरतगंज में काफी हाउस जाते हुए मेरे सामने से गुज़रे। मैं फोकस किसी और को कर रहा था बस कक्कड़ साहब बीच में आ गये। वैसे कक्कड़ साहब अक्सर बीच में आ ही जाते थे। आज वह बीच की खाली जगह बड़ी अखरती है लगता है हमारे बीच से सूत्रधार ही चला गया…

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