किसी संस्थान का महत्व केवल उसके भवन और साजो सामान से निर्धारित नहीं किया जा सकता है। वास्तव में उसमें प्राण तो उससे जुड़े लोग ही डालते है भले ही वह किसी भी वर्ग के हों। लखनऊ के कला महाविद्यालय से सेवानिवृत्त हुए मुझे बीस वर्ष से ऊपर हो गए, एक लम्बे अरसे तक जुड़ा रहा, उसकी एक एक ईट से लगाव हो गया था किन्तु आज जब अपने समय के किसी व्यक्ति का उल्लेख आता है तो मेरा अतीत जीवित हो उठता है।
आज मुझसे वरिष्ठ रहे छात्र प्रो. महेश चन्द्र सक्सेना जो शिमला में रह रहे हैं और मूर्तिकार हैं, उन्होंने अपने अध्ययन काल में किये गये पोर्ट्रेट को फेसबुक पर डाला। पोर्ट्रेट उन दिनों कार्यरत कक्षा सहायक मुहम्मद अली का था। वह मूर्तिकला के अध्यापक मुहम्मद हनीफ साहब की कक्षा की व्यवस्था देखते थे। कालेज में सन् 1964 से नेशनल डिप्लोमा पाठ्यक्रम लागू होने तक ललित कला (चित्रकला) के छात्रों को क्ले-मॉडलिंग भी अनिवार्य रूप से सिखाई जाती थी जिसे मुझे भी सीखने का अवसर मिला था।
महेश भाई की पोस्ट ने मुहम्मद अली की यादें ताज़ा कर दीं। क्या दिन थे वह जब हर स्तर पर नियमितता बर्तना नितांत आवश्यक होता था। चाचा मुहम्मद अली, हम सभी छात्र उन्हें आदर से चाचा कहते थे, उनका काम क्ले-मॉडलिंग के लिये मिट्टी तैयार कर छात्रों को उपलब्ध कराना होता था। वह कालेज खुलने के पहले ही आ जाते और अपने कपड़े बदलकर कच्छा बनियान पहने कक्षा में ही बने टैंक में उतरकर मिट्टी पैरो से रौंदं कर तैयार करते और हमारे कक्षा में आने से पहले ही हमें डेस्क पर काम करने के लिये तैयार मिट्टी मिलती। उस समय तक अली चाचा भी हाथ मुंह धोकर तैयार हो जाते। क्ले-मॉडलिंग, इस माध्यम से परिचय कराने के लिए हमें सिखाई जाती थी अतः अभ्यास के लिए किये गये कार्यों का हनीफ साहब द्वारा निरीक्षण किये जाने के बाद अली चाचा उन्हें तोड़कर मिट्टी को पुनः इस्तेमाल करने के लिये टैंक में वापस डाल देते। यह सब नियमितता से करते करते वह स्वयं भी हमें हमारी गलतियां बताने के सक्षम हो गये थे। जब हम पांचवे अंतिम वर्ष के छात्र थे तो हमें स्मृति से बनाने के लिये कोई विषय दे दिया जाता। मुझे याद है हमें फेरीवाले का माडल बनाना था और मेरा माडल बना भी सबसे अच्छा था किन्तु समस्या यह थी की ललित कला के सभी छात्रों को क्ले-मॉडलिंग सीखनी होती थी और सभी के कार्यों को सुरक्षित रख पाना सम्भव नहीं था। यह सोच कर कि हनीफ साहब के निरीक्षण के बाद इसे टैंक में समाधि दे दी जायगी, मन थोड़ा दुखी हो रहा था। अली चाचा से मेरे चेहरे के भाव छिपे न रह सके। उन दिनों फोटोग्राफी का प्रचलन भी सीमित हुआ करता था अतः फोटो भी नहीं ली जा सकी। बस मन मसोस कर मैं वहां से चला गया। कुछ दिन बाद कालेज से घर लौटते समय सूख जाने के बाद अखबार में लिपटा वह मॉडल अली चाचा ने मेरे हाथ में पकड़ा दिया। मुझे बेइन्तहा खुशी हुई और जैसे ही मेरी ऑंखें अली चचा की आंखों से मिलीं, मुझे लगा कि जैसे मुझें शत-प्रतिशत अंक मिल गये हों…