उत्तर प्रदेश में आधुनिक कला आंदोलन के अग्रणी कलाकार की यादें
जय कृष्ण अग्रवाल सर की पहचान एक कलाविद, भूतपूर्व प्राचार्य, छायाकार एवं देश के शुरुआती और शीर्षस्थ प्रिंट मेकर वाली है। किन्तु जितनी बार भी उनसे मिला, मुझे वे इन सबसे इतर एक अभिभावक के रूप में नज़र आये, समकालीन कला के किसी भी अध्याय पर जब चर्चा की नौबत आयी तो उनकी स्पष्ट राय सामने आयी। अपने गुरु आचार्य मदन लाल नागर की पुण्य तिथि पर प्रस्तुत हैं उनके उद्गार…
बीसवीं सदी के आरम्भ में भारतीय आधुनिक कला परिदृश्य में बंगाल और महाराष्ट्र प्रमुख केन्द्र हुआ करते थे। लखनऊ कला महाविद्यालय के प्रथम भारतीय प्रधानाचार्य श्री असित कुमार हलदार सन् 1925 में बंगाल से आए थे। वह बंगाल कला आंदोलन से जुड़े रहे थे। उत्तर प्रदेश की कला गतिविधियों का केन्द्र उन दिनों लखनऊ का कला महाविद्यालय हुआ करता था। बंगाल का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक ही था। हलदार साहब के बीस वर्षीय कार्यकाल में लखनऊ कला महाविद्यालय पूर्णतः बंगाल के प्रभाव में आ चुका था। ब्रिटिश सरकार द्वारा स्थापित चार प्रमुख कला विद्यालयों में लखनऊ कला महाविद्यालय का एक अलग स्थान था, किन्तु अपरिहार्य कारणों से वह अपनी स्वतंत्र पहचान नहीं बना सका। भारत की स्वतंत्रता के बाद स्थानीय कलाकारों में अपनी पहचान को लेकर जाग्रति आई और एक नई सोच उभरने लगी।
मदनलाल नागर जो एक सुसंस्कृत परिवार से आये थे स्वयं प्रगतिशील विचारधारा से प्रेरित थे। लकीर पर चलते रहना उन्हें स्वीकार नहीं था। कुछ हटकर कुछ अलग करने की अभिलाषा उन्हें मुम्बई ले गई। जहां वह उनदिनों सक्रिय प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप के संपर्क में आये। उन्होंने पश्चिमी इम्प्रेशनिस्ट कलाकारों का भी विस्तृत अध्ययन किया जिसने उनकी सोच और सृजन को प्रभावित किया। किन्तु नागर जी तो कुछ और ही खोज रहे थे।
उनका ध्यान तो उत्तर प्रदेश और विशेष रूप से लखनऊ के कला जगत की अलग पहचान की ओर केन्द्रित था। वह जानते थे कि भारतीय कला परिदृश्य से जुड़े रहते हुए हमें अपनी एक अलग और स्वतंत्र पहचान लेकर ही आगे बढ़ना होगा। इसके लिये अपने परिवेश से जुड़ना आवश्यक था। यू.पी. आर्टिस्ट्स एसोसिएशन में उनकी सक्रियता और अनेक कलाकारों का साथ मिलने से कलाजगत में एक नई् सोच जगह बनाने लगी। जिसे पद्मश्री सुधीर रंजन ख़ास्तगीर के लखनऊ कला महाविद्यालय में प्रधानाचार्य पद पर आ जाने से बड़ा बल मिला।
नागर जी चौक की संकरी गलियों में बड़े हुऐ थे बस अंततः वही उनकी प्रेरणा का आधार बनीं। निरंतर अनेक वर्षों के अथक प्रयासों और प्रयोगवादी प्रवृत्ति से उनकी सृजनशीलता में ठहराव थोड़ा विलम्ब से आया । किन्तु उनकी शहर श्रंखला के एक चित्र को राष्ट्रीय पुरस्कार दिये जाने के उपरांत यकायक वह चर्चा में आ गये । एक शांत और सहज व्यक्तित्व के नागर जी पर इसका कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा। वैसे भी अत्यंत संकोची होने के कारणवश वह अपने को अलग-थलग ही रखते थे।उनके जीवन का लक्ष्य मुख्य रूप से अपने सृजन और अपने छात्रों को बढ़ावा देने तक ही सीमित रहा।
सन् 1957 से मै एक छात्र के रूप में नागर जी के सम्पर्क में आया और उसके उपरांत लगातार उनसे सम्पर्क बना रहा। अक्सर सोचता हूं कि जिस प्रकार वह कला के मूल तत्वों को हमें सभझाते थे, कला की विवेचनात्मक व्याख्या करते थे वैसे अध्यापक विरले ही होते हैं। मै सौभाग्यशाली रहा हूं कि मुझे उनका छात्र होने के साथ-साथ उनके संरक्षण में अध्यापन कार्य करने का अवसर भी मिला।
नागर जी की चर्चा में बने रहने की प्रवृत्ति नहीं थी। मीडिया और बाज़ारवाद से वह परहेज ही करते रहे। यहां तक की उन्होंने राजकीय कला एवं शिल्प महाविद्यालय, लखनऊ के प्रधानाचार्य पद को भी एक प्रकार से त्याग दिया था।
सम्भवतः यही कारण रहा कि मुख्य धारा में होते हुऐ भी उन्हें कला जगत में अपेक्षित स्थान नहीं मिल सका। वैसे भी हमारे यहां विशिष्ट पदधारको के नाम की ही तख्ती लगाने की परम्परा रही है। स्मृतियों को संजोए रखने के लिये स्मारक बनाना तो दूर की बात है। दुख तो इसबात का है कि उत्तर प्रदेश जहां नागर जी जीवनपर्यन्त कला साधना और कला के उन्नयन के लिये कृतसंकल्प रहे उस प्रदेश ने भी उन्हें यथोचित सम्मान नहीं दिया, लेकिन हमें विश्वास है कि आज नहीं तो कल, उत्तर प्रदेश ही नही समस्त भारतीय कला परिदृश्य में नागर जी के सृजनात्मक योगदान को उसका यथोचित स्थान अवश्य मिलेगा।
इस महान कलासाधक और अपने गुरु की स्मृतियों को सादर नमन् !