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आज मकबूल फिदा हुसैन साहब की पुण्यतिथि पर उनका स्मरण करते हुये एक घटना याद आ रही है
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लखनऊ : सन् 1964 जब हुसैन साहब ने मेरे साथ फोटो खिंचवाने से मना कर दिया था…
आमतौर से किसी महान आत्मा अथवा प्रियजन की पुण्यतिथि पर श्रद्धांजलि अथवा जन्मदिन पर बधाई आदि ऐसे ही किसी अवसर पर हम अपनी संवेदना सोशल मीडिया पर व्यक्त करते हैं तो हम उस व्यक्ति के साथ अपनी फोटो डालना नहीं भूलते। ऐसे अवसरों पर मेरी समस्या यह रहती है कि उस व्यक्ति का फोटो तो मेरे पास होता है किन्तु उसके साथ मेरा फोटो नहीं होता।
अपनी अबतक की जीवन यात्रा का पुनर्वलोकन करता हूं तो उन सब महान व्यक्तियों का स्मरण होआता है जिनसे मिलने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ था और अबतक ऐसे अनेक व्यक्तियों से मेरा साक्षात्कार हो चुका है। ऐसा ही एक व्यक्ति था जिससे मैं 1964 के आसपास मिला था और उनके साथ अपनी फोटो खिंचवाना चाहा था। किन्तु उन्होंने मुझे इसकी आज्ञा नहीं दी। वह व्यक्ति कोई और नहीं महान भारतीय कलाकार मकबूल फिदा हुसैन साहब थे। मैने कलाजगत में प्रवेश ही किया था और एक अवसर पर हुसैन साहब के साथ खड़ा होकर गौरवान्वित महसूस कर रहा था। उनके साथ फोटो खिंचवाने की इच्छा स्वाभाविक ही थी। उनके मना कर देने पर मैं निराश हो गया था। मेरे निराश चेहरे को देखकर हुसैन साहब ने कहा कि मुझे उस दिन की प्रतीक्षा करनी होगी जिस दिन वह स्वयं मेरे साथ फोटो खिंचवाने के लिये आग्रह करेंगे और उन्होंने यह भी आश्वासन दिया कि वह दिन अवश्य अऐगा। हुसैन साहब का संदेश मुझे मिल चुका था कि किसी ऊंचे कद वाले के साथ खड़े होकर हमारा कद बड़ा नहीं हो जाता। उस कद को प्राप्त करने के लिए हमें स्वयं अपने स्तर पर ही निरंतर प्रयास करना होता है।
मैने अपना कद बढ़ाने की बहुत कोशिश की पर हुसैन साहब रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। उनका कद तो बेहिसाब बढता गया और मैं इंतजार करता रहा उनके साथ फोटो खिंचवाने का …
आज स्थिति यह है कि उम्र तो मेरी बहुत हो गई है किन्तु कद की कोई सीमा नहीं होती और मुझे अपने कद को लेकर कोई भ्रम नहीं है। किसी विशिष्ट व्यक्ति के साथ फोटो खिंचवाते समय हुसैन साहब की बात याद आ जाती है और मैं फोटो फ्रेम से बाहर हो जाता हूं।