अत्यंत शांत, सौहार्द्र और सहिष्णु व्यक्तित्व के कलाकार हनीफ साहब को लगता है वख्त ने जैसे भुला ही दिया।
यथार्थवादी शिल्पकार और संगतराश हिरण्मय राय चौधरी की परम्परा का अनुसरण करने वाले हनीफ साहब सम्भवतः अकेले ही कलाकार रहे थे जिन्होंने मूर्ति कला को अपना प्रमुख माध्यम बनाया केवल अंतर माध्यम का ही था। राय चौधरी की तरह संगतराश न बनकर उन्होंने प्लास्टर आफ पेरिस,सीमेंट और ब्रौंज़ को ही अपने सृजन का माध्यम चुना।वास्तव में सन् 1956 से पहले लखनऊ के कला महाविद्यालय में मूर्ति कला का प्रशिक्षण चित्रकला के साथ ही दिया जाता रहा था और अकेले हनीफ साहब पर ही पूरे प्रशिक्षण का दायित्व रहता था। मैने स्वयं अपने प्रशिक्षण काल में क्लेमाडलिगं उन्हीं से सीखी थी।
आज अनायास मुझे हनीफ साहब का स्मरण हो आया। कैलेन्डर की तारीखें लौटने लगीं और लगभग साठ वर्ष पहले का क्लेमाडलिगं क्लास जीवंत हो उठा। उन दिनों क्लेमाडलिगं क्लास में विशेष प्रकार की वर्क टेबिल की कतारें हुआ करती थी। प्रत्येक छात्र के स्थान पर सामने एक प्लास्टर कास्ट लटका दिया जाता था और टेबिल पर लकड़ी के बोर्ड पर हमें काम करना होता था। क्लास अटैन्डैन्ट चचा मुहम्मद अली हुआ करते थे जो हमेशा बड़ी मुस्तैदी से तैयार की हुई मिट्टी हमारे सामने रख देते। इसके बाद हनीफ साहब सामने खड़े होकर हमें प्लास्टर कास्ट की मिट्टी में अनुकृति बनाने की विधी स्वयं करके बताते थे। हम सब लोगों का कार्य पूर्ण होने के बाद हनीफ साहब प्रत्येक छात्र के काम का एक-एक कर निरिक्षण करते, उनकी कमियों को ठीक कराते। बाद में कक्षा अभ्यास के लिये किये गये सभी कार्यो की मिट्टी अगली बार प्रयोग के लिये एकत्र कर ली जाती। उन दिनों रजिस्टर में उपस्थिति और अध्यापक द्वारा छात्र की प्रगति के आंकलन का बड़ा महत्व हुआ करता था। एक बार मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ जब मेरे सामने पहले वाला प्लास्टर कास्ट दुबारा टंगा मिला।मैनें कहा भी कि मै इसे पिछले टर्न पर बना चुका हूं फिर दोबारा क्यों।इस पर हनीफ साहब बोले कि मेरा पिछला कार्य समय रहते तुम पूर्ण नहीं कर पाये थे इसी लिये यह तुम्हें दुबारा करना पड़ रहा है। हनीफ साहब सभी छात्रों की प्रगति के बारे में अलग अलग जानकारी रखते थे। सबसे महत्वपूर्ण कक्षा में हर समय उनकी उपस्थिति थी। वैसे प्रत्येक अध्यापक की हर समय कक्षा में उपस्थिति की अनिवार्यता एक लम्बे समय तक बनी रही। शायद यह एकैडमिक स्कूल शिक्षा पद्धति और उस समय की सरकारी सेवाओं की आवश्यकता रही थी।
मुख्यमंत्री सी.बी.गुप्ता हनीफ़ साहब के बड़े प्रसंशक हुआ करते थे उनके कार्य काल में हनीफ साहब ने अनेक महापुरुषों के बस्ट बनाए। पुणे की नेशनल डिफेंस एकेडेमी में भी चन्द्रगुप्त मौर्य काल के सिक्कों पर आधारित तीन बड़े बड़े रिलीफ हनीफ साहब ने ही बनाऐ थे। यही नहीं उनका बनाया घास छीलता माली का जीवंत शिल्प कभी लखनऊ कला महाविद्यालय में प्रवेश करते ही सबका ध्यान बरबस अपनी ओर आकर्षित कर लेता था।
हनीफ साहब के अनेक प्रसंशकों में पद्मश्री डा. सतीश चन्द्र राय भी हुआ करते थे।एक बार हनीफ साहब स्कूटर चलाते समय दुर्घटनाग्रस्त हो गये।उनके सिर में चोट आई और वह अपनी स्मरण शक्ति लगभग खो चुके थे। उन्हें बलरामपुर अस्पताल ले जाया गया। जब डाक्टर राय को पता चला तो उन्होंने तुरंत हनीफ साहब की चिकित्सा का दायित्व स्वयं सम्हाल लिया। वह मिट्टी में जीवन फूंकने वाले कलाकार को इस हालत में नहीं देख पा रहे थे। उनके अथक प्रयास से अपने आप में अनूठा शिल्पकार पुनः उठ खड़ा हुआ किन्तु आज हम उसकी स्मृतियों तक को नहीं संजो पा रहे हैं।
Photo Courtesy -Prof.Mahesh Chandra Saxena, Shimla.
Ex-Student, Lucknow Art College.