
लखनऊ कला महाविद्यालय में प्रिंटमेकिंग के प्रारम्भिक दिनों में छात्रों के बीच इस माध्यम के प्रति जिज्ञासा उन्हें हतोत्साहित करने के उपरांत भी बढ़ती गई। अनेक छात्रों में तो इस माध्यम को लेकर एक प्रकार से जुनून ही सवार हो गया था। मनोहर लाल उन जुनूनी छात्रों के एक प्रकार से अग्रज रहे थे। सन् 1963 में प्रिंट मेकिंग के आरम्भ् के साथ ही मनोहर ने महाविद्यालय में एक छात्र के रूप में प्रवेश लिया। अगले वर्ष ही प्रिंटमेकिंग पाठ्यक्रम का एक हिस्सा बन गई। प्रिप्रेट्री के दो वर्ष सभी पाठ्यक्रमों को एक साथ प्रशिक्षण दिया जाता था।
प्रिंटमेकिंग और पाॅट्री वैकल्पिक विषय थे। आरम्भ में अधिकतर कमर्शियल आर्ट के छात्रों ने ही प्रिंटमेकिंग का चयन किया। ललित कला के छात्रों में उनकी कार्यशैली पर प्रिंट मेकिंग का प्रतिकूल प्रभाव पढ़ने की सम्भावना का प्रचारित किया जाना उन्हें हतोत्साहित कर रहा था। इसके उपरांत भी मनोहर और कुछ अन्य छात्रों ने प्रिंट मेकिंग का विकल्प ही चुना। धीरे-धीरे जब इन छात्रों के प्रयासों के परिणाम सामने आने लगे तो विरोध भी कम होता गया। परोक्षरूप से ही सही, किन्तु इस माध्यम को स्वीकृति मिलना शुरू हो गई।

मनोहर कुछ समय तक लीनो और वुडकट तक ही सीमित रहे किन्तु आगे बढ़ते हुए लीथोग्राफी कोलोग्राफ और मैटल प्लेट एचिंग में प्रयोगात्मक कार्य करने लगे। उन दिनों साधनों की सीमित उपलब्धता के कारण बहुत बड़े आकार के प्रिंट नहीं बनाए जाते थे किन्तु मनोहर ने स्पून रबिंग करके बड़े वुडकट बनाना शुरू किया। कोलोग्राफ और एचिंग प्रिंट का आकर प्रेस छोटा होने के कारण 12 इंच तक ही सीमित रखना पड़ता। वैसे भी उन दिनों अधिकतर आर्थिक सीमाओं के कारण छात्र कला सामग्री पर अधिक खर्च नहीं कर पाते थे। सन् 1971में पोस्ट डिप्लोमा करते समय लीथोग्राफी और इटैग्लियो प्रौसेस में मनोहर ने अनेक प्रयोगात्मक कार्य किये जिसका प्रतिफल उनका चयन ब्रिटिश काउंसिल स्कालरशिप पर लन्दन जा कर अध्यन करने के लिये हुआ। साथ ही उच्चस्तरीय अध्यन के लिये नेशनल कल्चरल स्कालरशिप भी प्रदान की गई । मनोहर ने लन्दन न जा कर मेरे भी गुरू रहे श्री सोमनाथ होर के निर्देशन में शान्तीनिकेतन जाने का विकल्प ही चुना। वास्तव में मनोहर के इस निर्णय से उन्हें बड़ा लाभ हुआ। शान्तीनिकेतन में दो वर्षीय प्रवास के मध्य मैटल प्लेट एचिंग, इनग्रेविगं और लीथोग्राफी में जो प्रयोगात्मक कार्य किये वह तकनीकी उत्कृष्टता के साथ अलग कार्य शैली और पहचान बनाने में भी सहायक सिद्ध हुए।

लखनऊ लौटने पर सन् 1976 में स्थानीय कला महाविद्यालय में प्रिंट मेकिंग के अध्यापन कार्य के लिये उनकी नियुक्ति हो गई। तदोपरांत मनोहर ने बड़ी गर्मजोशी से काम शुरू कर दिया। उनके कार्य राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रदर्शित होने लगे। मनोहर की प्रयोगत्मक प्रिंट मेकिंग में सदैव ही बड़ी रुचि रही थी जो अध्यापन कार्य में बड़ी सहायक सिद्ध होती रही। प्रिंट मेकिंग की तकनीकी जटिलताओं से खेलने में मनोहर को बड़ा आनंद आता था। उनकी नियुक्ति हो जाने से प्रिंट मेकिंग विभाग को विकसित करने में मुझे बड़ी सहायता मिलती रही। अपने कार्यकाल में अनेक उतार चढावों का हमने मिलकर सामना किया। किन्तु कला महाविद्यालय की अंदरूनी उठकपटक और प्रदेश के कलाजगत की स्थिति से निराश हो संवेदनशील कलाकार मनोहर अपने आप में सिमटते चले गये। यह वास्तव में दुखद रहा अनेक अन्य उदीयमान कलाकार भी हतोत्साहित हुए जिसके लिये कहीं न कहीं उपयुक्त वातावरण की कमी ही रही जो कलाकर्म के लिये सृजनात्मक ऊर्जा बनाए रखने के लिये आवश्यक थी।
मनोहर आज अपनी ही बनाई दुनियां में खोए रहते हुए कभी-कभार रेखांकन करते रहतें हैं। जब वह पूरी तरह से सक्रिय थे उन्होंने अपना श्रेष्ठ देने का भरसक प्रयत्न किया था और अपने आप को सिद्ध भी किया था…