कलागुरु आचार्य मदनलाल नागर का यह जन्म शताब्दी वर्ष है। किन्तु दुर्भाग्य से राज्य ललित कला अकादेमी, लखनऊ द्वारा इसे विधिवत मनाने का कोई प्रयास कहीं नहीं दिखता है। किन्तु राज्य के कलाकारों द्वारा उन्हें याद किया जा रहा है, यह जानना सुखद है। इन्हीं कलाकारों में एक हैं देश के वरिष्ठ छापा कलाकार और कला एवं शिल्प महाविद्यालय, लखनऊ के पूर्व प्राचार्य आदरणीय जयकृष्ण अग्रवाल। विदित हो कि जय सर इन दिनों अपने नियमित फेसबुक पोस्ट के माध्यम से अपने संस्मरण साझा करते रहते हैं। इसी क्रम में उन्होंने आचार्य मदनलाल नागर जी के जन्मदिवस पर कभी लिखा था – “मदनलाल नागर जो एक सुसंस्कृत परिवार से आये थे स्वयं प्रगतिशील विचारधारा से प्रेरित थे। लकीर पर चलते रहना उन्हें स्वीकार नहीं था। कुछ हटकर कुछ अलग करने की अभिलाषा उन्हें मुम्बई ले गई। जहां वह उनदिनों सक्रिय प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप के संपर्क में आये। उन्होंने पश्चिमी इम्प्रेशनिस्ट कलाकारों का भी विस्तृत अध्ययन किया जिसने उनकी सोच और सृजन को प्रभावित किया। किन्तु नागर जी तो कुछ और ही खोज रहे थे।
उनका ध्यान तो उत्तर प्रदेश और विशेष रूप से लखनऊ के कला जगत की अलग पहचान की ओर केन्द्रित था। वह जानते थे कि भारतीय कला परिदृश्य से जुड़े रहते हुए हमें अपनी एक अलग और स्वतंत्र पहचान लेकर ही आगे बढ़ना होगा। इसके लिये अपने परिवेश से जुड़ना आवश्यक था। यू.पी. आर्टिस्ट्स एसोसिएशन में उनकी सक्रियता और अनेक कलाकारों का साथ मिलने से कलाजगत में एक नई् सोच जगह बनाने लगी। जिसे पद्मश्री सुधीर रंजन ख़ास्तगीर के लखनऊ कला महाविद्यालय में प्रधानाचार्य पद पर आ जाने से बड़ा बल मिला।”
Jai Krishna Agarwal
बहरहाल अपने इस ताज़ा संस्मरण में जयकृष्ण अग्रवाल जी ने नागर जी की कला चेतना को व्याख्यायित करते हुए, जो कुछ लिखा है; वह प्रेरक और अनुकरणीय है।
– मॉडरेटर
बचपन में ताश के पत्तों के घर बनाया करते थे। वह घर तो पीछे ही छूट गये किन्तु आचार्य मदनलाल नागर जी के अंदर पल रहे बालक ने साथ नहीं छोड़ा। उनहोंने कागज़ की कतरनें क्या देखीं बस पूरा शहर ही कतरनों से बना डाला।
बात 1976 की है मैं लखनऊ कला महाविद्यालय के प्रिंट मेकिंग विभाग में प्रिंटिंग के लिये कागज़ काट रहा था। फाल्तू कटी हुई कतरने जमीन पर डालता जा रहा था। तभी नागर जी वहां आये। उनका ध्यान गिरी हुई कागज़ की कतरनों की तरफ गया। कुछ समय तक वह उन्हें टकटकी लगाकर देखते रहे। लग रहा था जैसे वह कुछ खोज रहे हों। मैने उनसे जानना चाहा कि क्या वह कुछ तालाश कर रहे हैं किन्तु उन्होंने सिर्फ इतना ही कहा कि यदि यह कतरनें बेकार हैं तो क्या मैं उन्हें ले जा सकता हूं। मैने तुरंत उन कतरनों को एकत्र कर उनके कक्ष में पहुंचा दिया।
नागर जी को अक्सर देखा करता था कि वह चलते चलते जमीन पर बेकार पड़ी किसी चीज़ को उठाकर देखते और फिर वहीं छोड़ कर चले जाते। उनसे पूछने की कभी हिम्मत नहीं हुई किन्तु इस बार मेरी जिज्ञासा जबाब दे गई थी। मैं जानने के लिए उत्सुक था कि नागर जी उन बेकार कतरनों का क्या करने जा रहे हैं। थोड़ी देर बाद कुछ पूछने के बहाने मैं उनके कक्ष में गया तो देखकर आश्चर्य हुआ कि वह कागज़ की कतरनें उनकी टेबिल पर आड़ी तिरछी पड़ी थीं। गौर से देखने पर लगा जैसे उन्हें किसी आकार में व्यवस्थित किया गया हो। थोड़ा और पास आने पर इसकी पुष्टि भी हो गई। सामने बैठे नागर जी की स्केच बुक पर उन कतरनों सरीखी आड़ी तिरछी रेखाएं आकार ले रहीं थीं। मेरी इच्छा तो थी इस बारे में उनसे बात करने की किन्तु उनकी रचना प्रक्रिया में व्यवधान डालना उचित नहीं लगा और में कक्ष से बाहर आ गया।
दो दिन बाद स्वयं नागर जी ने ही मुझे अपने कक्ष में बुलाया और कहा कि मैं समझ गया था कि तुम उस दिन क्यों आये थे…यही देखने कि मैं इन कतरनों का क्या कर रहा हूं…लो अब देख लो और यहाँ जो संलग्न है वही चित्र मेरे सामने था और मैं देखकर अवाक रह गया कि बेकार कतरने भी किस प्रकार एक कलाकार की सोच को प्रभावित कर सकती हैं। मुझे हतप्रभ देखकर नागर जी ने कहा कि एक समय था जब मैं अपनी कल्पना को विस्तार देने और चित्रों के लिये विषय की तालाश करने भटकता फिर रहा था। किन्तु बहुत भटकने के बाद समझ आया कि जिसे हम तलाश कर रहे होते है वह तो हमारे इर्द-गिर्द ही होता है; बस हम उसे देख नहीं पाते…