‘ मिट्टी से सृजन ‘ : ज़मीन से जुड़ने का एहसास…

सन् 1956 में लखनऊ के कला महाविद्यालय में पद्मश्री आचार्य सुधीर रंजन ख़ास्तगीर के प्रधानाचार्य पद पर आसीन होने के उपरांत सामयिक आवश्यकताओं के निहित आमूल-चूल परिवर्तन किये गये। अर्से से चलते चले आ रहे बहुत से क्राफ्ट कोर्सेज छात्रों को अधिक आकर्षित नहीं कर पा रहे थे और बंदी की कगार पर थे। खास्तगीर साहब का मानना था कि कला के पारम्परिक माध्यमों के अतिरिक्त अन्य माध्यम सृजनात्मक सम्भावनाओं का विस्तार करते हैं। क्राफ्ट कोर्सेज के प्रति वह अत्यंत संवेदनशील थे। उनका यह भी मानना था कि शिल्प के साथ कला पक्ष पर बल दिया जाए तो इन पाठ्यक्रमों की उपयोगिता बढ़ाई जा सकती है।इस आशय से उन्होंने चित्र और मूर्ति कला के छात्रों को महाविद्यालय में उपलब्ध विभिन्न क्राफ्ट तकनीकों में सृजन के लिये प्रेरित किया। यही नहीं सप्ताह में एक पीरिएड स्वेच्छा से किसी भी क्राफ्ट में प्रशिक्षण लेना सभी छात्रों के लिये अनिवार्य कर दिया था। इससे दोहरा लाभ हुआ।कला के छात्रों को अपारंपरिक माध्यमों में सृजन के अवसर ने जहां उनकी कला को विस्तार दिया वहीं दूसरी ओर शिल्प के कला पक्ष को सुदृढ़ किया।उनदिनों मैं स्वयं चित्रकला का छात्र था और सम्भवतः इनग्रेविगं और लीथोग्राफी में कुछ प्रयोगात्मक कार्य करने के अवसर ने ही मेरे कलाकर्म को विस्तार दिया और मैं एक चित्रकार के साथ प्रिंटमेकर भी बन सका।
सन् 1970 तक एक प्रिंटमेकर के रूप में मेरी पहचान बन चुकी थी।उन्हीं दिनों मेरे एक मित्र अनिल वार्ष्णेय जापान से सेरामिक में विशेष अध्ययन करके लौटे थे। उन्होंने अलीगढ़ में एक पाॅटरी यूनिट लगाया और सेरामिक में प्रयोगात्मक कार्य करने के लिए मुझे आमंत्रित किया। प्रशिक्षण काल में ही विभिन्न माध्यमों के प्रति जिज्ञासा मेरे अंदर रोपदी गई था। इस स्वर्णिम अवसर से उत्साहित होकर मैने गर्मियों में दो मांह का अवकाश अलीगढ़ में व्यतीत किया। अनिल के तकनीकी ज्ञान और व्यवहार ने मुझे बहुत प्रोत्साहित किया वैसे भी एक नए माध्यम में कार्य करने का सुख कुछ अलग ही होता है। गीली मिट्टी का स्पर्श अपनेआप में अद्भुत अनुभव, अपनी जमीन से जुड़ने का एहसास होता है। फिर जब भट्टी में पक कर मेरे सेरामिक बाहर आए तो उनके रंग रूपाकारों के अतिरिक्त उनसे निकलती ध्वनि तरंगों ने मुझे मंत्रमुग्ध कर दिया।मुझे अपनेआप से डर लगने लगा था कि कहीं मैं इस माध्यम को पूर्णतः अपना न लूं। शायद मैंने यह निर्णय ले लिया होता यदि कला महाविद्यालय में मैं प्रिंटमेकिंग का अध्यापक न होता…

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