साधारण से असाधारण की ओर जीवनपरयंत अग्रसर रहे कलासाधक आचार्य मदनलाल नागर की जन्मशती वर्ष में उनकी स्मृतियों का स्मरण करते हुए उनके सृजन काल का पुनरावलोकन …

एक समय था जब कलाबाज़ार नहीं था विशेष रूप से लखनऊ में तो किसी कलाकृति का बिक जाना समाचार पत्र के समाचार से कम नहीं था। ऐसी आर्थिक तंगी के समय में भी कलाकार सृजनशील थे। मै स्वयं उस स्थिति का प्रत्यक्षदर्शी रहा हूं, जब कलाकार दो जोड़ी कपड़े और एक समय के भोजन में भले ही गुजारा करलेते थे I किन्तु अपने सृजन से जुड़ी आवश्यकताओं को प्राथमिकता देते थे। उनदिनों वैसे भी कलाकारों के लिये व्यवसाय के अवसर सीमित थे। अधिकतर कलाकार कला महाविद्यालय से प्रशिक्षण प्राप्त कर कुछ वर्ष तो संधर्ष करते, किन्तु अंत में जीवनयापन की समस्या उन्हें अन्य विकल्प चुनने के लिये बाध्य कर देती। भारत की स्वतंत्रता के उपरांत लखनऊ के कलाजगत की स्थिति का स्मरण करता हूं तो अनेक ऐसे प्रतिभा सम्पन्न कलाकारों को कलाजगत से पलायन करते देखा है; जिनमें अपार सृजनात्मक सम्भावना परिलक्षित हो रही थीं। उनमें आकाश की उचाईयां छू लेने की क्षमता थी I किन्तु परिस्थितियों ने उन्हें आकाश की ओर देख लेने का अवसर तक नहीं दिया।
मदनलाल नागर के सृजन का प्रारम्भिक काल भी संघर्ष से भरा रहा था। वह एक मध्यवर्गीय सुसंस्कृत परिवार में सन् 1923, लखनऊ में जन्में थे। एक बड़े परिवार और सीमित आय का प्रभाव तो पड़ना ही था I किन्तु पारिवारिक एकजुटता और सभी सदस्यों का कर्मनिष्ठ होना ही था कि अनेक व्यवधानों के उपरांत भी सभी अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते गये। युवा मदनलाल प्रारम्भ से ही चित्रकला में रुचि ले रहे थे I वास्तव में जब वह हाईस्कूल की पढ़ाई कर रहे थे तब कला अध्यापक नारायण दत्त जोशी के सम्पर्क में आये जिन्होंने लखनऊ के स्कूल आफ आर्ट से प्रशिक्षण लिया था। युवा मदनलाल ने तभी मन बना लिया था और सन् 1940 में स्थानीय गवर्नमेंट स्कूल आफ आर्ट एंड क्राफ्ट में प्रवेश ले लिया। उन दिनों बंगाल से आये वाटरकलर वाश पेन्टिंग शैली के मूर्धन्य कलाकार आचार्य असित कुमार हलदार प्रधानाचार्य थे और चित्रकला के अध्यापक श्री बीरेश्वर सेन जिनकी जलरंगों में दृश्य चित्रण विशेषता रही थी। उन्होंने मदनलाल को अत्याधिक प्रभावित किया। उन्हीं दिनों श्री ललित मोहन सेन जो अनेक विधाओं विशेष रूप से पश्चिमी अकादमिक स्कूल शिक्षा पद्धति की विशिष्टता प्राप्त कलाकार थे I किन्तु उनका कला अध्यापक प्रशिक्षण पाठ्यक्रम से जुड़े होने के कारणवश मदनलाल उनके सीधे सम्पर्क में नहीं आ सके फिर भी विद्यालय में उनकी उपस्थिति का लाभ लेते हुऐ मदनलाल ने पश्चिमी तैल चित्रण पद्धति की भी जानकारी प्राप्त की।

कला विद्यालय में उन दिनों श्री बीरेश्वर सेन का प्रभाव अधिक रहा था विशेष रूप से मदनलाल उनसे अधिक प्रभावित थे I सम्भवतः यही कारण उनके जलरंगो में दृश्य चित्रण की ओर झुकाव का रहा था । सन् 1946 में कला का डिप्लोमा पाठ्यक्रम पूर्ण करने के उपरांत बस एक दिन कंधे पर झोला लटकाया और निकल पड़े पर्वत श्रृंखलाओं के बीच अपने सृजन को विस्तार देने। अपने सतत् प्रयास से उन्होंने जलरंगों में दृश्यचित्रण के लिये विशिष्ट पहचान बनाली थी, किन्तु एक खालीपन का ऐहसास उन्हें उसके उपरांत भी घेरे रहा। अपने कौशल से वह संतुष्ट नहीं हो पा रहे थे I उन्हें तो अभिव्यक्ति करनी थी उन विचारों की उन उद्गारों की जो उन्हें दिन पर दिन घेरते जा रहे थे। धीरे-धीरे उन्हें अपने सीमित परिवेश का विस्तार करने की आवश्यकता प्रतीत होने लगी। उन्हें विश्वास होने लगा था कि नया परिवेश उनकी समझ और सोच में सकारात्मक परिवर्तन लायेगा। आर्थिक समस्यायें उनके सामने बनीं हुई थी। अपनी आवश्यकताओ के लिये वह अपने परिवार पर अधिक बोझ नहीं बने रहना चाहते थे। वैसे आर्थिक समस्याओं में गुजर बसर करना उन दिनों के लगभग सभी कलाकारों की जीवनशैली ही बन गई थी। युवा मदनलाल की भी कोई विशेष अपेक्षाएं नहीं थी। वह चाहते तो अपने जलरंगो के दृश्य चित्रों को अपनी जीविका का साधन बना सकते थे।
किन्तु उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि ने उन्हें एक अलग सोच दी थी जो वास्तव में उनके बड़े भाई लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकार अमृतलाल नागर के सानिध्य से विशेष रूप से प्रभावित रही। उन दिनों साहित्य के छायावाद के समानांतर लखनऊ के कला महाविद्यालय में बंगाल से आयातित कला में छायावद की प्रतिनिधि कला वाश शैली का प्रभाव पूर्णतः व्याप्त था। मदनलाल कहीं न कहीं अपनी अलग सोच और पहचान को लेकर चिंतित थे। वह कुछ अलग करना चाहते थे। जीवन के संघर्ष के साथ सृजन को लेकर जिस संघर्ष का सामना उन्हें लखनऊ में रह कर करना पड़ रहा था उसके लिये उन्हें कुछ समय के लिये स्थान परिवर्तन आवश्यक हो गया था । सौभाग्य से सिनेमा जगत से जुड़े उनके दूसरे भाई मुम्बई में रह रहे थे। वह मुम्बई चले गये और वहां सक्रिय प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप के सदस्यों और अनेक स्थानीय कलाकारों के सम्पर्क में आये जिसने उनके कला कर्म को एक नई दिशा दी।

मदनलाल के लिये मुम्बई जाना अधिक कठिन नहीं था सन् 1947 से 1949 के मध्य ही वह चार बार मुम्बई गये। उन दिनों बौम्बे आर्ट सोसाइटी एक महत्वपूर्ण कला संस्था मुम्बई में अत्यंत सक्रिय थी। स्थानीय कलाकार रज़ा, सूज़ा, आरा, गायतोंडे, एम.एफ.हुसेन, डी.जे.जोशी और एन.एस.बेन्द्रे आदी बड़ी चर्चा में थे और एक प्रकार से मुम्बई के कला जगत पर छाये हुए थे। उन्ही दिनों सन् 1947 में बौम्बे आर्ट सोसाइटी की वार्षिक कला प्रदर्शनी में मदनलाल की छः प्रविष्टियों में से पाँच कला कृतियां चयनित की गई। इससे उन्हें बड़ा प्रोत्साहित किया। धीरे-धीरे स्थानीय कलाकारों के साथ उनकी निकटता भी बढ़ती जा रही थी I अभी तक पूर्वोत्तरी संवेदनशीलता से प्रभावित कला से जुड़े मदनलाल के लिये पश्चिमी देशों से प्रभावित महाराष्ट्र के कलाकारों का सानिध्य बहुत भाया। एन.एस.बेन्द्रे ने उन्हें बहुत प्रभावित किया था । उनसे मिलने के उपरांत मदनलाल की सोच को एक प्रकार से विस्तार मिला था। वास्तव में दीर्घकाल से चलती चली आ रही विचारधारा में संकीर्णता आ जाना स्वाभाविक ही था। जहां एक ओर समस्त विश्व के कलाकार बौद्धिक समस्याओं का मंथन कर अपनी कला में नये तत्वों का समावेश कर रहे थे वहीं मदनलाल को भी अपनी दिशा परिवर्तन के दबाव ने घेर लिया। फ्रांसीसी कलाकार वान गो की कलाकृतियों ने मदनलाल को अत्यधिक प्रभावित किया वह उनके बड़े प्रसंशक रहे थे।
किन्तु उन्होंने न तो वान गो के जीवन का और न ऊनके चित्रों की शैली का अनुसरण करना चाहा उन्हें तो जिस बात ने प्रभावित किया वह तो कलाकार की अपने सृजन की प्रतिबद्धता थी जिसके वह प्रसंशक ही नही रहे बल्कि उसका एक हद तक अनुसरण भी करते रहे। वास्तव में वानगो वह अकेला कलाकार था जिसने सफलता और असफलता के बीच की दूरी ही समाप्त करदी थी उनकी कला स्वांतःसुखाय जो थी। मदनलाल ने थोड़ी बहुत कलाकृतियां अवश्य बेची किन्तु कलाबाज़ार से कभी समझौता नहीं किया।

लखनऊ लौटकर उन्होंने प्रयोगात्मक कार्यों में अपने आप को एक अरसे तक डुबाए रखा। जीवन में अस्थिरता अभी भी बनी हुई थी I किन्तु मदनलाल कृतसंकल्प थे। वह अकेले ही हर संघर्ष का सामना करते रहे। मुम्बई में रहते हुए वह अपनी अधिकतर समस्याओं का निदान ढूंढ सकते थे, किन्तु मुम्बई की भागम भाग उन्हें रास नहीं आई I वह लखनऊ की अपनी ही गति से बहती हुई जिन्दगी के आदी जो थे। वैसे भी मदनलाल जल्दबाजी में कोई काम नहीं करते थे I बस स्केच करते समय अथवा किसी जगह पूर्व निर्धारित समय से पहुंचने के लिये उन्हें सदैव ही जल्दी रहती थी। उन्हें अपने जीवन की अस्थिरता दूर करने की जल्दी अवश्य थी जिससे वह अपनी सृजनात्मक गतिविधियों को अधिक समय दे सकें ।
कहते हैं असफलता के डर से प्रयास न करने से बेहतर है प्रयास करते हुये असफल हो जाना। कम से कम प्रयास न करने की ग्लानी तो नहीं होगी। वैसे प्रयास कब सफलता के द्वार पर ला खड़ा करे इसका भान तब हुआ जब सन् 1956 में आचार्य सुधीर रंजन ख़ास्तगीर की लखनऊ के कला महाविद्यालय में प्रधानाचार्य के पद पर नियुक्ति हुई। खास्तगीर कला महाविद्यालय में आमूल-चूल परिवर्तन करने के लिये कृतसंकल्प थे। इसके लिये उन्हें नई सोच और खुली विचारधारा के अध्यापकों की आवश्यकता हुई। यद्यपि वह स्वयं शान्तिनिकेतन में प्रशिक्षित बंगाल के कलाकार रहे थे I किन्तु लखनऊ कला मंहाविद्यालय के स्थानीय चरित्र को बनाए रखते हुऐ एक व्यापक पहचान देने के आशय से उन्होंने स्धानीय कलाकारों को प्राथमिकता देना चाही। सर्वप्रथम उनकी दृष्टि मदनलाल नागर पर ही पड़ी और 1956 में ही उनकी नियुक्ति सहायक प्रोफेसर ललित कला के पद पर करदी गई। यही से मदनलाल के प्रयासों ने सफलता की दिशा में एक ऐसा मोड़ लिया जिससे उन्हें फिर कभी पीछे नहीं देखना पड़ा।

मदनलाल नागर का प्रिय व्यवसाय अध्यापन जिसे वास्तव में उन्होने कभी व्यवसाय समझा ही नहीं। वह तो अपने छात्रों को और समाज को कुछ देने के लिये सदैव ही तत्पर रहते थे। बस अध्यापन कार्य के लिये मिलने वाला वेतन उनकी एक असहायता थी जो उनके जीवन और सृजन की निरंतरता बनाए रखने के लिए आवश्यक थी। उनकी नियुक्ति के एक वर्ष बाद सन् 1957 में मुझे भी एक छात्र के रूप में उनके सानिध्य का सौभाग्य प्राप्त हुआ। मैंने स्वयं उन्हें एक अध्यापक के साथ अभिभावक के रूप में भी पाया। अत्यंत शांत और सहज व्यक्तित्व के नागर जी को हमने सदैव हाथ में ब्रुश पकड़े एक चितेरे के रूप में ही देखा जो वह अंतसमय तक थामें रहे।
विलक्षण प्रतिभा और व्यक्तित्व के आचार्य मदन लाल नागर को उनके दैनिक जीवन में एक साधारण इन्सान के रूप में ही देखा जा सकता था। वास्तव में एक साधारण इन्सान का कुछ असाधारण करने का प्रयास ही वास्तविक सृजन का आधार होता है।मान सम्मान और उपाधियाँ तो अभिव्यक्ति के प्रवाह में अवरोध पैदा करती हैं। कलाकार समय की सीमा से मुक्त सदैव भविष्य की ओर अग्रसर रहता है। कलाजगत में उसकी प्रासंगिकता भविष्य ही निर्धारित कर पाता है। मदनलाल नागर आज हमारे बीच नहीं हैं किन्तु उनकी सृजनात्मकता कलाकृतियों के माध्यम से उनकी उपस्थिति का एहसास आज भी कराती है और आगे भी उस कालखंड से जोड़े रहेगी जिसके हर पल को पूर्णता से जीते हुए मदनलाल नागर ने अपनी कल्पना को विस्तार दिया और भविष्य के अनंत में पदार्पण किया था जो आज हम उनकी रचनाओं में देख पाते हैं।

मदनलाल ने कलाजगत में प्रवेश करने के उपरांत कभी चुनौतियों को लक्ष्य नहीं बनाया। लगातार चलते रहना ही उनका लक्ष्य रहा जिसने उनके सृजन में निरंतरता बनाए रखी और यह निरंतरता ही उनकी कला के कृमिक विकास का प्रमुख कारण रही। इस कलायात्रा में संधर्ष करना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है और मदनलाल को भी अपना लक्ष्य प्राप्त करने के लिये संघर्ष करना ही था I किन्तु उन्होंने अपने लक्ष्य को अपने सृजन तक ही सीमित रक्खा। पुरस्कार अथवा मानसम्मान को उन्होंने कभी महत्व नहीं दिया। लखनऊ कला महाविद्यालय के अध्यापन काल में प्रशिक्षण से जुड़े दायित्वों में इतने लीन हो गये थे कि एक समय प्रधानाचार्य के पद पर उनकी नियुक्ति की पूरी सम्भावना थी किन्तु उन्होंने प्रशासनिक दायित्वों से अपने को अलग रख कर छात्रों के बीच रहना ही स्वीकार किया।
नागर जी के सृजित कला संसार पर एक दृष्टि डाली जाय तो उनके प्रारम्भिक कार्य विभिन्न माध्यमों और शैलियो के प्रयोगात्मक कार्य थे जो वास्तव में उनकी अपनी पहचान को लेकर एक खोज की प्रक्रिया ही रही थी। लखनऊ के कला विद्यालय में प्रशिक्षिण पूर्ण करते करते ही उनकी तकनीकी क्षमताओं और अपनी सृजित कलाकृतियों के अत्यंत संवेदनशील विषयों से वह चर्चा में आ गये थे।प्रारम्भिक कार्यो में उनके चित्रों में जहां एक ओर ग्रामीण अंचल के आकर्षक् दृष्य और जनजीवन से जुड़ी आकृतियाँ दृष्टिगत हो रहीं थीं वहीं संवेदना और त्रासदी का चित्रण दर्शक को सोचने के लिये विवश करदेता था। जीवंत मानव आकृतियां ( पोर्ट्रेट ) बनाने में तो उन्हें सिद्धहस्ता प्राप्त थी। यह भी सम्भवतः उनपर ललित मोहन सेन का प्रभाव ही था। मदनलाल के कार्यों में धीरे-धीरे फ्रांसीसी प्रभाववादी कलाकारों का प्रभाव दृष्टिगत होने लगा था। साथ ही अपनी कला में मौलिकता के प्रश्न को लेकर वह सदैव ही प्रयत्नशील रहे।
रंगो और आकारों के बीच एक लम्बी यात्रा के उपरांत ही मदनलाल की कला में ठहराव आया। वास्तव में सन् 1960 के आसपास ही उन्हें इस बात का भान हुआ कि जिसकी खोज में वह इधर उधर भटकते रहे थे उसी के बीच तो वह खड़े हुए थे। हां वह पुराने लखनऊ के चौक की भूलभुलइया सरीखी गलियाँ ही तो थीं। उन गलियों में सदियों से अविरल गति से बहती जिंदगी जो अपने अंदर एक इतिहास को संजोए बदलते समय से संघर्ष करती हुई अपने खंडहर होते अस्तित्व को बचाने की नाकाम कोशिश करती रही थी। सबसे विचित्र उन गलियों का हर पहर में बदलता रंग रूप। सुबह मंदिर के घंटो की ध्वनि और मस्जिद से आती अज़ान और धीरे धीरे अंधेरे में सोती जिंदगी को जगाती हुई सूर्य रश्मियाँ और यकायक समस्त वातावरण का गतिशील हो जाना। फिर दिनभर चलता यह क्रम संध्याकाल के पदार्पण करते ही बेला चमेली की सुगंध से वातावरण को सुवासित कर देता। कहीं दूर से आती सारंगी की आवाज़, घुंघरुओं की घनघनाहट के साथ तबले की थाप जिंदगी का एक अलग रूप प्रस्तुत करता, जहां हर्षोल्लास के साथ सिसकिया भरती घुटन भरी जिंदगी अपनी स्वतंत्रता की नाकाम कोशिश करती, क्या कुछ नहीं था इन गलियों में, आक्रांताओ के घोड़ों की टापे कितना कुछ रहा था और कितना कुछ बदल गया किन्तु अतीत का अक्स नहीं बदला। यहीं इन गलियों के बीच बचपन से जवानी की ओर कदम रखते हुए मदनलाल ने दूध जलेबी खाते हुए अतीत के अद्रश्य को देखा था। उन आवाजों को सुना था जो कभी मधुर स्वरों के साथ दूर से आती किसी अभागी की कराह भी थी।
स्टूडियो में कोरे सफेद कैनवास के सामने खड़े मदनलाल को कैनवास का खालीपन चुनौती दे रहा था। यकायक हाथ में पकडी हुई चारकोल स्टिक से उन्होंने आड़ी तिरछी रेखाएं खीचना शुरू कर दिया। वह स्वयं भी विस्मय में थे, जब उन्होंने उन गलियों को उभरते हुए देखा जिन्हें वह कब का पीछे छोड़ आये थे। बस यहीं से शुरू होती है मदनलाल की शहर श्रृंखला । गलियों का मकड़जाल और वह जिन्दगी जो मदनलाल की कल्पना में शेष थी। सतही स्तर पर भले ही उनके चित्रों में जिन्दगी के प्रतीकों की अनुपस्थिति अखरती हो किन्तु मदनलाल ने शहर को कभी जिंदगी से अलग देखा ही नहीं। उनका मानना था कि शहर होता है इसलिये कि मनुष्य उसमें होते हैं, एक जिंदगी होती है। पूर्ण समग्रता से उनकी कलाकृतियों को देखा जाय तो वह दर्शक की कल्पना को सक्रिय करदेती हैं और कैनवास पर अंकित, भवन और गलियां परिवर्तित होने लगती मदनलाल की कल्पना के आकारों में। वास्तव में जिस अनुपस्थित की उपस्थिति का भान उनके चित्रों में होता है वह एक प्रकार से उनके सृजन की विशेषता है जो सहज ही हमें उस कल्पनालोक में लेजाता है जो वास्तव में कलाकार के सृजन का आधार रहा था।
मदनलाल नागर के व्यक्तित्व और कृतित्व की एक विशेषता रही है कि जितनी बार उसे हम विश्लेषणात्मक दृष्टि से देखते का प्रयत्न करते हैं हरबार कुछ नया कुछ अलग दृष्टिगत होता है। वास्तव में बौद्धिक जटिलताओं से परिपूर्ण कलाकृतियों का रसास्वादन करने के लिये उनके साथ समय बिताना होता है उनसे जुड़ना कर आत्मसात करना होता है जो चलते चलते किसी प्रदर्शनी में एक झलक देखकर सम्भव नहीं। वास्तव में यह अत्यंत दुखद है कि एसे सृजनशील और कर्मनिष्ठ कलाकार को समाज ने उनको मिलने वाली वास्तविक पहचान से वंचित रखा। आज हम जब उस बीते हुए अतीत में झांकने और मदनलाल नागर के सृजन और कलाजगत में उनकी भूमिका का आकलन करने का प्रयास करते हैं तो यह बात सत्य प्रतीत होती है कि कालजयी कलाकार की वास्तविक पहचान समय ही कर पाता है। और आज यह बात स्पष्ट रूप से कही जा सकती है कि भारतीय आधुनिक कला परिद्रश्य में मदनलाल नागर एक महत्व पूर्ण हस्ताक्षर है। उत्तर प्रदेश में तो उन्हें आधुनिक कला के प्रणेता की संज्ञा दी जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
-जय कृष्ण अग्रवाल
लखनऊ