सृजनात्मक प्रिंटमेकिंग के प्रारम्भिक दिन, सन् 1963.

Prof. Jai Krishna Agarwal

लखनऊ कला महाविद्यालय में प्रिंटमेकिंग को सृजनात्मक अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में शुरू करने का दायित्व सन् 1963 में मुझे सौंपा गया। उनदिनों मुझे कुछ विषम परिस्थितियों का सामना करना पड़ा किन्तु छात्रों से मुझे बड़ा सहयोग मिला। बिना उपयुक्त संसाधनों के इस विधा में काम कर पाना असंभव ही था किसी प्रकार स्पून रबिंग करके हमनें लीनो और वुडकट से शुरूआत कर ही दी। लीथोग्राफी में पहले से ही उपलब्ध सुविधा का लाभ हमें कुछ तकनीकी कारणों से नहीं मिल पा रहा था। एक वर्ष बाद एक दिन छात्रों को स्केचिंग कराते समय कॉलेज के पिछले भाग में चला गया जहां काठ कबाड़ पड़ा रहता था। वहां जो मैने देखा तो मेरी आंखें विस्मय से खुली की खुली रह गई। कबाड़ में एक छोटा एचिंग प्रेस और एक लीथो प्रिंटिंग मशीन पड़ी हुई थी। बस मुझे और क्या चाहिए था। छात्रों की सहायता से इन दोनों मशीनों को उठाकर हम कार्यशाला में ले आये। फिर शुरू हुआ जटिल काम कास्टिक सोडे से धुलाई और रेगमाल से रगड़ रगड़ कर जंग हटाने का। सालों से खुले आसमान के नीचे पड़े रहने पर इन मशीनों की जो हालत हो गई थी उसको देखकर एक डर सा भी था कि कहीं सारी मेहनत बेकार न जाय। मेरे छात्रों ने ही मनोबल बढाया और बोले सर क्या फर्क पड़ता है, मेहनत ही तो बेकार जायगी पर कुछ अलग सीखने को तो मिलेगा। बस फिर क्या था हमने पूरी ताकत झोंक दी और दो तीन दिनों में ही परिणाम सामने आने लगा। कास्ट आयरन के फ्रेम पर अधिक असर नहीं पड़ा था पर हां एचिंग प्रेस के रोलर्स की सतह जंग से खुरदरी हो गई थी। कालेज में क्राफ्ट विभाग के फोरमैन मोहम्मद यूनुस सूफी साहब हमारी मदद को आगे आये और उन्होंने दोनो रोलर्स की कालेज में ही लेथ मशीन पर थोड़ी टर्निंग कर उन्हें इस्तेमाल योग्य कर दिया। बड़े मनोयोग से दोनों प्रेस की एसेम्बिली और रंगाई पुताई पूरी कर जब फहला प्रिंट लिया गया तो हमारी खुशी का ठिकाना न था।

कभी-कभी खुशी भी बहुत समय तक टिक नहीं पाती है। हमनें इन दोनों प्रेस का इस्तेमाल बड़े जोर शोर से शुरू कर दिया था। कुछ दिन ही बीते थे समाचार कालेज के रजिस्ट्रार सोती वीरेन्द्र चन्द्र जी के पास पहुंचा। वह बड़ी तेज़ी से हड़बडाते हुए आये और जवाबतलब शुरू कर दिया कि किसकी इजाजत से इन डिस्कार्डेड मशीनों को लाया गया। इन्हें अनसर्विसेबिल सामान के साथ नीलाम करने के लिये सरकार को लिखा जा चुका है। उस समय श्री दिनकर कौशिक प्रधानाचार्य थे। उनसे जब मेरी शिकायत की गई तो वह स्वयं मेरी कक्षा में चले आये और दोनों प्रेस का बड़े चाव से निरीक्षण कर मेरी पीठ थपथपाई। कौशिक साहब का सेन्स ऑफ ह्यूमर कमाल का था वह बोले यही तो समस्या है, यहाँ सभी कुछ अनसर्विसेबिल होता जा रहा है। बहरहाल कौशिक साहब के आदेश से वह दोनों प्रेस कबाड़ में नीलाम होने से बच गए।

वर्तमान स्थिति यह है कि नये बड़े प्रेस के आ जाने के पूरे छप्पन वर्ष बाद भी वह दोनों प्रेस अभी तक प्रयोग में लिये जा रहे हैं…

14 इंच का यह एचिंग प्रेस सम्भवतः कभी प्रिंटिंग टेकनालोजी के पाठ्यक्रम लीथो प्रोसेस फोटो मैकेनिकल में हाथ से इनग्रेव कर एम्बाॅस्ड लैटर हैड, ग्रिटींग कार्ड और विजिटिंग कार्ड आदि प्रिंट करने के लिये प्रयोग किया जाता रहा होगा। जिनका प्रचलन समाप्त होने पर इसे डिस्कार्ड कर दिया गया। वैसे सम्भावना यह भी है कि आचार्य ललित मोहन सेन जो मुख्यतः वुडकट के लिये जाने जाते है, उन्होंने भी इस प्रेस पर सन् 1940 के आसपास कार्य किया होगा। श्री सेन ने प्रिंटमेकिंग लंदन में अपने अध्ययन काल में सीखी थी। उनके दो मिनिएचर एचिंग और ड्राइपॉइंट मेरे संग्रह में हैं जिनपर कोई तिथि अंकित नहीं है। प्रोफेसर हरिहर लाल मेढ जो उनके निकट रहे थे यह प्रमाणित नहीं कर सके कि इटैग्लियो प्रिंट उन्होने लखनऊ में बनाए थे अथवा लन्दन में। बहरहाल मेरी एक जिज्ञासा का समाधान अभीतक नहीं हो पाया है कि ऐसा क्या कारण रहा कि श्री ललित मोहन सेन स्वयं श्रेष्ठ प्रिंटमेकर होने के उपरांत भी अपने छात्रों अथवा साथी कलाकारों को इस माध्यम में कार्य करने के लिये प्रेरित नहीं कर सके। यह भी सम्भव है कि हमें उनके बारे में जानकारी ही न हो। यह अत्यंत दुखद है कि लखनऊ के कला मंहाविद्यालय का इतिहास अभी तक नहीं लिखा जा सका। ऐसा बहुत कुछ है जो इतिहास की परतों में छिपा हुआ है जिसकी जानकारी अत्यंत महत्वपूर्ण हो सकती है ।

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