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मेरे लगभग चालीस वर्ष के अध्यापन काल में कितने ही छात्र सम्पर्के में आये किन्तु कुछ एसे भी रहे जो अपनी अमिट छाप छोड़ गये। रवी बुटालिया भी उनमे से एक था जो दूर इंगलैण्ड में जा बसा किन्तु अपनी स्मृतियाँ यहीं छोड़ गया। सन् 1980 के आसपास बस कुछ ही वर्षों के लिये वह लखनऊ के कला मंहाविद्यालय में हम सब से जुड़ा था। सब से अलग था, शायद इसीलिए वह जितना हमारे पास था उतना ही दूर रहा। वास्तव में दूरी वैचारिक स्तर पर अधिक थी। चलती चली आ रही परम्पराओं के बोझ के नीचे दबा कला महाविद्यालय धीरे-धीरे उभर रहा था किन्तु रवि में इतन धीरज कहां था। अपना पाठ्यक्रम पूरा कर वह उच्च अध्ययन के लिये बड़ोदरा चला गया किन्तु वहां भी उसे अपेक्षित वातावरण नहीं मिल सका और वह बीच में ही छोड़ कर चला आया। मेरे साथ उसकी निकटता बस यूं ही हो गई। वह अक्सर शाम को मेरे घर चला आता और थोड़ी देर तक मेरे परिवार के साथ समय बिताता। बहुत कम बोलता था किन्तु मेरे बेटे को गोद में लेकर खिलाना उसे बहुत भाता। हमारे बीच संवाद न के बराबर ही था बस मेरी पत्नी की बनाई चाय की प्रसंशा में वह शब्दों को बिना कंजूसी के खर्च करता था।
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रवि का मेरे घर आना लगभग नियमित सा हो गया था। किन्तु उसका कम बोलना मुझे बड़ा अटपटा लगता। एक अंतराल बाद मुझे लगने लगा कि हमारे बीच शब्दों के बिना भी संवाद होता रहा था। वह अक्सर हमारे घर आकर बाहर ही शेड में आंखे बंद कर बैठ जाता और कुछ देर बाद जब आंखें खोलता तो लगता जैसे किसी लम्बी यात्रा से लौटने के बाद अपनी थकान उतार कर उठा है। वास्तव में रवि के विचार सबसे मेल नहीं खाते थे, मेरे से भी नहीं पर उसका विवाद कभी किसी से नहीं हुआ। शायद वह जानता था कि उसका रास्ता अलग है और उसे अपने रास्ते पर ही चलना है। बस वह बिना किसी दूसरे के रास्ते में आये आगे बढ़ जाता…।
रवि यद्यपि मेरा छात्र था किन्तु मुझे कभी-कभी लगता था कि उसका सोच ज्यादा परिपक्व है। उसकी एक बात ने मुझे बड़ा प्रभावित किया। अनेक व्यक्तिगत समस्याओं के बाद भी उसने लखनऊ के कला मंहाविद्यालय में अध्यापन करने में कोई रुचि नहीं ली। प्रोफेसर बिष्ट उस समय प्रधानाचार्य थे उन्होंने और आचार्य मदनलाल नागर ने रवि को कला इतिहास और सौन्दर्य शास्त्र का अध्यापन कार्य सौपने की इच्छा व्यक्त की थी। किन्तु रवि का सीधा सा उत्तर था कि उसे अपनी जिंदगी की शुरुआत करनी है और उसे किसी बेहतर विकल्प की तलाश है। बाद में जब रवि मुझसे मिला तो मैने ही उसे सुझाया कि शायद तुम्हारी सोच और साफगोई तुम्हारे लिए समस्याएं ही उत्पन्न करती रहेगी तुम विदेश क्यों नहीं चले जाते। बस रवि पहले कैनाडा और फिर बाद में इंग्लैंड जाकर बस गया । इस बीच वह दो बार कुछ दिनों के लिये ही भारत आया। मुझसे मिला भी पर अधिक समय यहाँ रह रही अपनी माँ के साथ ही व्यतीत किया। हां दूसरी बार उसके आने पर हमलोग फोटोआर्टिस्ट अनिल रिसाल सिंह के साथ वाराणासी के घाटों पर फोटोग्राफी करने अवश्य गये। वहां भी मैने अनुभव किया कि रवि को कुछ अलग की ही तलाश थी।
कभी-कभी सोचता हूं कि ऐसी कौनसी चुनौती मेरे सामने रही थी जो अपने छात्र की तरह बेहतर विकल्प की बात मेरे मन में नहीं आई…