मुहम्मद सलीम (1939-2022)

कुछ संस्मरण…

सन् 1961 बैच, लखनऊ कला मंहाविद्यालय के विलक्षण प्रतिभा का धनी एक छात्र

Prof. Jaikrishna Agarwal

कला महाविद्यालय के छात्रावास से लगभग प्रत्येक सुबह एक छात्र अपने कंधे पर झोला लटकाये हाथ में क्वाटर, इम्पीरियल साइज़ का ड्राइंग बोर्ड और कुछ कागज लिये पैदल निकल पड़ता। उसकी जेब में अंकुरित चने होते जो वह चलते-चलते खाता रहता था। शायद यही उसका नाश्ता हुआ करता था। अपने गंतव्य से लौटते समय उसके पास समय ही नहीं रहता था अतः वह सीधा अपनी कक्षा में ही चला आता। हम सबको उसकी प्रतीक्षा रहती कि वह आकर अपने ड्राइंग बोर्ड पर ढंके कागज़ को हटाकर हमें दिखाए कि आज उसने क्या बनाया है। वह एक हलकी सी मुस्कान जो वास्तव में उसके चेहरे की बनावट ही थी के साथ ड्राइंग बोर्ड को दीवार के सहारे खड़ा कर देता और जैसे ही ऊपर का कागज हटता हम सब आश्चर्य चकित हो जाते। वह कोई और नहीं लखनऊ के कला महाविद्यालय में मुझसे एक वर्ष सीनियर छात्र मुहम्मद सलीम ही था।

मैने स्वयं सन् 1957 में कला महाविद्यालय में प्रवेश लिया था। एक वर्ष छात्रावास में रहना पड़ा जो मेरे लिये थोड़ा कष्टप्रद्र रहा किन्तु सलीम भाई जैसे वरिष्ठ छात्रों से बहुत कुछ सीखने को भी मिला।सलीम भाई सबसे पहले सोकर उठ जाते थे और जबतक हम उठपाते, तबतक वह अपना दैनिक कार्यक्रम द्रष्य चित्रण करने निकल जाते। उन्हों ने कई बार मुझे साथ चलने के लिये कहा, दो एक बार मैं उनके साथ गया भी किन्तु मेरे लिये इतनी जल्दी तैयार होना थोड़ा मुश्किल ही था। सलीम भाई ने भी अधिक दबाव नहीं डाला बस हंसते हुए बोले भाई सुबह की चाय और बंद मक्खन खाने वाले लोग लैडस्केप थोड़े ही कर पाते हैं।

मोहम्मद सलीम की एक कलाकृति

 

सलीम भाई का मानना था कि सुबह की रोशनी में जितने रंग नज़र आते हैं धूप आ जाने के बाद सबकुछ बदल जाता है। वास्तव में जलरंगों की पारदर्शिता के साथ सुबह की रोशनी ही मेल खाती है। शायद इसीलिए लिये उनके दृश्य चित्रों में सुबह की ताज़गी नज़र आती थी। सलीम के प्रेरणा स्रोत ब्रिटिश वाटर कलरिस्ट विलियम रसलफ्लिंट और जोजेफ विलियम मेलार्ड टर्नर रहे थे। उनदिनों लखनऊ के कला महाविद्यालय में जलरंगों में चित्रण पर अधिक बल दिया जाता रहा था। लगभग सभी अध्यापक और छात्र जलरंगों के दृश्य चित्र बनाया करते थे। यहां रणबीर सिंह बिष्ट का उल्लेख तर्कसंगत होगा जिनके आॅन द स्पाट वाटर कलर लैडस्केप उससमय के छात्रों को अधिक प्रभावित करते थे।वैसे भी पहाड़ी प्रदेश की जिन मनोरम वादियों से सलीम और बिष्ट जी आये थे प्राकृतिक दृष्यों के प्रति उनका अनुराग स्वाभाविक ही था। सलीम के अत्यंत सहज और शांत व्यक्तित्व से उनके कलाकर्म में भी अभिव्यक्ति की सहजता परिलक्षित होती थी।

अपने सहपाठियों से उनकी वास्तविक प्रतिद्वंद्विता कभी भी नहीं रही यहां तक कि महाविद्यालय की परीक्षा भी उनके लिये कोई चुनौती नहीं थी। उनका सरोकार तो अपने कलाकर्म तक ही सीमित रहा था। सन् 1961 में कला महाविद्यालय की परीक्षा उत्तीर्ण करने के उपरांत वह लौट गये अपने मूल स्थान पर अपने कलाकर्म को विस्तार देने और लीन हो गये पहाड़ की उन वादियों में जो सदैव ही उनकी प्रेरणा स्रोत रहीं थी…

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