संस्मरण : सुरेन्द्र पाल जोशी 1955-2018

जयकृष्ण अग्रवाल सर उन कलाविदों में से है जिनकी लेखनी चलती ही रहती है। इन दिनों जय सर अपने छात्रों से जुड़े संस्मरण सोशल मीडिया पर नियमित तौर पर सामने ला रहे हैं। इन संस्मरणों में जहाँ एक कलाविद की पारखी नज़र की झलक मिलती है तो वहीँ गुरु और शिष्य की आत्मीयता की खुश्बू भी। सामान्य तौर पर ऐसे संस्मरण तो अक्सर देखने को मिल ही जाते हैं जिसमें कोई कलाकार अपने गुरु को याद कर रहा होता है। लेकिन अपनी याद में मेरे लिए यह पहला उदाहरण है जब किसी गुरु के द्वारा नियमितता के साथ अपने छात्रों की चर्चा की गयी हो।– मॉडरेटर

Prof. .Jaikrishna Agarwal

सुरेन्द्र पाल जोशी यानि लखनऊ कला महाविद्यालय के गौरवशाली अतीत का एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर। किसी पुरस्कार अथवा सम्मान का मिल जाना आमतौर से एक संयोग होता है, किन्तु किसी कलाकार की वास्तविक उपलब्धि केवल उसकी सृजनात्मक क्षमताओं पर ही आधारित होती है। कितने ही कलाकार जो अपने जीवनपर्यन्त सृजनरत रहे और कलाजगत को अपना श्रेष्ठ देने में प्रयत्नशील रहे किन्तु अपने समय में हाशिये पर ही रहे। ऐसे ही अनेक कलाकारों से कलाजगत का इतिहास रचा जाता रहा है।

लखनऊ के कला महाविद्यालय में प्रशिक्षित सन् 1985 बैच के छात्र सुरेन्द्र पाल जोशी का जन्म देहरादून के एक मध्यवर्गीय परिवार में हुआ था। एक संघर्ष भरी जिंदगी ने इस युवा छात्र को अंदर से कठोर और स्वावलंबी बना दिया था किन्तु उसके व्यक्तित्व की सहजता यथावत बनी रही। उसे कुछ करना था, अपना एक मुकाम हासिल करना था और वह भी केवल अपने प्रयास से। अपनी आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उसने पढ़ाई के साथ इलस्ट्रेशन का काम करना शुरू किया। इससे उसकी व्यस्तता इस हद तक बढ़ गई थी कि उसके पास मित्रता करने के लिये भी समय नहीं बचा था। प्रिटमेकिगं में बढ़ती हुई रुचि उसे मेरे नजदीक ले आई। इलस्ट्रेशन करते रहने से उसकी रेखाओं में पूर्णता के साथ एक विशेष आकर्षण आ गया था जो एचिंग के लिये उपयुक्त था। जब वह मेरी कक्षा में आता उसे काम करते करते मुझसे बतियाना बहुत अच्छा लगता। मुझे भी उसका सहज व्यक्तित्व और धीरे धीरे बात करना बहुत अच्छा लगता था। उसकी बात में एक समझदारी होती जो उस उम्र के छात्रों में कम देखने को मिलती थी। मुझे लग रहा था कि एक अच्छा प्रिंटमेकर जन्म ले रहा है। सुरेन्द्र ने भी इच्छा व्यक्त की थी की वह अपना पाठ्यक्रम पूर्ण होने पर कोई छात्रवृत्ति लेकर मेरे साथ प्रिंटमेकिंग में ही कार्य करेगा। उसे यह अवसर मिला भी।

सन्1986 में यूपी ललित कला अकादमी की छात्रवृत्ति के साक्षात्कार में उपस्थित विशेषज्ञ ने सुरेन्द्र से प्रभावित होकर उसके सामने एक शर्त रख दी कि उसका चयन इस बात पर निर्भर करता है कि वह प्रिंटमेकिंग के स्थान पर पेन्टिंग का विकल्प चुनें। उसकी हिचकिचाहट देखकर उसे समय दिया गया कि वह आज मध्याह्न के बाद भी सूचित कर सकता है। सुरेन्द्र तुरंत दौड़ता हुआ मेरे पास आया। सारी बात सुनकर मैने उसे आश्वस्त किया कि वह मेरी कार्यशाला में कभी भी आकर प्रिंटमेकिंग में काम कर सकता है,इस समय उसके लिये छात्रवृत्ति लेना आवश्यक है और भावनाओं में न बह कर उसे अपना विकल्प बदल लेना चाहिए। आखिर प्रिंटमेकिंग एक टैक्नीक है और पेटिंग का विस्तार ही तो है।

सुरेन्द्र ने 1988 में लखनऊ छोड़ कर जयपुर को अपनी कर्मस्थली बनाया और अपने सृजन से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी विशिष्ट पहचान बनाकर लखनऊ के कला महाविद्यालय का मान बढ़ाया। सन् 2018 में 63 वर्ष की आयु में घुमक्कड़ सुरेद्र ने अनंत की यात्रा के लिये प्रस्थान कर लिया और अपने पीछे आनेवाली पीढियों के रसास्वादन के लिये अपने सृजन की विशाल सम्पदा छोड़ गया।

सुरेन्द्र अंत समय तक मेरे सम्पर्क में रहा था। मैनें उसे नित नये प्रयोग करते हुए बड़े निकट से देखा था। उसने अपना एक अलग नैरेटिव विकसित किया था, उसकी कार्यशैली में एक ठहराव था जिसने उसे एक विशिष्ट पहचान दी। मेरे दीर्घकालिक अध्यापन कार्य के बीच कुछ ऐसी प्रतिभाएँ भी उभरी जिनपर हमें गर्व होता है और सुरेन्द्र तो कुछ ख़ास ही था…

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